-अनिल सिंह-
- चहेतों को नौकरी देने के लिये बदल दी परीक्षा एजेंसी
- टीसीएस की जगह ऐपटेक को दे दी गई जिम्मेदारी
- एक ही जिले के दर्जनों लोगों की हुई नियुक्ति
- धांधली की शिकायतों के बाद भी नहीं हुई कार्रवाई
- राष्ट्रपति एवं पीएमओ के जांच कराये जाने का आदेश रद्दी में
लखनऊ : उत्तर प्रदेश विधानसभा सचिवालय नेताओं और उनके परिचितों-रिश्तेदारों को सरकारी नौकरी में सेट करने का अड्डा बन चुका है। जांच में यह तथ्य कई बार सार्वजनिक हुआ है कि प्रदीप दुबे ने लगभग सभी बड़े दलों के नेताओं के परिजनों-रिश्तेदारों को सही-गलत तरीके से नौकरी देकर ओबेलाइज किये रहते हैं, जिसके चलते तमाम जांच के आदेश रद्दी की टोकरी में पड़े रहते हैं।
उत्तर प्रदेश सचिवालय कर्मचारी संघ के अध्यक्ष लाल रत्नाकर सिंह ने प्रदीप दुबे के भ्रष्टाचार की शिकायत पीएमओ से लेकर राष्ट्रपति भवन तक की, तथा वहां से प्रदेश के मुख्य सचिव को संदर्भित आरोपों पर समुचित कार्रवाई कराने के निर्देश दिये गये, लेकिन इस मामले में आज तक कोई जांच नहीं कराई गई। हाई कोर्ट में जब नियुक्ति में गड़बड़ी लेकर याचिका दायर की गई तो कोर्ट ने इसकी जांच कराकर दोषियों को दंडित करने की जिम्मेदारी प्रमुख सचिव विधानसभा को को दे दी, जिन पर गलत तरीके भर्ती कराने का आरोप था।
दरअसल, सपा के शासनकाल में भी तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय और प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे पर सैकड़ों अवैध नियुक्तियां करने का आरोप लगा था। इस मामले में पीडित अभ्यर्थी हाई कोर्ट गये। कोर्ट ने अपने फैसले में इस भ्रष्टाचार की जांच कराने का निर्देश प्रमुख सचिव विधानसभा को ही दे दिया। अब जाहिर है कि जब अपने ही खिलाफ लगे अरोप की जांच करने को मिल जाये तो फिर रिजल्ट क्या होगा? वही हुआ, अपने खिलाफ लगे आरोपों से खुद को बरी कर लिया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में नियुक्तियों में भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए याचिका दायर की गई थी, जिस पर जज अमरेश्वर प्रताप शाही और दयाशंकर त्रिपाठी की खंड पीठ ने सुनवाई की थी। 18 मई 2017 को दिये गये अपने फैसले में कोर्ट ने कहा कि प्रदेश सरकार और विधानसभा सचिवालय के प्रमुख सचिव नियुक्तियों में हुई शिकायतों की जांच करें। अब सवाल यह था कि जब इन नियुक्तियों में राज्य सरकार और प्रमुख सचिव विधानसभा ही प्रतिवादी बनाये गये थे तो उन्हें जांच करने का अधिकार कैसे दे दिया गया?
इसी बिंदू को आधार बनाकर प्रमुख सचिव विधानसभा ने अपने ही खिलाफ की गई शिकायत की जांच कराने के लिये अपने खास लोगों की टीम गठित कर दी। और खुद इस टीम के अध्यक्ष बन गये। अब जाहिर था कि जब प्रतिवादी को ही अपनी जांच करने का आदेश मिल गया तो फिर सच सामने आना मुश्किल ही नहीं असंभव भी था। और ऐसा ही हुआ भी। लाल रत्नाकर सिंह ने इसके बाद राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री को शिकायत भेजी।
पूरा मामला यह है कि समाजवादी पार्टी के शासनकाल में माता प्रसाद पांडेय और प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे ने आचार संहिता लागू होने के बावजूद अपने खास लोगों की विधानसभा में नियुक्तियां करने के आरोप लगे। इसकी शिकायत चुनाव आयोग को भी भेजी गई थी, लेकिन आयोग ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। प्रदेश में विधानसभा चुनाव की आचार संहिता 4 जनवरी 2017 से लागू हुई थी, लेकिन विधानसभा में आचार संहिता के दौरान 12, 13, 16, 17, 18 और 27 जनवरी 2017 को समीक्षा अधिकारियों और सहायक समीक्षा अधिकारियों की नियुक्ति की गई। इनमें ज्यादातर इनके अपने तथा खास लोगों के परिचित एवं रिश्तेदार थे।
नियुक्तियों को कानूनी बनाने के लिये कागजी खेल को अंजाम दिया गया। आचार संहिता के दौरान ही 27 फरवरी 2017 को माता प्रसाद ने विधानसभा सत्र में ओवरटाइम काम करने वाले 652 अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लिए 50 लाख रुपये का अतिरिक्त मानदेय मंजूर किया। इस लिस्ट में उन लोगों के नाम भी शामिल कर लिये गये, जिनकी नियुक्ति आचार संहिता के दौरान की गई थी। यह कार्रवाई इसलिये की गई थी ताकि यह साबित हो सके कि यह लोग पहले से काम कर चुके हैं।
इनकी नियुक्ति में किसी प्रकार की कानूनी दिक्कत आये तो यह लोग ओवरटाइम काम का भुगतान दिखाकर कोर्ट जा सकें। पूरी तरह से सुनियोजित तरीके से की गई इन भर्तियों को लेकर शुरू से ही विवाद बना रहा। पहले यह परीक्षा टीसीएस से कराई गई, बाद में उसे बिना कारण टीसीएस को बाहर कर दूसरी कंपनी को जिम्मेदारी दे दी गई। टीसीएस आज भी अपने बकाये राशि के लिये लिखा-पढ़ी कर रही है।
यह है पूरा मामला
विधानसभा सचिवालय में समीक्षा अधिकारियों और सहायक समीक्षा अधिकारियों की नियुक्ति के लिए सपा शासनकाल में 12 जून 2015 को विज्ञापन निकला था। इसमें करीब 75 हजार अभ्यर्थियों ने आवेदन किया था, जिनसे फीस के तौर पर तीन करोड़ लिये गये थे। दोनों पदों के लिये परीक्षा कराने की जिम्मेदारी टीसीएस को दिया गया था। इसके लिये टीसीएस को डेढ़ करोड़ रुपये का भुगतान भी किया गया। इस पूरी परीक्षा के लिये टीसीएस को 3 करोड़ 11 लाख 79 हजार 953 रुपये दिये जाने थे।
टीसीएस ने इन दोनों परीक्षाओं के लिये प्रदेश के 11 जिलों में केंद्र बनाया। इन केंद्रों पर 29 और 30 दिसंबर 2015 को सभी आवेदकों की ऑनलाइन परीक्षा ली गई। परीक्षा बिना किसी आरोप-प्रत्यारोप और गड़बड़ी के ठीक ढंग से निपट गई। परीक्षा के दौरान किसी भी प्रकार की शिकायत या गड़बड़ी की कोई बात सामने नहीं आई। ऑनलाइन परीक्षा देने के बाद परीक्षार्थी अपने रिजल्ट का इंतजार करने लगे, परंतु सात महीने बीतने के बावजूद परिणाम घोषित नहीं किया गया। और ना ही देर होने का कारण बताया गया।
इस बीच 27 जुलाई 2016 को अचानक विशेष सचिव प्रमोद कुमार जोशी विधानसभा के नोटिफिकेशन के जरिये ऑनलाइन परीक्षा रद्द करने तथा नये सिरे से परीक्षा कराने के लिये दोबारा अभ्यर्थियों से आवेदन करने का ओदश जारी कर दिया। इस सूचना के बाद अभ्यर्थियों में नाराजगी फैल गई। नोटिफिकेशन में परीक्षा रद्द किये जाने का कोई कारण नहीं बताया गया। अभ्यर्थियों को भी यह जानकारी नहीं दी गई कि 29 एवं 30 दिसंबर 2015 को आयोजित की गई परीक्षा क्यों रद्द की जा रही है?
सबसे आश्चर्यजनक बात यह रही कि परीक्षा रद्द किये जाने तथा नये सिरे से आवेदन किये जाने का कोई विज्ञापन भी प्रकाशित नहीं कराया गया, जबकि नियमत: विज्ञापन के जरिये ही परीक्षा रद्द किये जाने तथा नये सिरे से परीक्षा कराये जाने की सूचना दी जानी चाहिए थी। विधानसभा सचिवालय ने ऐसा कुछ नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि परीक्षा निरस्त होने तथा नये सिरे से आवेदन जमा करने की जानकारी नहीं मिलने के चलते निरस्त परीक्षा में सम्मिलित होने वाले 15 हजार अभ्यर्थी बाहर हो गये। मात्र 60 हजार अभ्यर्थी ही नये सिरे से आवदेन दाखिल कर सके।
दोबारा परीक्षा कराने की जिम्मेदारी टीसीएस से लेकर ऐपटेक को दे दी गई। आरोप लगा कि टीसीएस द्वारा मन के मुताबिक खेल करने पर तैयार नहीं होने के चलते उसे परीक्षा लेने की प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया। ऐपटेक ने परीक्षा की जिम्मेदारी मिलने पर छह जिलों में केंद्र बनाये तथा परीक्षा ओमएआर सीट पद्धति से ऑफलाइन कराई। इस ओएमआर सीट पर पेंसिल से निशान बनवाया गया, जबकि ज्यादातर परीक्षाओं में ओएमआर सीट पर बाल पेन से निशान बनवाया जाता है ताकि गड़बड़ी की गुंजाइश नहीं रहे, लेकिन इसमें इसके ठीक उलट काम किया गया।
आरोप लगा कि अपने चहेते लोगों को लाभ पहुंचाने के मद्देनजर पेंसिल से ओएमआर सीट भरवाई गई ताकि धांधली करके रिश्तेदारों-नातेदारों की भर्ती की गुंजाइश बनी रहे। पेन की जगह पेंसिल का इस्तेमाल भी इसीलिये कराया गया ताकि अपने लोगों को इस सूची में फिट किया जा सके। ऐसा ही हुआ, तमाम ऐसे लोग चयनित कर लिये गये, जो योग्य ही नहीं थे। कुछ पात्रता भी नहीं रखते थे। इतना ही नहीं, चपरासी की नियुक्ति में भी खेल किया गया। चपरासी की नियुक्ति का विज्ञापन भी प्रमुख समाचार पत्रों की बजाय कम प्रसार वाले सांध्य अखबार में प्रकाशित कराया गया।
इस लिस्ट में ज्यादातर सिद्धार्थनगर जिले तथा प्रमुख सचिव विधानसभा के नजदीकी लोगों को भर दिया गया। इसके अतिरिक्त सपा नेता रामगोपाल यादव के करीबी रमेश कुमार तिवारी को विधानसभा पुस्तकालय में विशेष कार्य अधिकारी (शोध) के पद पर बिना किसी चयन प्रकिया का पालन किए नियुक्त कर दिया गया। इसी दौरान रिटायर हो चुके आरसी मिश्र को फिर से ओसएसडी बना दिया गया। माता प्रसाद पांडेय के दो दामादों और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर के दामाद की अवैध नियुक्तियों का मामला भी इसके पहले सुर्खिया बटोर चुका है।
भर्ती से जुड़ी कई शिकायतों को स्थानीय स्तर पर संज्ञान नहीं लिये जाने के बाद यूपी विधानसभा सचिवालय कर्मचारी संघ के अध्यक्ष लाल रत्नाकर सिंह ने इसकी शिकायत मय सबूत राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री से की। पीएमओ के सेक्शन आफिसर आलोक सुमन ने 31 अगस्त 2016 को तत्कालीन सपा सरकार के समय प्रदेश के मुख्य सचिव को इस पर उचित कार्रवाई करने का निर्देश दिया, लेकिन सपा सरकार ने पीएमओ के इस पत्र को ही रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।
लाल रत्नाकर की शिकायत पर राष्ट्रपति कार्यालय की तरफ से प्रदेश सरकार को सीबीआई जांच कराने का निर्णय लेने का सलाह दी गई थी, लेकिन इस मामले को भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। सबसे दिलचस्प बात यह रही कि कुछ शिकायतों को संज्ञान लिया भी गया तो उसकी जांच करने की जिम्मेदारी प्रमुख सचिव विधानसभा को ही सौंप दी गई। जाहिर है कि फिर ऐसे में सच बाहर आना संभव ही नहीं था। लाल रत्नाकर ने पिछले एक दशक में हुई समस्त नियुक्तियों की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराये जाने की मांग की है।
लखनऊ से बेबाक पत्रकार अनिल सिंह की रिपोर्ट.
इसके पहले वाले पार्ट पढ़ें-