Manoj Bisaria-
नहीं रहे वरिष्ठ कवि-पत्रकार वीर सक्सेना… अभी कुछ दिनों पहले ही मौसा जी (वीर सक्सेना) से जयपुर मिलकर आया था। शरीर यद्यपि कैंसर से लड़ रहा था किंतु भीतर की जिजीविषा हमेशा की तरह मुखर थी। बिस्तर पर लेटे हुए मलिन चेहरे के साथ मौसाजी मुझसे किसान आंदोलन के बारे में पूछ रहे थे। दिल्ली आने की उनकी उत्कट अभिलाषा थी लेकिन सड़कों पर जाम की स्थिति को देखते हुए मैंने मना कर दिया था। कौन जानता था कि ये अब केवल अभिलाषा ही रह जाएगी। मंगलवार 9 फ़रवरी की शाम तक वह जयपुर के एक अस्पताल में जीवन से अंतिम सांस तक युद्ध करने जैसी मानसिकता लिए जूझते रहे क्योंकि उनका नाम ही वीर था। एक ऐसा योद्धा जो सदैव अजेय रहा, लेकिन मृत्यु से भला कौन जीत सका है…।
बचपन से लेकर अब तक मौसाजी के साथ की अनेक स्मृतियाँ आज जीवंत हो उठी हैं। स्कूली बैग उठाए मैं जब किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में जा रहा होता, तो अक्सर मौसाजी से पूछ लिया करता- क्या बोलूं। तब उनका जवाब सबसे अलग़ होता जो मेरी सोच के दायरे को और बढ़ा देता। ये भी संयोग ही था कि जब मेरा चयन आकाशवाणी में बतौर हिंदी उद्घोषक हुआ, तब तक मौसाजी आकाशवाणी की नौकरी छोड़ चुके थे। मैंने एक बार अपने एक वरिष्ठ अधिकारी से कॉमेन्ट्री कैसे की जाए, इस पर कुछ टिप्स लेने चाहे। उन्होंने मुझे कुछ तरीक़े बताए। बाद में पता चला कि वह स्वयं मेरे मौसाजी को कॉमेंट्री में अपना गुरु मानते थे। सो उन्हीं की टिप्स मुझे अप्रत्यक्ष रूप में मिली भी।
किसी भी बात को स्पष्ट रूप से निर्भीकता के साथ रखना, मौसा जी की विशेषता थी जो उनकी पत्रकारिता में सदैव परिलक्षित होती रही। मेरी पत्रिका वणिक टाइम्स के भी वह सलाहकार संपादक थे जिनसे मैं समय-समय पर परामर्श लेता रहता था।
इन दिनों मैं एक उपन्यास भी लिख रहा था, सोचा था कि उसकी भूमिका उन्हीं से लिखवाउंगा….। अनेक प्रसंग आज एकाएक याद आ रहे हैं। परम पिता परमात्मा से प्रार्थना है कि वह मेरे मौसाजी को अपने चरणों में स्थान दे औऱ हम सभी को ये दुख सहने की शक्ति दे। ओम शांति।
Om Thanvi-
वीर सक्सेना उन लोगों में थे जो साहित्य से रेडियो में गए, पत्रकारिता में आए। इसलिए शब्द-सजगता और सामाजिक सरोकार उनके स्वभाव में थे। हमने राजस्थान पत्रिका में साथ काम किया। वे जब जर्मनी में डॉयचे-वेले प्रसारण में थे, तब एक विदेश यात्रा के दौरान कुलिशजी का वहाँ पड़ाव था। वहीं तय हो गया कि लौटकर वीर भाई पत्रिका से जुड़ जाएँगे।
वे दिल्ली में पत्रिका ब्यूरो के प्रमुख हुए। उसके बाद जयपुर में कार्यकारी सम्पादक भी। हालाँकि यों उनका क़द कहीं बड़ा था। तब पत्रिका में फ़ैक्सिमिलि (आजकल का फ़ैक्स उसी का घिसा हुआ रूप है) मशीन नई-नई लगी थी। दिल्ली में उस पर फ़ोटो चढ़ाओ तो रोलर पर देर तक घूमता हुआ जयपुर में उतर आता था। उस मशीन के साथ हॉटलाइन अनिवार्य थी। तब मोबाइल का अस्तित्व छोड़िए, ट्रंक कॉल भी मुश्किल चीज़ थी। उस हॉटलाइन का दुरुपयोग मैं वीर भाई से लम्बी बात में करता था। मुझे लगने लगा था कि अख़बार में वे ज़्यादा रहेंगे नहीं। वही हुआ।
हालाँकि पत्रकारिता उन्होंने कभी नहीं छोड़ी। किसी-न-किसी रूप में जुड़े रहे। इस बीच मैं जयपुर छोड़ चुका था। वे जयपुर लौट आए थे। जयपुर आने पर जब-तब कॉफ़ी हाउस में मिलना हो जाता। उनमें संबंधों की एक ख़ास मानवीय गरमाई थी, जो क्षणिक मुलाक़ात में भी जो बिखरे तार जोड़ देती थी।
बत्तीस साल बाद मैं पत्रकारिता विश्वविद्यालय फिर से खड़ा करने के बुलावे पर जयपुर चला आया। तब अपनी ही बिरादरी के लोगों को अजीब मुँह बनाते देखा। कारण आज तक समझ नहीं पड़ा। कुछ को इसमें सरकार की कृपा नज़र आई (उनको भी जो सरकारी कृपा में जीवन काट आए, कृपा के कोटे वाले प्लॉट कटवा कर धनी हो गए!); मगर वीर भाई के चेहरे पर आत्मीय चमक मिली। उन्होंने मेरे निर्णय को सराहा ही नहीं, बल्कि अपनी पत्रिका ‘जनतेवर’ में तसवीरों के साथ दो पृष्ठ का इंटरव्यू भी प्रकाशित किया।
उनसे कुछ ही समय पहले फ़ोन पर बात हुई थी। मेरा बेटा शैल्बी अस्पताल में चिकित्सक है। उनकी पुत्रवधू ने वीर भाई से बात करवाई। उन्होंने श्रीमती सक्सेना के अस्पताल में भरती होने के बारे में बाताया। फिर वीर भाई ख़ुद वहाँ भरती हुए और कोरोना के दौर में कैंसर से जूझते हुए विदा हो गए।
मुझे उनकी आत्मीय मुसकान, भारी मगर नम्र आवाज़ और बड़े भाई-सा स्नेहिल बरताव कभी न भूलेगा।
Sawai Singh Shekhawat-
बड़े भाई वीर सक्सेना की स्मृति में! दोस्तो वीर भाई नहीं रहे,यह कसक सालती रहेगी।साहित्य हो या पत्रकारिता वे अपनी मिसाल आप थे-निर्भीक किंतु बेहद गरिमामय।वे कड़ी-से कड़ी बात खरेपन के साथ कहने का साहस रखते थे।गद्य की अपनी पहली किताब को लेकर बड़ी इच्छा थी कि उनकी अध्यक्षता में उस पर चर्चा हो।उन्होंने सहमति भी दे दी थी।पर पहले अपने हृदयाघात और फिर आये कुटिल कोरोना काल के चलते वह संभव न हुआ।यहाँ तक कि उनके साथ एक प्याला कॉफ़ी पीने का वायदा भी वायदा ही रहा…
भाई गोविंद माथुर स्व.ताराप्रकाश जोशी,वीर सक्सेना व भारतरत्न भार्गव के प्रयास से जयपुर के कॉफ़ी-हाउस में आयोजित उस ऐतिहासिक काव्य गोष्ठी को याद करते हैं जिसमें राजस्थान के उभरते 22 कवियों ने भाग लिया था।जिसके चलते उन कवियों की खेप उभरी जिन्होंने आगे चलकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ी-कवि हेमंत शेष,कवि गोविंद माथुर,व राजस्थानी कवि तेज सिहं जोधा उनमें प्रमुख थे।
वे साहित्य से रेडियो में गए।फिर पत्रकारिता में आए और राजस्थान पत्रिका के ब्यूरो चीफ़ बने।जीवन के उत्तर काल में एकबार फिर उन्होंने ‘जनतेवर’ के माध्यम से पत्रकारिता का मोर्चा सँभाला।जन पक्षधरता के साथ एक राजनीतिक पत्रिका में साहित्य और कलाओं व दीगर मुद्दों को लेकर कैसे कुछ बेहतर किया जा सकता है इसकी मिसाल पेश की।कवि-लेखकों से आग्रहपूर्वक रचनाएँ मंगाईं और उनका सुरुचिपूर्ण प्रकाशन किया।साहित्य एवं अन्य विधाओं की महत्वपूर्ण हस्तियों के साक्षात्कार छापे।उनकी सदाशयता को लेकर भाई ओम थानवी ने सही लिखा है कि ‘मानवीय सम्बंधों को लेकर उनमे ख़ास गरमाई थी’।
लेकिन जनपक्षधरता के बावजूद उन्हें सस्तेपन से सख़्त चिढ़ थी।एक बार एक कवि गोष्ठी में एक जनप्रिय कवि को उन्होंने लगभग झिड़क दिया था।लोकप्रियता के चलते यदि कला के प्रतिमानों की अवहेलना हो यह उन्हें कतई गवारा नहीं था।अभी कुछ माह पूर्व ही उन्होंने फ़ेसबुक पर कविता की स्तरीयता को लेकर दो-तीन दिन तक लगातार लिखा था।मुझे सम्बोधित करते हुए भी एक पोस्ट लिखी कि सवाई सिंह शेखावत जैसा कवि भी ऐसे में चुप क्यों है।मैंने माफ़ी माँगी कि ‘दादा हृदयाघात के बाद अब दिल और दिमाग साथ नहीं देते कि इन बखेड़ों में उलझा जाए’।
उनकी एक तिलमिला देने वाली छोटी कविता इस प्रकार है:
उसकी पहचान
अब सिर्फ़ इतनी है
सामने आते ही
कटे हुए हाथों के बाबजूद
नमस्कार की मुद्रा में
खडा़ हो जाता है !
उनकी कविताओं को लेकर कभी लिखना चाहूँगा…