#VimalKumar
Vimal Kumar : करीब 15 साल पहले मैं राष्ट्रपति भवन में भारतीय भाषा परिषद् के पुरस्कार समारोह को कवर करने गया था तो मैंने कृष्णा सोबती जैसी बड़ी लेखिका को भी पुरस्कार लेने के लिए रिहर्सल करते देखा तब मुझे झटका लगा था. तब प्रभाकर श्रोत्रिय परिषद् के निदेशक थे. मैंने जनसत्ता में पुरस्कारों का रिहर्सल शीर्षक से एक लेख लिखा था. गिरिराज किशोर ने रिहर्सल को जायज़ ठहराते हुए मेरे लेख के जवाब में एक लेख लिखा. उस दिन मैं समझ गया कि हमारे देश के लेखकों में आत्मस्वाभिमान नाम की कोई चीज़ नहीं है. वे किसी के हाथों कोई पुरस्कार ले सकते हैं उसके लिए कुछ भी कर सकते हैं. इसमें हमारे कुछ वामपंथी दोस्त भी शामिल हैं.
आज भी जब किसी को राष्ट्रपति प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के हाथों किसी को पुरस्कार लेते देखता हूँ तो हंसी आ जाती है. फिर सोचता हूं ये लेखक दया के पात्र हैं, सम्मान के भूखे. इन्हें समाज से इज्ज़त नहीं मिली शायद इसलिए वे ऐसा करते हैं. आखिर हमारे लेखक कब इस बात को समझेंगे. बड़ा लेखक प्रधानमंत्री राष्ट्रपति से बड़ा आदमी होता है, वो कारपोरेट का एजेंट नहीं होता. वो सोनिया गांधी की दया पर नहीं जीता. वो ज्योति बासु का गुणगान नहीं करता. वो मोदी या अडवानी या नितीश या लालू के पीछे नहीं घूमता. वो अखिलेश यादव या मुलायम मायावती से बड़ा है. केवल रामविलास शर्मा ने लेखकीय आत्मस्वाभिमान की रक्षा की है. निराला ने भी यही काम किया था. लेकिन मैं देखता हूँ कि हमारे लेखक एक सांसद भी का सम्मान करने पहुँच जाते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार विमल कुमार के फेसबुक वॉल से.
pushpranjan
September 1, 2014 at 11:29 am
“पुरस्कारखोर” और “चैनल चितचोर” !
साहित्य और पत्रकारिता में “पुरस्कारखोरों” का गैंग ज़माने से सक्रिय है.
कुछ पत्रकार और सम्पादक शाम होते ही टीवी चैनलों से बुलावे की बात जोहते हैं, जैसे गला तर करने की तलब मे तडप रहे हों. चाहे उनके अखबार की ऐसी- तैसी हो जाये.
स्मैक से भी अधिक नशा है, प्रचार और पुरस्कार में.
इन्हे देखकर दया नहीं, शर्म आती है.
पुष्परंजन
9971749139