हिंदी पत्रकारिता के इस दौर में हम लोगों के बीच एक ऐसा सदाबहार और अदभुत पत्रकार मौजूद है जिसकी प्रतिभा का इस्तेमाल कोई मीडिया हाउस नहीं कर रहा है. साहित्य, इतिहास, पत्रकारिता, राजनीति सब पर गजब की पकड़ रखने वाले इस शख्स का नाम विनय श्रीकर है. आलेख लिखना हो या ग़ज़ल या कविता या गीत, लेक्चर देना हो या जीवन का पाठ पढ़ाना हो, विनय श्रीकर का जवाब नहीं. 68 साल के विनय श्रीकर के भीतर जो उर्जा, ओज और तेजी है, वह सोचने पर मजबूर कर देती है कि इन जैसे ही हम जैसों को कहते होंगे- बुड्ढा होगा तेरा बाप!.
कल विनय श्रीकर जी के नोएडा स्थित आवास पर पहुंचा. नौवें मंजिले का इनका घर इनके इकलौते बेटे ने दिया हुआ है जहां विनय श्रीकर और उनकी पत्नी रहती हैं. बेटा गुड़गांव में रहता है, नौकरी करने के कारण. वैसे वह अक्सर यहां आ भी जाता है. विनय श्रीकर की मेमोरी क्या खूब है. उन्हें अपने जीवन, समाज, देश, परिवेश की छोटी छोटी चीजें याद रहती हैं. मदिरा और मनुष्यता को दीवानगी की हद तक चाहने वाले इस शख्स ने अपने मीडिया करियर में समझौते नहीं किए, घर-परिवार के मोह-पाश में नहीं फंसा, हैदराबाद से लेकर गोरखपुर, मेरठ, लखनऊ, नोएडा जाने कहां कहां नौकरियां की. परिवार में एक बेटे की मौत और भाभी जी के अवसादग्रस्त होने के बाद खुद पैर तुड़वा बैठने के कारण विकलांग-से हो गए विनय श्री्कर छड़ी के सहारे जब चलते हैं तो हर किसी से संवाद करते रहते हैं.
बात बात में नागार्जुन, धूमिल, मुक्तिबोध, नामवर, काशीनाथ, ज्ञानेंद्र पति, शेक्सपीयर, बर्नांड शा को उद्धृत करते इस आदमी को देखकर लगता ही नहीं कि उनके जीवन में कोई निजी दुख है या उन्हें किसी से कोई निजी शिकायत है. उन्हें चौकीदार, नौकर, मजदूर, अड़ोसी-पड़ोसी सबसे समान भाव से हंसेत खिलखिलाते बतियाते और हिंदी-अंग्रेजी में नारे मुहावरे बातें गढ़ते छोड़ते देखकर महसूस होता है कि यह शख्स जिंदगी को कितनी शिद्दत कितनी संजीदगी से प्यार करता है, बजरिए इस अंदाज, वह जीवन के मायने को सचमुच समझता है..
हम लोग महानगरों में चुप्पा हो जाते हैं. कंक्रीट के महलों में रह रह कर झुरा जाते हैं. हर किसी को शक के नजरिए से देखते घूरते हैं. अपने दुखों में दुखी होते रहते हैं, दूसरों की तरफ देखने जानने की फुर्सत कहां. लेकिन विनय श्रीकर के पास अपना कुछ निजी नहीं है, सिवाय शाम के दो पैग के और कंप्यूटर पर फेसबुक के. जब मैं उनके घर शाम को पहुंचा और अगली सुबह वहां से चलने लगा तो दोनों बार विनय ने मेरा परिचय अपनी सोसाइटी के अंदर-बाहर के आधा दर्जन चौकीदारों से कराया, गोया वो सब उनके घर का कोई महत्वपूर्ण सदस्य हों.
मुझे छोड़ने और लेने आई टैक्सी के ड्राइवर से वे दोनों बार यह बताना नहीं भूले कि ठीक से लाए हो न, ठीक से ले जाना, ये यशवंत मेरा भाई है. मैं सोचता रहा इतना सब कहने करने की क्या जरूरत. पर यह भी लगा कि यार हम जैसी दुनिया देखते आए हैं, जैसे लोगों से मिलते झेलते आए हैं, उन्हीं को मुख्यधारा मान लिया है और वैसों को ही मनुष्य मानने लगे हैं. पर मनुष्यता तो कुछ अलग ही होती है जो विनय श्रीकर जैसों में होती है और इनसे मिल कर समझ में आती है.
विनय श्रीकर ने फोन पर ही मुझे कह दिया था कि चार पांच रोटी लेता आना, घर पर आटा खत्म है और बाहर बारिश झमाझम है. मैंने हंसते हुए पूछा था कि क्या पकाया है दादा तो हुलसते हुए बोले- देसी घी में गजब की साग पकाई है यशवंत, आओ, खाओगे तो तबीयत हरी हो जाएगी. मेरे पहुंचने पर प्याज टमाटर काटकर मूंग की दाल वाली नमकीन में मिलाया गया और उसे चिखना का रूप दिया गया है.
मैक्स रायल सेठी के डी ब्लाक में नौवें मंजिल पर आसीन रायल चैलेंज के साथ हम दो, कब रात के तीन बजा दिए, पता ही नहीं चला. इस दरम्यान किन किन से फोन पर बात हुई, याद नहीं. कोलकाता वाले पलाश विश्वास से लेकर मेरठ वाले श्रीकांत अस्थाना तक, नोएडा वाले रवींदर ओझा से लेकर गोरखपुर वाले राघवेंद्र दुबे तक और लखनऊ वाले अनिल यादव से लेकर बलिया वाले चितरंजन सिंह तक. सबसे फोन पर हंसी ठहाके लगाते हुए विनय श्रीकर ने गाना गुनगुनाना शुरू किया. एक एक कर जो सुनाने बताने का दौर चला, वह खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था. विनय श्रीकर के माथे पर चूमकर मैंने उनकी मली हुई सुर्ती को होंठों तले दबाया और खुद के लिए आरक्षित कमरे में जाकर पसर गया. विनय श्रीकर बोले- ”का हो, अब्बे सुतबा का”!
अचानक लगा कि विनय श्रीकर जी कहां सोए हैं, देखा जाए. पता चला कि वो वहीं सोफे पर लेटे हैं और बोले कि हम तो ऐसे ही कहीं सो जाते हैं. मैंने उनसे कहा कि या तो अपने कमरे में जाएं या फिर मेरे कमरे में ही आ जाएं. इसके बाद हम दोनों एक बेड पर साथ सोए और बतियाते रहे. नींद कब आई पता नहीं चला लेकिन सुबह जब उठा तो ग्यारह बज चुके थे. विनय श्रीकर तब तक मेन गेट, ग्राउंड फ्लोर, यहां-वहां कई राउंड लगाकर मोहल्ले भर में बोल बतिया कर दिन का एक पहर बिता चुके थे… मेरे जगने पर सामने चहंकते हुए आए और बोले- ”चाय पिओगे या अभी सोओगे”. मैं केवल मुस्कराया और करवट बदलकर फिर सो गया. सोचता रहा कि ऐसा क्यों होता है कि कोई शख्स एक दो मुलाकातों में पिता, मित्र, भाई, यार, गुरु सब कुछ बन जाता है… श्रीकर जी जाने नहीं दे रहे थे लेकिन मैंने कई किस्म की मजबूरियां गिनाईं और चलता बना.
रात को बातचीत के दौरान उनका लिया गया एक संक्षिप्त इंटरव्यू का लिंक दे रहा हूं… Youtube.com/asgbh4BvA-A सुनिए वह मुक्तिबोध के बारे में क्या कह रहे हैं… रात में उनके प्रवचन में इतनी तरह की ज्ञान – साहित्य – व्यक्तियों आदि की बातें आईं कि बार बार मन होता रहा कि इन सबको डाक्यूमेंटाइज किया जाए… फिर लगा कि हम हिंदी पट्टी वाले कितने दरिद्र लोग हैं कि प्रतिभाशाली लोगों की कदर नहीं करते, उनका इस्तेमाल नहीं करते, और उलाहना देते हैं कि हाय बड़ा पतन हो रहा है, कोई कायदे का बचा दिख नहीं रहा है….
विनय श्रीकर जी फेसबुक पर हैं, उनको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजें, Facebook.com/vinay.shrikar उन्हें पढ़ें और उनसे इनबाक्स चैटियाएं, उनका नंबर लेकर उनसे बात करें…. उनसे लिखवाएं… उन्हें आर्थिक रूप से मदद भी करें…. क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में कमाया कुछ नहीं, सिवाय ज्ञान अनुभव चेतना समझ और दृष्टि के… आप को कभी किसी अलबेले टाइप समझदार और जीवंत व्यक्ति के साथ एक शाम गुजारने का दिल करे तो विनय श्रीकर जी को अपने यहां निमंत्रित करें या उनके पास चले जाएं… आपको यकीनन आनंद आएगा…. विनय श्रीकर बेहद सरल सहज सरस और कोमल व्यक्ति हैं… किसी बच्चे सरीखे खिलखिलाते बतियाते गुनगुनाते वह इतने सारे विषयों पर इतनी सारी बातें करेंगे कहेंगे कि आप चकित हो जाएंगे… उनके आनंद और ज्ञान के सागर में कब गोते लगा लगा कर आप खुद आनंदित होने लगे हैं, पता ही नहीं चलेगा….
भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह की एफबी वॉल से.
अरुण श्रीवस्तव
August 31, 2016 at 6:04 pm
यशवंत भाई , 11 को मौका है अपने कार्यक्रम के बाद विनय श्रीकर जी के दर्शन करा दें तो अच्छा लगेगा। उनका नाम सुन रखा है लखनऊ में एक अपरचित मुलाकात भी है।