हर्ष कुमार-
दोस्तों, ये पोस्ट मैं लंबे समय से लिखना चाह रहा था। लगभग सात साल(2003-10) तक दैनिक जागरण में काम करने के बाद मैंने ये पाया कि कर्मचारी के लिहाज़ से सबसे ख़राब संस्थान अगर मीडिया हाउसों में से कोई है तो वो दैनिक जागरण ही है। कभी भी अपने कर्मचारी के हित में न सोचना और कुछ प्रबंधकों के ग़लत फैसलों को नज़रअंदाज़ करना इस संस्थान की और मालिकान की सबसे बड़ी कमज़ोरी है।
हाल ही में मेरे मेरठ में और अमर उजाला व दैनिक जागरण के पुराने साथी रहे मनोज झा ने दैनिक जागरण को लगभग 20 साल की सेवाओं के बाद अलविदा कह दिया।मनोज झा मेरठ में संपादकीय प्रभारी रहे, नोएडा में भी रहे हैं। बिहार के राज्य प्रभारी रहे हैं और अब रायपुर में नई दुनिया के संपादक थे। उन्होने हाल ही में इस्तीफ़ा देकर दिल्ली सरकार के चीफ़ मीडिया सलाहकार के रूप में कार्यभार ग्रहण कर लिया है। इसके अलावा दैनिक जागरण के बनारस के संपादक मुकेश सिंह ने भी इस्तीफ़ा दे दिया है। उन्हें बनारस से नोएडा में सेंट्रल डेस्क पर बुला लिया गया था। मुकेश सिंह इससे पहले मेरठ और अलीगढ़ के संपादक भी रहे हैं और अमर उजाला में मेरे साथ मेरठ में हुआ करते थे।
जब भी दैनिक जागरण में कुछ उथल पुथल होती है तो बस एक ही शख़्स का नाम सामने आता है – विष्णु त्रिपाठी । मुझे नहीं पता कि विष्णु त्रिपाठी जी संपादक हैं, प्रबंधक है, या क्या है? ना ही मैंने कभी उनके साथ काम किया, यहां तक कि मैं उनसे कभी मिला भी नहीं हूं लेकिन उनके बारे में जितना सुना है उससे इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि उनसे ख़राब संपादक पूरे देश में कोई दूसरा नहीं है। कोई उनकी तारीफ़ नहीं करता।और जैसा कि उनके साथ काम कर चुके लोग बताते हैं कि वो मनमानी करते हैं और किसी की नहीं सुनते। मेरी समझ में यह नहीं आता कि ये बातें मालिकों तक नहीं पहुंचती क्या? ये फीडबैक क्या मालिकों के पास नहीं है कि विष्णु त्रिपाठी सबसे ख़राब संपादक हैं? इसके बावजूद भी मनमाने फ़ैसले लिए जाते हैं लोगों को परेशान करने के लिए उन्हें सिलीगुड़ी, जबलपुर, रायपुर,रांची, बिहार और न जाने कहां कहां ट्रांसफर कर दिया जाता है। सिर्फ़ इसलिए कि वे परेशान होकर इस्तीफ़ा देकर संस्थान छोड़ दें।
अफ़सोस की बात तो यह है दैनिक जागरण में काम कर चुके लोग दैनिक जागरण को छोड़ देने के बाद भी विष्णु त्रिपाठी जैसे लोगों के विरोध में आवाज़ उठाने का साहस नहीं करते हैं।शायद उनके मन में ये भाव बना रहता है कि कल नौकरी की ज़रूरत पड़ जाए और फिर उनके ही पास जाना पड़े तो? मैंने तो तय किया हुआ है कि कहीं भी नौकरी कर लेंगे लेकिन दैनिक जागरण में नहीं जाएंगे। और कई साथियों को भी इस तरह की सलाह दी, कुछ ने मानी कुछ ने नहीं। बहरहाल मनोज झा जी का यह फ़ैसला देर से आया बहुत सही आया। अब उनके हाथ में कुछ विशेष अधिकार भी है। लंबे समय से केजरीवाल सरकार ने दैनिक जागरण के विज्ञापन बंद किये हुए हैं और उम्मीद करता हूं कि ये बंद ही रहेंगे।
दोस्तों अपने काम को इंजॉय करें जिस भी संस्थान में रहें पूरी वफ़ादारी से काम करें लेकिन हमेशा अपने लिए विकल्प तलाशते रहें क्योंकि संस्थान कितना भी अच्छा हो आपकी एक ही गलती आपकी बरसों की मेहनत पर पानी फेरने के लिए पर्याप्त होती है। फ़िलहाल इतना ही।
दैनिक जागरण में लम्बे समय तक कार्यरत रहे पत्रकार हर्ष कुमार की एफ़बी वॉल से।
कुछ प्रतिक्रियाएं देखें-
Nisheeth Joshi
कड़क पोस्ट। हमारा विष्णु त्रिपाठी के साथ अनुभव अच्छा रहा है। जब भी वार्ता हुई। हां, साथ काम करने का कोई अनुभव नहीं, इसलिए कोई टिपण्णी नहीं। क्या यह संभव नहीं कि मैनेजमेंट ही करवाता हो और फेस बना रखा हो विष्णु त्रिपाठी का।
Lav Kumar
19-20 का अंतर होगा, लेकिन अब सभी जगह यही चल रहा है। मालिकान की भी इच्छा है और संपादकगण इसमें उनका आंख मूंदकर साथ दे रहे हैं। एक समय था जब ‘अमर उजाला’ में हमें संस्थान का ‘असेट’ कहा गया। फिर अतुल जी नहीं रहे और पूरा माहौल ही बदल गया। कुछ ही समय बाद शंभुनाथ शुक्ला जी संपादक के रूप में मेरठ पहुंचे। आते ही उथल-पुथल शुरू हो गई। एक दिन कमरे में बुलाकर बोले- आपका ट्रांसफर आगरा किया जा रहा है, वहां आपको न्यूज एडिटर की पोस्ट दी जाएगी। उस समय मैं डिप्टी न्यूज एडिटर था। आगरा पहुंचा तो वहां के संपादक राजेंद्र त्रिपाठी जी ने बताया कि आगरा में तो न्यूज एडिटर की कोई पोस्ट खाली नहीं है। मैं इस प्रकार के धोखे से हैरान हो वापस आ गया और दो-तीन दिन दफ्तर नहीं गया। शंभुनाथ जी का फोन आया तो मैंने बताया कि आगरा में तो ऐसी कोई पोस्ट खाली नहीं है, जिस पर आपने मुझे भेजा था। खैर, इस बार संपादक बैकफुट पर थे और हमने फिर से मेरठ में काम शुरू कर दिया। लेकिन दो-तीन महीने बाद ही देहरादून जाने का आदेश आ गया और वह भी बिना प्रमोशन के। इसके बाद अपना मन ‘अमर उजाला’ में नहीं लगा और इस संस्थान से अपना 20-22 साल का साथ छूट गया।
Atul Sharma
हर्ष जी दिल में लगती बात कही आपने ।काश सभी पत्रकार बंधु इतने साहस से काम करें तो पत्रकारिता का पुराना स्वरूप लौट आए ।अगर मै कहूं कि 90 के दशक तक काफी हद तक ठीक था ऑर पीत पत्रकारिता पर सवाल खड़े होते रहे पर धीरे केवल नौकरी बचाने के लिए और अधिकारियों के बीच भाईसाहब बनकर बैठने और उनके अनुसार खबर लिखने का चलन बन चुका।पहले किसी खबर के लिए खोजी पत्रकारिता को प्रमुखता दी जाती थी और आज जैसी आपकी मित्रता वैसी खबर ।कब किसका चरित्र हनन कर दिया जाय पता नहीं चलता ।साधुवाद आपके लेखन को ।शुभाशीष
Devraj Shandilya
CHAMCHAGIRI SARVOPARI…kuchh log to maalikaan ke kareeb pahuchne ke baad unke cabino se aisa seena chauda karke baahar aate hain…jaise koi qila fatah karke aaye hain…unka samay wafadari imaandari se kaam karne me kam aur chugalkhori me jyada beet jata hai…aur maalikaan bhi unhe apna sabse wafadaar maan lete hain…jabki imaandari se kaam krne walo ki koi sunwai nahi hai…khair koi baat nahi aise KAAMCHOR log khud ko hi dhokha de rahe hain…
Bishwajit
January 11, 2021 at 4:43 pm
Jab aap Vishnu ji ko jaante nahi, unke saath kaam kiya nahi, toh unke baare mein aisi dharna kaise bana liya ? Maine Vishnu ji ke saath Jagran Lucknow mein kaam kiya hai. Mujhe to unka sneh khoob mila, woh bhi bina pair chuey. Meri bahut madad ki unhone. Woh reporter bhi thhey, desk par bhi kaam karte thhey, ab sampadak hain. Meri nazar me achche insaan aur behtareen patrakaar.
Radhika
January 11, 2021 at 5:19 pm
I think, management sab kuch janta hai but kya hai na ki sb kuch business hi hai ultimately and aise editors management ko jyda se jyda revenue dete hain. I was also in print media for 2 years and it was my experience.
डॉ मनोज रस्तोगी
January 11, 2021 at 8:01 pm
कुर्सी मिलने के बाद भाई रंग बदल जाता है ।
Sp singh
January 13, 2021 at 7:05 pm
सरजी सबका अपना अपना काम है, कोई काम कराने का काम करता है, तो क़ोई लगाने का। अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर अगले की नौकरी कैसे चलेगी।
एसपी सिंह