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समाज-सरोकार

विस्थापितों से धोखेबाजी व गद्दारी की नींव पर खड़ा है बोकारो इस्पात संयंत्र

रूपेश कुमार सिंह
स्वतंत्र पत्रकार

झारखंड के बोकारो जिला स्थित बोकारो इस्पात संयंत्र भारत के सार्वजनिक क्षेत्र का इस्पात संयंत्र है। यह संयंत्र भारत के प्रथम स्वदेशी इस्पात संयंत्र के रूप में भी जाना जाता है। यह इस्पात कारखाना सार्वजनिक क्षेत्र में चौथा इस्पात कारखाना है। इसकी स्थापना 29 जनवरी 1964 को हुई थी। 25 जनवरी 1965 को भारत व सोवियत संघ सरकार के बीच बोकारो स्टील प्लांट बनाने पर सहमति हुई थी। 22 दिसंबर 1965 से जीपरोमेज मॉस्को द्वारा कार्यक्षेत्र की जमीन के समतलीकरण का काम डीपीएलआर ने शुरु  कर दिया था। 6 अपै्रल 1968 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथों बोकारो स्टील प्लांट की प्रथम धमन भट्टी के निर्माण कार्य का उद्घाटन हुआ था।

रूपेश कुमार सिंह
स्वतंत्र पत्रकार

झारखंड के बोकारो जिला स्थित बोकारो इस्पात संयंत्र भारत के सार्वजनिक क्षेत्र का इस्पात संयंत्र है। यह संयंत्र भारत के प्रथम स्वदेशी इस्पात संयंत्र के रूप में भी जाना जाता है। यह इस्पात कारखाना सार्वजनिक क्षेत्र में चौथा इस्पात कारखाना है। इसकी स्थापना 29 जनवरी 1964 को हुई थी। 25 जनवरी 1965 को भारत व सोवियत संघ सरकार के बीच बोकारो स्टील प्लांट बनाने पर सहमति हुई थी। 22 दिसंबर 1965 से जीपरोमेज मॉस्को द्वारा कार्यक्षेत्र की जमीन के समतलीकरण का काम डीपीएलआर ने शुरु  कर दिया था। 6 अपै्रल 1968 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथों बोकारो स्टील प्लांट की प्रथम धमन भट्टी के निर्माण कार्य का उद्घाटन हुआ था।

24 जनवरी 1973 को भारतीय इस्पात प्राधिकरण (स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड-सेल) की स्थापना भारत सरकार के पूर्ण स्वामित्व में होने के बाद 1 मई 1978 को पब्लिक सेक्टर आयरन एंड स्टील कम्पनीज रिस्ट्रक्चरिंग एंड मिस्लेनियस प्रोविजन 1975 के अनुसार बोकारो स्टील लिमिटेड का विलय सेल में हो गया। यह तो थी बोकारो इस्पात संयत्र के स्थापना से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण तथ्य। बोकारो इस्पात संयंत्र की स्थापना का मूल कारण यही था कि हमारा देश स्टील के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सके और साथ ही साथ तत्कालीन बिहार जैसे पिछड़े राज्य में उद्योग लगने के कारण इसका विकास भी हो सके। इस उद्योग को लगाने में तत्कालीन बिहार सरकार के केंद्र सरकार की भरपूर मदद की थी।

जब बोकारो इस्पात संयंत्र की स्थापना की बात चली तो तुरंत तत्कालीन बिहार सरकार ने 1956 ई. में ही बोकारो इस्पात संयंत्र को कुल 31287.24 एकड़ भूमि उपलब्ध कराया, जिसमें 26908.565 एकड़ अर्जित भूमि, 3600.215 एकड़ गैर मजरूआ भूमि एवं 778.46 एकड़ वन भूमि शामिल था। कहा जा सकता है कि तत्कालीन बिहार सरकार हरगिज नहीं चाहती थी कि यह कारखाना कहीं और लगे। इसलिए तुरंत ही लगभग सारी जमीन खाली कराकर बोकारो इस्पात संयंत्र को सौंप दिया गया, लेकिन उचित पुनर्वास व नियोजन पर सहमति ना हो पाने के कारण 20 गांव के 824.855 एकड़ जमीन राज्य सरकार खाली नहीं करा सकी। फलस्वरूप वर्त्तमान में इन सभी गांवो पर स्वामित्व को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में राज्य सरकार व बोकारो इस्पात संयंत्र या कहा जाए तो सेल प्रबंधन के बीच लड़ाई चल रही है।

लड़ाई का परिणाम जो भी निकले लेकिन वर्त्तमान में इस लड़ाई में पिस रहे हैं 19 गांव (क्योंकि एक गांव के ग्रामीण को कुछ अधिकार भी हासिल है) के विस्थापित वैसे कहा जाये तो ये 19 गांव नहीं बल्कि 19 मोजा है, जिसके अंतर्गत करीब 30-35 गांव आते हैं। इन गांवों में 17-18 हजार परिवार रहते हैं। इन गांवों की कुल जनसंख्या 70-80 हजार होगी, वहीं 42-45 हजार के करीब यहां मतदाता हैं। लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ये विधानसभा व लोकसभा चुनाव में तो मतदान करते हैं लेकिन पंचायत चुनाव में नहीं। क्योंकि ये किसी पंचायत में शामिल नहीं हैं, फलस्वरूप पंचायत द्वारा प्रदत्त किसी भी सरकारी योजना से भी ये मरहूम है।

विस्थापितों की कहानी, विस्थापितों की जुबानी
मालूम हो कि 3 जनवरी 2017 को बोकारो इस्पात संयंत्र के कूलिंग पौंड संख्या-दो के बगल में ऐश पौंड के अवैध निर्माण का विरोध कर रहे 10 विस्थापित नेताओं को धोखे से पकड़कर पुलिस ने 4 जनवरी को जेल भेज दिया है। जिसमें शामिल है, मजदूर संगठन समिति के बोकारो स्टील शाखा के सह सचिव प्रदीप कुमार व संगठन सह-सचिव मोहन महतो एवं विस्थापित बेरोजगार मुक्ति संगठन के अध्यक्ष वासुदेव महतो, सचिव जन्मेजय कुमार, कोषाध्यक्ष निवारण महतो, उप- कोषाध्यक्ष अरूण कुमार, संगठन सचिव श्री प्रसाद, प्रवक्ता अविनाश महतो, सदस्य बबलू कुमार व अशोक महतो। पुलिसिया तानाशाही और पुलिस की सेल प्रबंधन की तलवाचाटू प्रवृत्ति से विस्थापितों में काफी आक्रोश है, जिसका प्रदर्शन 19 जनवरी को हुए जनाक्रोश रैली में उन्होंने किया है।

विस्थापितों में सेल प्रबंधन के खिलाफ घनीभूत चरम आक्रोश के दौर में ही मजदूर संगठन समिति व विस्थापित बेरोजगार मुक्ति संगठन के नेताओं के सक्रिय सहयोग से प्रभावित क्षेत्र में मुझे जाने का मौका मिला। बोकारो इस्पात संयंत्र के चारदिवारी से मात्र 500 मीटर की दूरी पर स्थित है चिटाही गांव (महुआर मोजा अंतर्गत)। 80-90 परिवार वाले इस गांव की कुल जनसंख्या 6-7 सौ है। इस गांव में कुछ पक्के मकान है, तो कुछ कच्चे। इस गांव के युवकों ने 2015 में ही विस्थापित बेरोजगार मुक्ति संगठन का गठन किया है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले ये चुप बैठे थे। ये लगातार कई दशकों से विभिन्न विस्थपित संगठनों के बैनर तले लड़ते आ रहे थे।

मालूम हो कि इस क्षेत्र में लगभग 56 विस्थापित संगठन है। लेकिन सेल प्रबंधन के पैसे व प्रशासन की ताकत के सामने ये जल्दी ही घुटने टेक देते हैं। विस्थापितों को तो ज्यादा फायदा इन संगठनों से नहीं मिलता है, लेकिन चंद विस्थापित नेता आंदंोलन के जरिए मालामाल होते आए हैं। खैर, जब मैं इस गांव में पहुंचा, तो मेरी मुलाकात विस्थापित ग्रामीणों की एक टोली से हुई और सड़क किनारे बैठकर मैंने रिपोर्ट इकट्ठी करनी शुरू कर दी। वहां उपस्थित विस्थापित बेरोजगार मुक्ति संगठन के कार्यकारी अध्यक्ष संजीव कुमार, उपाध्यक्ष पंकज कुमार, संगठन सह-सचिव अशोक कुमार, गणेश महतो, राजेश कुमार, किशोर कुमार, अजुर्न महतो, शंभू महतो, लखीवाला देवी, सावित्राी देवी, गंगा रानी आदि बताते हैं कि गांव के बड़े बुजुर्ग बताते थे कि जब बोकारो स्टील प्लांट लगनेवाला था, तो वे लोग काफी खुश थे कि अब तो हमारे पिछवाडे़ में इतना बड़ा उद्योग लगेगा, तो हमारे घर में खुशहाली आएगी। हमारे बच्चों को रोजगार मिलेगा। लेकिन अफसोस कि एक पूरी पीढ़ी इन सपनों को अपने आंखों में संजोए इस दुनिया से चले गए, पर उनके सपने पूरे नहीं हुए।

चिटाही के ग्रामीण बताते हैं कि कहां तो हमारे घर में खुशहाली आने वाली थी, लेकिन आया क्या? सिर्फ व सिर्फ बोकारो इस्पात संयंत्र के चिमनियां से उठते हुए धुओं का गुबार और वहां का डस्ट जो ग्रामीणों में फेफड़े से संबंधित बिमारी, कैंसर, चर्म रोग आदि खतरनाक बिमारी के वाहक है। पूरे गांव में एक भी चापाकल नहीं है, मजबूरन सभी को कुएं का पानी पीना पड़ता है, जिसमें बोकारो स्टील प्लांट का डस्ट भरा होता है। ग्रामीण बताते हैं कि भले ही अब तक हमें अपने घरों से व खेतों से नहीं खदेड़ा गया है, लेकिन बोकारो स्टील प्लांट की चारदीवारी से सटे होने के कारण यहां का सारा डस्ट तो हमारे ही घर व खेत में आता है, जिसके कारण न तो अच्छे से कोई फसल होती है और ना ही कोई भी व्यक्ति स्वस्थ रह पाता है।

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हमारे बगल में न जाने कितने शहरों के लोग आकर काम करते हैं, लेकिन हमारे ही बच्चे बेरोजगार हैं। हमें तो स्वच्छ पानी भी नसीब नहीं है। यहां तक कि किसी भी पंचायत में शामिल ना होने के कारण ना तो हमें वृ़द्धावस्था पेंशन, इंदिरा आवास, मनरेगा, लाल कार्ड आदि राज्य सरकार की कल्याणकारी योजना का लाभ मिल पाता है। जबकि बिजली बिल भी हम जमा करते हैं। विधायक कोष से सड़क का निर्माण भी हमारे क्षेत्र में हुआ है। फिर भी हम बीच में फंसे हुए हैं, एक तरफ हमें सेल प्रबंधन अतिक्रमणकारी मानता है, तो दूसरी तरफ राज्य सरकार हमारे गांव को अपने स्वामित्व में मानते हुए भी कल्याणकारी योजनाओं से मरहूम रखता है। इन्हीं सब वजहों से हम सेल प्रबंधन से पुर्नवास व नियांजन की मांग करते हैं।

ग्रामीण बताते हैं कि 3 जनवरी की घटना का हतिहास थोड़ा पुराना है। 2007 में हमारे गांव से 500 मीटर की दूरी पर पावर ग्रिड बनाने का काम शुरू हुआ। इमलोगों ने पावर ग्रिड की स्थापना से हमारे खेतों के होनेवाले नुकसान व हमारे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे असर के एवज में पावर ग्रिड में नियोजन की मांग की। वार्ता में सेल के तत्कालीन इडी ने मौखिक रूप से वादा किया कि ग्रामीणों को आइटीआई और अप्रेंटिस का कोर्स करवाकर नियोजन किया जाएगा। लेकिन बाद में वे अपनी बात से मुकर गए।

इस बार जब कूलिंग पौंड संख्या-दो के बगल में अवैध ऐश पौंड की मरम्मत की जाने लगी (ये ऐश पौंड 2 सितंबर 2015 को टूट गया था, जिसमें काफी फसल प्रभावित हुए थे और कई मवेशी भी दब गये थे), तो हमने संगठित होकर इसका विरोध किया। कई बार सेल प्रबंधन ने स्थानीय जिला प्रशासन के साथ मिलकर काम कराना चाहा, लेकिन हम लोगों ने काम रोक दिया, क्योंकि हमारे गांव से मात्रा 300 मीटर की दूरी होने के कारण अगर फिर से ये पौंड टूटता, तो अनगिनत जान-माल की क्षति होती और साथ ही साथ गर्मी केे दिन में ऐश पौंड से छाई उड़कर पूरे गांव के कुएं को भर देती। दूसरी बात ये भी थी कि ये ऐश पौंड ही अवैध था। इसका कोई टेंडर नहीं निकला था। सेल प्रबंधन इस तरह से कई छोटे-छोटे ऐश पौंड का निर्माण कर हमारी जमीन पर कब्जा करना चाहती है। परिणामस्वरूप 5-7 बार हमारे नेताओं को स्थानीय जिला प्रशासन ने बुलाकर काम चलने देने को कहा। नेताओं को काफी प्रलोभन भी दिया, लेकिन हमलोग नहीं माने तो जबरदस्ती पर उतर आए।

ग्रामीण बतााते हैं कि 3 जनवरी की सुबह जब सभी लोग अपने-अपने काम पर जाने की तैयारी कर रहे थे, तभी सूचना मिली कि अपने पूरे लाव-लश्कर केे साथ डीएसपी व एसडीओ के नेतृत्व में सेक्टर-4 थाना, सेक्टर-9 थाना, सेक्टर-12 थाना व बालीडीह थाना के झारखंड पुलिस व सैकडों सीआईएसएफ केे जवान अग्निशमन, वज्रवाहन व आंसू गैस के गोले से लैस होकर तीन जेसीबी के साथ काम कराने ऐश पौंड पर पहुंच चुके हैं। सूचना मिलते ही जितने लोग गांव में थे, सभी लोग परम्परागत हथियार से लैस होकर काम रोकने के लिए निकल पड़े। साथ ही अगल-बगल के विस्थापित गांव तक भी फोन के माध्यम से जानकारी दे दिये। फलस्वरूप 200 महिला-पुरूष व बच्चे परम्परागत हथियारों से लैस होकर ऐश पौंड पर जमा होकर प्रशासन द्वारा कराऐ जा रहे काम को रोक दिये। काम बंद कराने के फलस्वरूप वहां पर उपस्थित एसडीओ ने हमलोगों को आश्वासन दिया कि गिरफ्तारी देने पर काम बंद करवा दिया जाएगा, अन्यथा जबरन काम कराएंगे।

गिरफ्तार कर सभी को जेल भेजने की शर्त पर लगभग 100 महिला-पुरूष व बच्चों ने गिरफ्तारी दिया। लेकिन प्रशासन द्वारा शर्त के मुताबिक सभी को जेल भेजने के बजाय सेक्टर-4 स्थित कुमार मंडलम स्टेडियम में कैंप जेल बनाकर रखा गया। इधर प्रशासन ने अपनी दोगली नीति का परिचय देते हुए कार्यस्थल पर फिर से काम शुरू कर दिया। जिसे फिर से सैकड़ों ग्रामीणों ने अपने परंपरागत हथियार से लैस होकर बंद करवा दिया। ग्रामीणों के विरोध को देखते हुए प्रशासन को अपने तमाम ताम-झाम को समेटकर भागने पर मजबूर होना पड़ा। जिसका बदला प्रशासन ने कुमार मंगलम स्टेडियम में अपने गिरफ्त में लिये हुए नेताओं से लिया। वहां पर गिरफ्तार किये गये सैकड़ों विस्थापितों को छोड़ दिया गया लेकिन प्रशासन ने धोखेबाजी करते हुए वार्ता के नाम पर हमारे दस नेताओं को सेक्टर-4 थाना ले जाकर गिरफ्तार कर लिया (जिसके नाम आप पहले ही पढ़ चुके हैं)। अपने नेताओं की बिना शर्त रिहाई की मांग को लेकर हमने हजारों महिला-पुरूष व बच्चों के साथ 4 जनवरी को सेक्टर-12 थाना का 8 घंटे तक घेराव किया। लेकिन प्रशासन द्वारा हमारे नेताओं को छोड़ने के बजाय हमलोगों को भी गिरफ्तार कर कुमार मंगलम स्टेडियम लेते आया और उधर हमारे नेताओं को जेल भेज दिया।

ग्रामीण बताते हैं कि घटनास्थल सेक्टर-9 थाना क्षेत्र में आता है, फिर सेक्टर-12 थाना में  ही रखकर कैसे सेक्टर-9 थाना के प्रभारी द्वारा एफआईआर दर्ज कर लिया गया। यह सब मिले हुए हैं, जब सर्वोच्च न्यायालय में इन्हीं राज्य सरकार से सेल प्रबंधन का मुकदमा चल रहा है, तो फिर कैसे राज्य सरकार की पुलिस सेल प्रबंधन के जरिये विवादित भूमि को कब्जा करने में मदद पहुंचा सकता है। वे लोग बताते हैं कि ये सब मिले हुए हैं। दरअसल सेल ने अपनी तिजोरी का मुंह खोलकर सबको अपने पक्ष में मिला लिया है।

ग्रामीण बताते हैं कि पहले हम अकेले लड़ते थे, लेकिन अब मजदूर संगठन समिति जैसे वफादार क्रांतिकारी कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन का हमें साथ मिल रहा है। पहले हमलोग अपने संगठन विस्थापित बेरोजगार मुक्ति संगठन के झंडे में ‘‘काली मां’’ की तस्वीर लगाते थे। लेकिन अब हमने अपने झंडे का रंग लाल कर लिया है और अपने अधिकार की लड़ाई में अपने खून के अंतिम बूंद तक लड़ेंगे। मजदूर संगठन समिति के साथ होने के कारण ही हमारे महत्वपूर्ण नेताओं की गिरफ्तारी व जेल भेजे जाने के बाद भी हम डरे नहीं हैं और ना ही झुके हैं। हम अपने 11 सूत्रीय मांगों (11 सूत्रीय एजेंडा बाद में दिया गया है) को लेकर व अपने नेताओं की रिहाई को लेकर तुरंत ही 5 जनवरी को प्रेस कांफ्रेंस कर आगे की लड़ाई का एलान किये। 12 जनवरी को संयुक्त बैठक कर इस लड़ाई में और भी संगठनों को न्योता देने पर सर्वसम्मति बनी व 19 जनवरी के जनाक्रोश रैली में तमाम विस्थापित संगठनों, लगभग 15 पूर्व विधायकों व कई राजनीतिक दलों को भी आमंत्रित किया गया।

19 जनवरी को सेक्टर-9 स्थित हटिया मोड़ से सेक्टर-9 थाना होते हुए भगत सिंह चौक तक रैली निकाली गई, जिसमें हजारों महिला-पुरूष व बच्चे शामिल हुए। साथ ही साथ आमंत्रित किये गये अन्य संगठनों में पूरे देश में विस्थापन के खिलाफ लड़ाई के अगुआ संगठन विस्थापन विरोधी जनविकास आंदोलन के झारखंड संयोजक दामोदर तुरी, भाकपा (माले) लिबरेशन के पूर्व विधायक विनोद सिंह, माले नेता देवदीप सिंह दिवाकर व झारखंड रक्षक मोर्चा व मार्क्सवादी समन्वय समिति के नेतागण भी शामिल हुए। जनाक्रोश रैली से लड़ाई को और आगे ले जाने का एलान किया गया और इसे अब राष्ट्रीय स्वरूप देने का भी निर्णय लिया गया है। (रिपोर्ट लिखे जाने तक गिरफ्तार विस्थापित नेता जेल में बंद है, सीजीएम ने बेल रिजेक्ट कर दिया है और अब जिला कोर्ट में अपील किया गया है)

भ्रष्टाचार का पर्याय है बोकारो इस्पात संयंत्र
चिटाही गांव से निकलते ही और कुछ लोग साथ हो गये व कुछ महत्वपूर्ण जगहों कोे देखने का अवसर मिला। मजदूर संगठन समिति के बोकारो स्टील शाखा सचिव अरविंद कुमार साव, उपाध्यक्ष राजू कुमार व केंद्रीय सचिव दीपक कुमार के साथ-साथ विस्थापित बेरोजगार मुक्ति संगठन के कार्यकारी अध्यक्ष संजीव कुमार व उपाध्यक्ष पंकज कुमार के साथ कूलिंग पौंड संख्या-दो के बगल में बने ऐश पौंड देखने गया। उनलोगों ने बताया कि बोकारो इस्पात संयंत्र से निकलने वाला कचरायुक्त गरम पानी को ड्रिजिंग के माध्यम से कचरे को ऐश पौंड में पहुंचाया जाता है और पानी को  कूलिंग पौंड में, फिर यही पानी रिफाइन होकर प्लांट में जाती है। लेकिन प्रबंधन की अकर्मण्यता के कारण कूलिंग पौंड संख्या-दो का 60 प्रतिशत हिस्सा अब दलदल बन चुका है। क्योंकि कूलिंग पौंड में उस पानी के आने के 16 जगहों में से 12 अब बंद है, मात्र चार के माध्यम से ही पानी कूलिंग पौंड में आती है और ये चार भी राम भरोसे ही है।

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कचरा व पानी अलग-अलग ना होने के कारण कूलिंग पौंड संख्या-दो दलदली क्षेत्र बन गया है, जिसमें प्र्रत्येक वर्ष 10-20 लोग जरूर मरते हैं और मवेशियों का तो पता ही नहीं चलता। हमलोग प्लांट से गरम पानी निकलकर कूलिंग पोंड में आने वाले जगह का निरीक्षण किये। वहां देखकर साफ लगा कि सेल प्रबंधन का अधिकारी कितना अकर्मण्य है। अगर प्रबंधन का अधिकारी निरीक्षण करता, तो बंद पडे 12 जगह को खोलता। हमारे साथ चल रहे नेताओं ने कहा कि अगर कल ये चार भी बंद ही जाएंगे, तो सेल का काम भी बंद हो जाएगा। फिर सारे आरोप विस्थापितों पर लगेंगे। वहां से निकलकर ऐश के मरूस्थल में जाने का हमलोगों ने निर्णय लिया। वहां से जैसे ही निकले, तो दो पुलिस वाले कूलिंग पौंड संख्या-दो पर मुंह धोते नजर आए। हमारे साथ चल रहे नेताओं को वे पहचानते थे। पुलिस वाले ने देखते ही कहा कि ‘‘ आपलोग थाने में नहीं आये, आइयेगा, बड़ा बाबू खोज रहे थे।’’ बाद में हमें यह पता चला कि अपने गुप्तचरों के माध्यम से खबर पाकर वह हमलोगों की गतिविधि जानने ही पहुंचा था।

बोकारो इस्पात संयंत्र के प्रबंधन की दलाली व इनके भ्रष्टाचार को छुपाने में पूरा प्रशासनिक अमला, राजनीतिक पार्टियों के नेता व भ्रष्ट मजदूर संगठन भी मशगूल हैं। बोकारो इस्पात संयंत्र के लिए कुल अधिगृहित उपयोग की गयी भूमि मात्र 17751.275 एकड़ है, जिसमें बोकारो इस्पात संयंत्र की चारदीवारी के अंदर का भूक्षेत्र मात्रा 3000 एकड़ है। बांकि भूमि कई बड़ी-बड़ी कम्पनियों को बोकारो इस्पात संयंत्र ने लीज पर दे दिया है। जिसमें डालमिया सीमेंट जैसी कम्पनी भी है और बियाडा के तहत सैकड़ों छोटी-बड़ी कम्पनियां। जबकि सबलीज देना कानून का भी उल्लंघन है। लेकिन जब सत्ताधारी व विपक्षी तमाम पार्टियों का साथ हो, तो फिर कानून की बिसात ही क्या? एक बात आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिनकी जमीन पर प्लांट बना है, उन्हें तो साफ पानी तक नहीं मिलता, लेकिन बोकारो जिला के तमाम प्रशासनिक अधिकारी, बोकारो व इसके इर्द-गिर्द तमाम जिले के विधायकों व सांसदों को बोकारो इस्पात संयंत्र ने क्वार्टर उपलब्ध कराया है। अपने पिट्ठू मजदूर संगठनों को कई क्वार्टर दिये गये हैं। उदाहरणस्वरूप बोकारो इस्पात कामगार यूनियन को 6 क्वार्टर, बोकारो स्टील वर्कर्स यूनियन को 14 क्वार्टर्स दिये गये हैं। साथ ही तमाम राजनीतिक दलों को भी कार्यालय के लिए क्वार्टर मिले हैं। इन लोगों को क्यों क्वार्टर दिया गया है, आप समझ सकते हैं।

बोकारो इस्पात संयंत्र के वादे और धोखे
बोकारो स्टील के विस्थापित गांव के प्रमुख सभी लोगों की बैठक में 17 फरवरी 1968 को बोकारो स्टील के तत्कालीन मैनेजिंग डाइरेक्टर के एन जॉर्ज ने कहा था कि प्लांट की नियुक्तियों में विस्थापितों को प्राथमिकता मिलती रहेगी। अकुशल वर्ग के पद जैसे मजदूर, मैसेंजर, माली, खलासी आदि इनके लिए सुरक्षित हैं। प्रत्येक कार्य करने लायक विस्थापित व्यक्ति जो कार्य करना चाहते हैं, उन्हें कहीं न कहीं नियोजन अवश्य मिले। बोकारो स्टील की ओर से मिलने वाले दुकानों में भी विस्थापितों को प्राथमिकता दी जाएगी। विस्थापितों की शिकायत दूर करने के लिए एक अलग कार्यालय खोला जाएगा।
परन्तु बोकारो स्टील प्लांट के प्रबंधन ने एक भी वादा पूरा नहीं किया। बिहार सरकार के विशेष सचिव ने 15 सितंबर 1983 को बोकारो स्टील प्लांट के प्रबंध निदेशक को खत लिखकर वर्ग चार के पदों पर विस्थापितों की नियुक्ति का आग्रह किया, लेकिन प्रबंधन के कान पर जूं तक नहीं रेंगा। वर्तमान में वर्ग चार के पदों पर ठेके पर मजदूर रखे जा रहे हैं। दुकानों में विस्थापितों की प्राथमिकता को इस बात से ही समझा जा सकता है कि सेक्टर-4 स्थित 638 दुकानों में से मात्र 29 दुकान ही विस्थापितों को मिले हैं। विस्थापितों की शिकायत की बात ही जुदा है, रोज-ब-रोज विस्थापितों के हो रहे आंदोलनों को पुलिस की लाठी व जेल से दबाया जाता है।

बोकारो स्टील प्रबंधनन दावा करता है कि निगमित सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के फंड से 20 किलोमीटर की परिधि में आने वाले समस्त परिक्षेत्रिय गांवों/पुर्नवास क्षेत्रों में विकासात्मक कार्य किये जाते हैं। 2015-16 में 1460 लाख रूपये सीएसआर के तहत दिया गया है। लेकिन जब मैं ऐश के मरूस्थल पर पहुंचा यानी कि मैं जहां खड़ा था उसके चारों तरफ ऐश का ही पहाड़ था, जो कि गर्मी में हवा चलने पर उड़कर तमाम घरों में पहुंचते हैं। मेरे साथ के नेताओं ने बताया कि गर्मी में 5 मीटर पर खड़ा आदमी भी आपको दिखाई नहीं देगा। वे सभी 19 विस्थापित गांव भी बोकारो स्टील प्लांट के मात्र सात-आठ किलोमीटर की परिधि में ही है, लेकिन अधिकांश गांवों में पानी के लिए चापाकल तक नहीं है, किसी-किसी गांव में है भी तो मात्र एक या दो। एक भी गांव में उच्च विद्यालय नहीं है और ना ही अस्पताल है। तो फिर सवाल उठता है कि आखिर ये 1460 लाख रूपये गये कहां?

विस्थापितों के अगुवा संगठन बनने की ओर मजदूर संगठन समिति
मजदूर संगठन समिति के केंद्रीय सचिव दीपक कुमार, बोकारो स्टील शाखा सचिव अरविंद कुमार साव, उपाध्यक्ष राजू कुमार व कन्हाई महतो ( ये सभी नेता भी विस्थापित गांवों से ही है) बताते हैं कि पहले से ही कई संगठन आंदोलन कर रहे थे लेकिन सिर्फ कुछ मांगों को ही लेकर। हमलोगों ने 11 सूत्राीय एजेंडा पर 15 जून से 4 जुलाई 2013 तक स्लोगन प्रदर्शन किया।

मजदूर संगठन समिति ( बोकारो स्टील शाखा) की मुख्य मांगें:-

1. विस्थापितों के लिए आरक्षित चतुर्थ वर्गीय पद को अविलम्ब चालू करें।
2. पत्रांक संख्या 01/78 डी.एल. ए. नीति बी. एस. एल. द्वारा पालन करें।
3. 19 गांवों को अविलम्ब पंचायत का दर्जा दिया जाए।
4. सरप्लस किया हुआ जमीन पर बी. एस. एल. अपना हस्तक्षेप बंद करे।
5. 18 साल से उपर सभी विस्थापितों को उसके योग्यता के अनुसार रोजगार दिया जाए।
6. ठेका मजदूरों की असुविधा केा देखते हुए बी0 एस0 एल0 गेट नं0-5 से ठेका मजदूरों को आने-जाने का सुविधा दिया जाये।
7. 10 किलोमीटर चौतरफा ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक दायित्व के अंतर्गत पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोड, रोजगार आदि की व्यवस्था किया जाए।
8. बी. एस. एल. विस्थापित परिवार के शिक्षित आश्रितों को सामाजिक दायित्व के तहत आई. टी. आई. एवं अप्रेंटिस का प्रशिक्षण कराकर सेल के अंदर नौकरी में बहाली किया जाए।
9. ठेका मजदूरों को केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी एवं अन्य सुविधा दिया जाए।
10. स्थायी प्रकृति में कार्यरत ठेका मजदूरों को स्थायी किया जाय अथवा समान काम का समान वेतन एवं अन्य सुविधा लागू किया जाए।
11) कोलियरी के तरह की सेल में कार्यरत ठेका मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी दर प्रतिदिन 464 रू0 किया जाय।

ग्रामीणों से बातचीत करते लेखक रूपेश कुमार सिंह.

पहले-पहले हमारे विस्थापित भाई भी हमारे एजेंडे को अति मानते थे। लेकिन धीरे-धीरे उन्हांेने हमारे एजेंडों को माना और हमारे एजेंडे के पक्ष में गोलबंद हुए। परिणामस्वरूप 1 जुलाई 2014 को गांधी चौक से नया मोड़ तक जब मशाल जूलूस निकाला गया, तो उसमें 4 से 5 हजार लोग शामिल हुए। 7 जुलाई 2014 को सीओ आवास के घेराव में 8 घंटे तक  सीओ को अंदर ही बंधक बनाया गया। 8 जुलाई को त्रिपक्षीय वार्ता का आश्वासन मिलने के बाद हमलोगों ने घेराव हटाया, लेकिन कोई वार्ता नहीं हुई। हमलोग लगातार विस्थापितों के सवाल पर आंदोलन प्रदर्शन करते रहे हैं और वार्ता में सिर्फ नेता नहीं बल्कि अधिक से अधिक महिला-पुरूष विस्थापित भी शामिल होते हैं। इस जुझारू संघर्ष का ही परिणम है कि आज हमारा संगठन विस्थापितों की आवाज बनकर उभर रहा है।

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मजदूर संगठन समिति के बोकारो स्टील शाखा के सचिव अरविंद कुमार साव कहते हैं कि भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के अनुसार भी विस्थापितों को जमीन वापस मिलना चाहिए, क्योंकि 60 साल के बाद भी उसपर प्लांट का कोई काम तो हुआ नहीं। वे बताते हैं कि राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग, झारखण्ड के सचिव ने उपायुक्त बोकारो को 30 सितंबर 2007 को ही कहा कि जिस 7300 एकड़ जमीन पर बोकारो स्टील संयंत्र का कोई काम नहीं हो रहा है, तो उसे रैयतों को वापस दे दिया जाए। लेकिन इसपर कोई कार्यवाई नहीं हुई। वैसे इसके पहले भी 12 जनवरी 1979 को बिहार सरकार के विशेष सचिव द्वारा सभी जिला समाहर्ता को लिखे पत्र में भी इस बात का साफ उल्लेख था कि अधिगृहित भूमि पर, जिस प्रायोजन से अधिगृहित किया गया है, अगर वह काम नहीं हो रहा है, तो उसे वापस रैयतों को कर दिया जाए।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि चिटाही गांव के विस्थापितों के जुझारू संघर्ष ने एक बार फिर से सरकार  की दोरंगी नीति को सामने ला दिया है। आज पूरे देश में जमीन के अंदर    छिपे बेशकीमती खनिज संपदा को लूटने के लिए सरकार व उनके आका बहुराष्ट्रीय कम्पनी के द्वारा युद्ध छेड़ दिया गया है। सभी जगह स्थानीय निवासियों से लाखों झूठे वादे किये जा रहे हैं, लेकिन अभी तक के तमाम विस्थापितों के हालात को देखते हुए साफ-साफ कहा जा सकता है कि सरकार व कम्पनियां विस्थापितों से धोखा व गद्दारी ही कर रही है। बोकारो इस्पात संयंत्र के लिए भूमि के अधिग्रहण को लगभग 60 साल हो चुके हैं, लेकिन विस्थापितों की समस्या बरकरार है। आज जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई क्यों जरूरी है, उसे हम बोकारो इस्पात संयंत्र के विस्थापितों के हालात से समझ सकते हैं।

लेखक Rupesh Kumar Singh स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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