(विश्व दीपक)
जेएनयू और कन्हैया प्रकरण में जी न्यूज की भूमिका से नाराज यहां कार्यरत एक मीडियाकर्मी ने इस्तीफा दे दिया है. इनका नाम विश्व दीपक है. इन्होंने इस्तीफे के बाद अपनी पूरी बात फेसबुक पर पोस्ट की है जिसे लोग खूब शेयर और लाइक कर रहे हैं. विश्व दीपक की पोस्ट को शेयर करते हुए दिलीप खान लिखते हैं:
”Zee न्यूज़ की कारस्तानियों से विरोध जताते हुए Vishwa Deepak ने इस्तीफ़ा दे दिया। ज़ी को लेकिन शर्म नहीं आएगी।”
अब पढ़िए विश्वदीपक की एफबी पोस्ट जिसमें उन्होंने अपना इस्तीफानामा भी प्रकाशित किया हुआ है…
Vishwa Deepak : हम पत्रकार अक्सर दूसरों पर सवाल उठाते हैं लेकिन कभी खुद पर नहीं. हम दूसरों की जिम्मेदारी तय करते हैं लेकिन अपनी नहीं. हमें लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है लेकिन क्या हम, हमारी संस्थाएं, हमारी सोच और हमारी कार्यप्रणाली लोकतांत्रिक है? ये सवाल सिर्फ मेरे नहीं है. हम सबके हैं. JNUSU अध्यक्ष कन्हैया कुमार को ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर जिस तरह से फ्रेम किया गया और मीडिया ट्रायल करके ‘देशद्रोही’ साबित किया गया, वो बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है.
हम पत्रकारों की जिम्मेदारी सत्ता से सवाल करना है ना की सत्ता के साथ संतुलन बनाकर काम करना. पत्रकारिता के इतिहास में हमने जो कुछ भी बेहतर और सुंदर हासिल किया है, वो इन्ही सवालों का परिणाम है. सवाल करना या न करना हर किसी का निजी मामला है लेकिन मेरा मानना है कि जो पर्सनल है वो पॉलिटिकल भी है. एक ऐसा वक्त आता है जब आपको अपनी पेशेवर जिम्मेदारियों और अपनी राजनीतिक-समाजिक पक्षधरता में से किसी एक पाले में खड़ा होना होता है.
मैंने दूसरे को चुना है और अपने संस्थान ZEE NEWS से इन्ही मतभेदों के चलते 19 फरवरी को इस्तीफा दे दिया है. मेरा इस्तीफा इस देश के लाखों-करोड़ों कन्हैयाओं और जेएनयू के उन दोस्तों को समर्पित है जो अपनी आंखों में सुंदर सपने लिए संघर्ष करते रहे हैं, कुर्बानियां देते रहे हैं. ज़ी न्यूज़ के नाम मेरा पत्र जो मेरे इस्तीफ़े में संलग्न है…..
प्रिय ज़ी न्यूज़,
एक साल 4 महीने और 4 दिन बाद अब वक्त आ गया है कि मैं अब आपसे अलग हो जाऊं. हालांकि ऐसा पहले करना चाहिए था लेकिन अब भी नहीं किया तो खुद को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगा. आगे जो मैं कहने जा रहा हूं वो किसी भावावेश, गुस्से या खीझ का नतीज़ा नहीं है, बल्कि एक सुचिंतित बयान है. मैं पत्रकार होने से साथ-साथ उसी देश का एक नागरिक भी हूं जिसके नाम अंध ‘राष्ट्रवाद’ का ज़हर फैलाया जा रहा है और इस देश को गृहयुद्ध की तरफ धकेला जा रहा है. मेरा नागरिक दायित्व और पेशेवर जिम्मेदारी कहती है कि मैं इस ज़हर को फैलने से रोकूं. मैं जानता हूं कि मेरी कोशिश नाव के सहारे समुद्र पार करने जैसी है लेकिन फिर भी मैं शुरुआत करना चहता हूं. इसी सोच के तहत JNUSU अध्यक्ष कन्हैया कुमार के बहाने शुरू किए गए अंध राष्ट्रवादी अभियान और उसे बढ़ाने में हमारी भूमिका के विरोध में मैं अपने पद से इस्तीफा देता हूं. मैं चाहता हूं इसे बिना किसी वैयक्तिक द्वेष के स्वीकार किया जाए.
असल में बात व्यक्तिगत है भी नहीं. बात पेशेवर जिम्मेदारी की है. सामाजिक दायित्वबोध की है और आखिर में देशप्रेम की भी है. मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इन तीनों पैमानों पर एक संस्थान के तौर पर तुम तुमसे जुड़े होने के नाते एक पत्रकार के तौर पर मैं पिछले एक साल में कई बार फेल हुए. मई 2014 के बाद से जब से श्री नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने हैं, तब से कमोबेश देश के हर न्यूज़ रूम का सांप्रदायीकरण (Communalization) हुआ है लेकिन हमारे यहां स्थितियां और भी भयावह हैं. माफी चाहता हूं इस भारी भरकम शब्द के इस्तेमाल के लिए लेकिन इसके अलावा कोई और दूसरा शब्द नहीं है. आखिर ऐसा क्यों होता है कि ख़बरों को मोदी एंगल से जोड़कर लिखवाया जाता है? ये सोचकर खबरें लिखवाई जाती हैं कि इससे मोदी सरकार के एजेंडे को कितना गति मिलेगी?
हमें गहराई से संदेह होने लगा है कि हम पत्रकार हैं. ऐसा लगता है जैसे हम सरकार के प्रवक्ता हैं या सुपारी किलर हैं? मोदी हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं, मेरे भी है; लेकिन एक पत्रकार के तौर इतनी मोदी भक्ति अब हजम नहीं हो रही है? मेरा ज़मीर मेरे खिलाफ बग़ावत करने लगा है. ऐसा लगता है जैसे मैं बीमार पड़ गया हूं. हर खबर के पीछे एजेंडा, हर न्यूज़ शो के पीछे मोदी सरकार को महान बताने की कोशिश, हर बहस के पीछे मोदी विरोधियों को शूट करने की का प्रयास? अटैक, युद्ध से कमतर कोई शब्द हमें मंजूर नहीं. क्या है ये सब? कभी ठहरकर सोचता हूं तो लगता है कि पागल हो गया हूं.
आखिर हमें इतना दीन हीन, अनैतिक और गिरा हुआ क्यों बना दिया गया ?देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान से पढ़ाई करने और आजतक से लेकर बीबीसी और डॉयचे वेले, जर्मनी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में काम करने के बाद मेरी पत्रकारीय जमापूंजी यही है कि लोग मुझे ‘छी न्यूज़ पत्रकार’ कहने लगे हैं. हमारे ईमान (Integrity) की धज्जियां उड़ चुकी हैं. इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? कितनी बातें कहूं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खिलाफ लगातार मुहिम चलाई गई और आज भी चलाई जा रही है. आखिर क्यों? बिजली-पानी, शिक्षा और ऑड-इवेन जैसी जनता को राहत देने वाली बुनियादी नीतियों पर भी सवाल उठाए गए. केजरीवाल से असहमति का और उनकी आलोचना का पूरा हक है लेकिन केजरीवाल की सुपारी किलिंग का हक एक पत्रकार के तौर पर नहीं है. केजरीवाल के खिलाफ की गई निगेटिव स्टोरी की अगर लिस्ट बनाने लगूंगा तो कई पन्ने भर जाएंगे. मैं जानना चाहता हूं कि पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत ‘तटस्थता’ का और दर्शकों के प्रति ईमानदारी का कुछ तो मूल्य है, कि नहीं?
दलित स्कॉलर रोहित वेमुला की आत्महत्या के मुद्दे पर ऐसा ही हुआ. पहले हमने उसे दलित स्कॉलर लिखा फिर दलित छात्र लिखने लगे. चलो ठीक है लेकिन कम से कम खबर तो ढंग से लिखते. रोहित वेमुला को आत्महत्या तक धकेलने के पीछे ABVP नेता और बीजेपी के बंडारू दत्तात्रेय की भूमिका गंभीरतम सवालों के घेरे में है (सब कुछ स्पष्ट है) लेकिन एक मीडिया हाउस के तौर हमारा काम मुद्दे को कमजोर (dilute) करने और उन्हें बचाने वाले की भूमिका का निर्वहन करना था.
मुझे याद है जब असहिष्णुता के मुद्दे पर उदय प्रकाश समेत देश के सभी भाषाओं के नामचीन लेखकों ने अकादमी पुरस्कार लौटाने शुरू किए तो हमने उन्हीं पर सवाल करने शुरू कर दिए. अगर सिर्फ उदय प्रकाश की ही बात करें तो लाखों लोग उन्हें पढ़ते हैं. हम जिस भाषा को बोलते हैं, जिसमें रोजगार करते हैं उसकी शान हैं वो. उनकी रचनाओं में हमारा जीवन, हमारे स्वप्न, संघर्ष झलकते हैं लेकिन हम ये सिद्ध करने में लगे रहे कि ये सब प्रायोजित था. तकलीफ हुई थी तब भी, लेकिन बर्दाश्त कर गया था.
लेकिन कब तक करूं और क्यों? मुझे ठीक से नींद नहीं आ रही है. बेचैन हूं मैं. शायद ये अपराध बोध का नतीजा है. किसी शख्स की जिंदगी में जो सबसे बड़ा कलंक लग सकता है वो है- देशद्रोह. लेकिन सवाल ये है कि एक पत्रकार के तौर पर हमें क्या हक है कि किसी को देशद्रोही की डिग्री बांटने का? ये काम तो न्यायालय का है न? कन्हैया समेत जेएनयू के कई छात्रों को हमने ने लोगों की नजर में ‘देशद्रोही’ बना दिया. अगर कल को इनमें से किसी की हत्या हो जाती है तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? हमने सिर्फ किसी की हत्या और कुछ परिवारों को बरबाद करने की स्थिति पैदा नहीं की है बल्कि दंगा फैलाने और गृहयुद्ध की नौबत तैयार कर दी है. कौन सा देशप्रेम है ये? आखिर कौन सी पत्रकारिता है ये?
क्या हम बीजेपी या आरएसएस के मुखपत्र हैं कि वो जो बोलेंगे वहीं कहेंगे ? जिस वीडियो में ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ का नारा था ही नहीं उसे हमने बार-बार हमने उन्माद फैलाने के लिए चलाया. अंधेरे में आ रही कुछ आवाज़ों को हमने कैसे मान लिया की ये कन्हैया या उसके साथियों की ही है? ‘भारतीय कोर्ट ज़िंदाबाद’ को पूर्वाग्रहों के चलते ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ सुन लिया और सरकार की लाइन पर काम करते हुए कुछ लोगों का करियर, उनकी उम्मीदें और परिवार को तबाही की कगार तक पहुंचा दिया. अच्छा होता कि हम एजेंसीज को जांच करने देते और उनके नतीजों का इंतज़ार करते.
लोग उमर खालिद की बहन को रेप करने और उस पर एसिड अटैक की धमकी दे रहे हैं. उसे गद्दार की बहन कह रहे हैं. सोचिए ज़रा अगर ऐसा हुआ तो क्या इसकी जिम्मेदारी हमारी नहीं होगी ? कन्हैया ने एक बार नहीं हज़ार बार कहा कि वो देश विरोधी नारों का समर्थन नहीं करता लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गई, क्योंकि हमने जो उम्माद फैलाया था वो NDA सरकार की लाइन पर था. क्या हमने कन्हैया के घर को ध्यान से देखा है ? कन्हैया का घर, ‘घर’ नहीं इस देश के किसानों और आम आदमी की विवशता का दर्दनाक प्रतीक है. उन उम्मीदों का कब्रिस्तान है जो इस देश में हर पल दफ्न हो रही हैं. लेकिन हम अंधे हो चुके हैं!
मुझे तकलीफ हो रही है इस बारे में बात करते हुए लेकिन मैं बताना चाहता हूं कि मेरे इलाके में भी बहुत से घर ऐसे हैं. भारत का ग्रामीण जीवन इतना ही बदरंग है. उन टूटी हुई दीवारों और पहले से ही कमजोर हो चुकी जिंदगियों में हमने राष्ट्रवादी ज़हर का इंजेक्शन लगाया है, बिना ये सोचे हुए कि इसका अंजाम क्या हो सकता है! अगर कन्हैया के लकवाग्रस्त पिता की मौत सदमें से हो जाए तो क्या हम जिम्मेदार नहीं होंगे? ‘The Indian Express’ ने अगर स्टोरी नहीं की होती तो इस देश को पता नहीं चलता कि वंचितों के हक में कन्हैया को बोलने की प्रेरणा कहां से मिलती है!
रामा नागा और दूसरों का हाल भी ऐसा ही है. बहुत मामूली पृष्ठभूमि और गरीबी से संघर्ष करते हुए ये लड़के जेएनयू में मिल रही सब्सिडी की वजह से पढ़ लिख पाते हैं. आगे बढ़ने का हौसला देख पाते हैं. लेकिन टीआरपी की बाज़ारू अभीप्सा और हमारे बिके हुए विवेक ने इनके करियर को लगभग तबाह ही कर दिया है. हो सकता है कि हम इनकी राजनीति से असहमत हों या इनके विचार उग्र हों लेकिन ये देशद्रोही कैसे हो गए? कोर्ट का काम हम कैसे कर सकते हैं? क्या ये महज इत्तफाक है कि दिल्ली पुलिस ने अपनी FIR में ज़ी न्यूज का संदर्भ दिया है ? ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली पुलिस से हमारी सांठगांठ है? बताइए कि हम क्या जवाब दे लोगों को?
आखिर जेएनयू से या जेएनयू के छात्रों से क्या दुश्मनी है हमारी? मेरा मानना है कि आधुनिक जीवन मूल्यों, लोकतंत्र, विविधता और विरोधी विचारों के सह अस्तित्व का अगर कोई सबसे खूबसूरत बगीचा है देश में तो वो जेएनयू है लेकिन इसे गैरकानूनी और देशद्रोह का अड्डा बताया जा रहा है. मैं ये जानना चाहता हूं कि जेएनयू गैर कानूनी है या बीजेपी का वो विधायक जो कोर्ट में घुसकर लेफ्ट कार्यकर्ता को पीट रहा था ? विधायक और उसके समर्थक सड़क पर गिरे हुए CPI के कार्यकर्ता अमीक जमेई को बूटों तले रौंद रहे थे लेकिन पास में खड़ी पुलिस तमाशा देख रही थी. स्क्रीन पर पिटाई की तस्वीरें चल रही थीं और हम लिख रहे थे – ओपी शर्मा पर पिटाई का आरोप. मैंने पूछा कि आरोप क्यों? कहा गया ‘ऊपर’ से कहा गया है? हमारा ‘ऊपर’ इतना नीचे कैसे हो सकता है? मोदी तक तो फिर भी समझ में आता है लेकिन अब ओपी शर्मा जैसे बीजेपी के नेताओं और ABVP के कार्यकर्ताओं को भी स्टोरी लिखते समय अब हम बचाने लगे हैं.
घिन आने लगी है मुझे अपने अस्तित्व से. अपनी पत्रकरिता से और अपनी विवशता से. क्या मैंने इसलिए दूसरे सब कामों को छोड़कर पत्रकार बनने का फैसला बनने का फैसला किया था. शायद नहीं. अब मेरे सामने दो ही रास्ते हैं या तो मैं पत्रकारिता छोड़ूं या फिर इन परिस्थितियों से खुद को अलग करूं. मैं दूसरा रास्ता चुन रहा हूं. मैंने कोई फैसला नहीं सुनाया है बस कुछ सवाल किए हैं जो मेरे पेशे से और मेरी पहचान से जुड़े हैं. छोटी ही सही लेकिन मेरी भी जवाबदेही है. दूसरों के लिए कम, खुद के लिए ज्यादा. मुझे पक्के तौर पर अहसास है कि अब दूसरी जगहों में भी नौकरी नहीं मिलेगी. मैं ये भी समझता हूं कि अगर मैं लगा रहूंगा तो दो साल के अंदर लाख के दायरे में पहुंच जाऊंगा. मेरी सैलरी अच्छी है लेकिन ये सुविधा बहुत सी दूसरी कुर्बानियां ले रही है, जो मैं नहीं देना चाहता. साधारण मध्यवर्गीय परिवार से आने की वजह से ये जानता हूं कि बिना तनख्वाह के दिक्कतें भी बहुत होंगी लेकिन फिर भी मैं अपनी आत्मा की आवाज (consciousness) को दबाना नहीं चाहता.
मैं एक बार फिर से कह रहा हूं कि मुझे किसी से कोई व्यक्तिगत शिकायत नहीं है. ये सांस्थानिक और संपादकीय नीति से जुडे हुए मामलों की बात है. उम्मीद है इसे इसी तरह समझा जाएगा. यह कहना भी जरूरी समझता हूं कि अगर एक मीडिया हाउस को अपने दक्षिणपंथी रुझान और रुचि को जाहिर करने का, बखान करने का हक है तो एक व्यक्ति के तौर पर हम जैसे लोगों को भी अपनी पॉलिटिकल लाइन के बारे में बात करने का पूरा अधिकार है. पत्रकार के तौर पर तटस्थता का पालन करना मेरी पेशेवर जिम्मेदारी है लेकिन एक व्यक्ति के तौर पर और एक जागरूक नागरिक के तौर पर मेरा रास्ता उस लेफ्ट का है जो पार्टी द्फ्तर से ज्यादा हमारी ज़िंदगी में पाया जाता है. यही मेरी पहचान है.
और अंत में एक साल तक चलने वाली खींचतान के लिए शुक्रिया. इस खींचतान की वजह से ज़ी न्यूज़ मेरे कुछ अच्छे दोस्त बन सके.
सादर-सप्रेम,
विश्वदीपक
makera
February 21, 2016 at 8:22 pm
Wishwa Deepak ji ko Sadhuwad, jinhoney Z-News jaise Sansthan ko “Laat Maar Di”. Aise Sansthan me Kaam kerna aur na karna ek samaan hai dear. Apnaa Zameer Kho Kar koi kaam karna bhi nahi chahiye, warna Zindagi Bojh ban jati hai..
Z-News ke baarey me jabse suna hun, tabsey usse dekhna band ker diya hoon… Apney cable operator se bhi request karney wala hoon ki kuchh aisa nahi ho sakta ki Z-News mere TV me Dikhey hi nahi…. Aapney jo kiya, Lajawab kiya… Aap Badhai ke Paatra hain. Par ek baat samajh me nahi aa rahi, ki kya Baaki ke TV Patrakaron ne Apni Zameer Bech di hai kya?!!! Sachmuch me “GHIN” aati hai “Aise Patrakaron” par.. Jai Hind.
ABDUL Wahid
February 22, 2016 at 1:26 pm
I proud of you Wishvedeepak, welcome.
pravin
March 1, 2016 at 3:27 pm
sir kitne paise mile aap ko ye dhong karne ke liye pls batado aap ne jo bhee prasarit kiya hai wo sach hai lakin aap ki
pratrikarita per mughe shak hai aap mughe kisi bhee angel se journalist nahi lagte jo is tareh se r roona rote hai