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सुख-दुख

विज्ञापनबाज नेताओं की फितरत एक जैसी होती है!

नवेद शिकोह-

मैगी का विज्ञापन हो या फेयर एंड लवली का, श्याम बहार, कमला पसंद, रजनीगंधा का, सिगरेट या शराब का विज्ञापन हो। दिनदहाड़े अंगेजी बोलने का एडवरटीज़मेंट हों या बिना हाईस्कूल इंटर कोर्स करने जैसा हास्यास्पद विज्ञापन कंटेंट हो। गुप्त रोगों के इलाज की ठगी का विज्ञापन हो या मसाज पार्लर का हो। शाही दवाखाने का इश्तिहार हो… या कोई और, विज्ञापन क़ाबिले भरोसा नहीं होते।

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याद होगा आपको, यूपी में मुलायम सिंह सरकार पर जब गुंडा राज की तोहमते लगने लगीं। विपक्ष कानून व्यवस्था के चरमराने के आकड़ों के साथ हमलावर होने लगा तो सपा सरकार ने एक चर्चित विज्ञापन से पूरा यूपी पाट दिया था। अमर सिंह के जरिए तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के ख़ासमख़ास बने बिग बिग को सरकार के क़सीदे गढ़ने के लिए मुलायम सरकार का ब्रॉड एंबेसडर बनाया गया।

सैकड़ों करोड़ खर्च करके लोकप्रिय अभिनेता महानायक अमिताभ बच्चन से कहलवाया गया- ” यूपी मे है दम, क्योंकि जुर्म यहां है कम”। ख़राब क़ानून व्यवस्था को बेहतर बताने वाला ये जुमला प्रदेश भर में होल्डिंग से पट गया था। अखबारों और टीवी पर अमिताभ बच्चच हर वक्त यही कहते हुए नजर आते थे कि- यूपी मे है दम क्योंकि जुर्म यहां है कम।

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इत्तेफाक कि इन विज्ञापनों की बौछारों के दौरान ही यूपी में तमाम अपराधिक घटनाओं के साथ बच्चों को मारकर खाने वाला निठारी कांड भी उत्तर प्रदेश की जनता का दिल दहल गया था। यही हाल हर सरकार मे रहा है। मायावती की सरकार हो, आखिलेश की सरकार हो, योगी सरकार हो या दिल्ली की केजरीवाल सरकार हो, गंजे को कंघा बेचने वाले खर्चीले विज्ञापनों के विज्ञापनों की फितरत एक जैसी होती है।

एक फूल को क्या रोना जब खेत के खेत उजड़ते रहे हों। महिला अपनी सही उम्र कभी नहीं बताती। पुरुष अपनी वास्तविक तनख्वाह सही नहीं बताता।अखबार का मालिक कभी सही सरकुलेशन नहीं बताता। तो फिर विज्ञापन से तो ये क़तई उम्मीद मत कीजिए कि उसके दावे.. उसकी तस्वीरें सही हों।

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विज्ञापन की दुनिया में दाल मे काला नहीं होता बल्कि काले में दाल होती है। सेल्स,मार्केटिंग और ब्रांडिंग पेशे के विज्ञापन का झूठ तो पुरानी आम परंपरा है, क़ाबिले फिक्र बात तो ये है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रक्षक पत्रकारों की खबरों की विश्वसनीयता दशकों से दरकती जा रही है।

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