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एबीपी न्यूज, ‘VIRAL सच’ और सत्ता से लगाव

Sushil Upadhyay : मीडिया जिस सच को परोसता है, वह प्रायः सापेक्षिक होता है, ऐसा अक्सर लगता है और दिखता भी है। किसी भी अखबार, चैनल या मीडिया माध्यम को गौर से देख लीजिए तो पता चलेगा कि जिस बात को सच बताया जा रहा है, वह कुछ खास परिस्थितियों और संदर्भों में ही सच है। जबकि, मीडिया का दावा होता है कि वो सार्वभौमिक, सार्वकालिक और सार्वदेशिक सत्य को प्रस्तुत कर रहा है। चूंकि, मीडिया की बुनियाद के लिए सच जरूरी है इसलिए पाठकों-दर्शकों के पास ऐसा कोई जरिया या तरीका नहीं होता जिससे वे मीडिया के सच को मानने से मना कर दें। उपर्युक्त संदर्भ में एबीपी न्यूज का एक शो ध्यान खींचता है।

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Sushil Upadhyay : मीडिया जिस सच को परोसता है, वह प्रायः सापेक्षिक होता है, ऐसा अक्सर लगता है और दिखता भी है। किसी भी अखबार, चैनल या मीडिया माध्यम को गौर से देख लीजिए तो पता चलेगा कि जिस बात को सच बताया जा रहा है, वह कुछ खास परिस्थितियों और संदर्भों में ही सच है। जबकि, मीडिया का दावा होता है कि वो सार्वभौमिक, सार्वकालिक और सार्वदेशिक सत्य को प्रस्तुत कर रहा है। चूंकि, मीडिया की बुनियाद के लिए सच जरूरी है इसलिए पाठकों-दर्शकों के पास ऐसा कोई जरिया या तरीका नहीं होता जिससे वे मीडिया के सच को मानने से मना कर दें। उपर्युक्त संदर्भ में एबीपी न्यूज का एक शो ध्यान खींचता है।

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एबीपी न्यूज पर ‘खबर दिन भर’ नाम से प्राइम टाइम आता है। शनिवार को इस शो में ‘VIRAL सच’ दिखाया जाता है। चैनल का दावा है कि सोशल मीडिया पर जो कुछ वायरल हो रहा है, वे उसके सच को लोगों के सामने लाते हैं। चैनल का दावा काफी आकर्षक है, दर्शकों को जोड़़ने और जागरूक करने वाला भी लगता है। लेकिन, पब्लिक एजेंडा और मीडिया एजेंडा में हमेशा ही फर्क होता है। पब्लिक को लगता है कि मीडिया उसके एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है, जबकि सच्चाई ये होती है कि पब्लिक के नाम पर मीडिया अपने हिडन-एजेंडे को आगे बढ़ाता है। 10 अप्रैल के दो मैसेज, जो कि क्रमशः अखिलेश यादव और मायावती से जुड़े थे, चैनल ने लोगों के सामने रखे।

पहले मैसेज में मायावती की संपत्ति का मुद्दा था। चैनल ने जोर-शोर से बताया कि मायावती की संपत्ति पांच साल में दोगुनी से भी ज्यादा हो गई। चैनल ने ‘जांच-पड़ताल’ करके बताया कि ये वायरल हर तरह से ‘सच’ है। खास बात यह है कि ये आंकडें पिछले चुनावों में निर्वाचन आयोग के सामने प्रस्तुत किए गए थे और इन पर पूर्व में भी लंबी चर्चा हो चुकी है। पर, चैनल ने इन्हें जिस तरह प्रस्तुत किया, उससे लग रहा था कि जैसे पिछले कुछ दिनों में ही मायावती की संपत्ति दोगुनी हो गई। इस ‘जांच-पड़ताल’ का मकसद अगले मैसेज में सामने भी आ गया। ये मैसेज अखिलेश यादव से जुड़ा था। यूपी सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि उसने साहित्य पुरस्कारों में अपनी जाति के लोगों को हर स्तर पर प्राथमिकता दी है। वायरल मैसेज में कहा गया था कि 20 में से 13 पुरस्कार यादवों को दिए गए। चैनल ने जांच की और बताया कि 20 में से नहीं 50 में से 13 पुरस्कार यादवों को दिए गए। चैनल के एंकर किशोर अजवाणी ने यूपी सरकार को पाक-साफ और वायरल मैजेस को ‘झूठा’ बताया।

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अब, इन दोनों मैसेज को साथ रखकर देखिए तो पूरी कहानी समझ में आएगी। पहले मैसेज में मायावती पर सवाल उठाया गया है और दूसरे मैजेस में अखिलेश सरकार को क्लीन चिट दी गई! ‘वायरल सच’ का असली सच उस वक्त उजागर होने लगता है, जब कार्यक्रम के बाद इसी चैनल पर यूपी सरकार का विज्ञापन नजर आने लगता है। वैसे, अब ये कोई छिपी हुई बात नहीं है कि चैनलों का सच वही होता है जो सत्ता का सच होता है। मायावती सत्ता में आ जाएंगी तो यही चैनल बताएगा कि जो बातें वायरल की जा रही हैं वे कई साल पुरानी हैं और तब अखिलेश यादव के बारे में कहा जाएगा कि यूपी में यादवों की आबादी 10 प्रतिशत भी नहीं हैं, जबकि उन्हें कुल पुरस्कारों में एक चैथाई दिए गए हैं! सच को सत्ता-सापेक्ष करके देखने का जैसा काम मीडिया करता है, वैसा शायद ही कोई दूसरा कर पाए। यह केवल किसी एक चैनल का मामला नहीं है, हाल के दिनों में जिन चैनलों पर यूपी सरकार के धुंआधार विज्ञापन चल रहे हैं, उनमें अब शायद ही किसी पर यूपी के कथित जंगलराज से संबंधित कोई खबर नजर आ रही हो! अलबत्ता, आने वाले वक्त में मायावती को घेरने वाली खबरों की श्रंखला जरूर नजर आ सकती है।

कुछ साल पहले बीबीसी पर देखी गई एक रिपोर्ट याद आ रही है। इस रिपोर्ट की तारीख तो याद नहीं है, लेकिन इसका कंटेंट याद है। ये रिपोर्ट अफगानिस्तान के बारे में थी। पश्चिमी मीडिया अफगानिस्तान में उन जेहादियों को सपोर्ट कर रहा था जो सोवियत संघ की सेना के खिलाफ लड़ रहे थे। रिपोर्ट में क्लाश्निकोव का जिक्र आया। प्रस्तुतकर्ता ने कहा कि ये वो हथियार है जिसका इस्तेमाल करके सोवियत सेना ने हजारों अफगानों की जान ली है और आज ये हथियार अफगान लड़ाकों के हाथ में है जो अपने मुल्क की आजादी बचाने के लिए लड़ रहे हैं। इस रिपोर्ट को काफी लंबा वक्त हो गया। मुजाहिदीनों के बाद तालिबान आए और फिर पिट्ठू सरकारें आईं। क्या अब भी पश्चिमी मीडिया इसी बात को कह सकता है कि क्लाश्निकोव जेहादियों और तालिबानों के हाथ में आजादी का हथियार है! तब, पश्चिमी मीडिया अपने देशों की सत्ता के सच को बोल रहा था और हम उसे स्वीकार कर रहे थे। अपने आसपास देखें तो मीडिया में इसी प्रकार का ‘संदिग्ध सच’ हमारे चारों तरफ पसरा रहता है।

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लेखक सुशील उपाध्याय मीडिया शिक्षक और विश्लेषक हैं.

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0 Comments

  1. गौरव श्रीवास्तव

    April 19, 2016 at 4:39 pm

    आपने भी विश्लेषण अपने सन्दर्भों में किया, जो आपको सुविधाजनक लगा। सपा के परिवारवाद पर भी एक वायरल सच चला था, जिसमे पार्टी घोर पारिवारिक सिद्ध हुई, उसके बाद किस सरकार का एड चला ये भी ध्यान देना होगा।

  2. rajk

    April 19, 2016 at 4:41 pm

    सही लिखा है. ‘वायरल सच’ में सच दिखाने के बहाने बड़ी चतुराई से सच को छिपा भी लिया जाता है. पिछले दिनों एक मैसेज की पड़ताल की गई. जेएनयू के विषय में था कि ‘गरीब’ कन्हैया ने ‘महंगे’ वकील कैसे अफोर्ड किए, तो एबीपी ने बड़ी गहराई से छानबीन करके सच उजागर किया कि कन्हैया ने केस लड़ने के बदले कोई फीस अदा नहीं की और वकीलों ने उसका केस मुफ्त में लड़ा. लेकिन चैनल ने बड़ी साफगोई से यह सच छुपा लिया कि कन्हैया के वकील कोई छोटे-मोटे वकील नहीं थे, बल्कि कपिल सिबल (कांग्रेस नेता) और दुष्यंत दवे जैसे वकील थे, और अगर वे कन्हैया का केस फ्री में लड़े, तो क्यों और किसके कहने/इशारे पर? इसके बाद उन्होंने बड़ी सफाई से मैसेज को झूठ करार दे दिया. वाह रे पड़ताल !

  3. Raja Rock

    December 10, 2017 at 3:51 pm

    You may help me

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