बीजेपी दलित सियासत में लगायेगी बड़ा दांव
अजय कुमार, लखनऊ
किसी पार्टी का कोई सांसद/विधायक अगर अपना करीब-करीब पूरा कार्यकाल बीता लेने के बाद बगावती तेवर दिखाता है तो इसके कई मायने हैं. हो सकता है उसे डरा सता रहा हो कि पार्टी उसका टिकट काट सकती है या फिर ऐसा नेता को जनाक्रोश का अंदाजा हो रहा हो और उसे लगने लगा हो कि पार्टी टिकट भले न काटे लेकिन वह चुनाव हार सकता है ? इसी श्रेणी के नेता प्रत्येक पार्टी में मिल जाते हैं. जिनका मकसद काम करने की बजाये जनता को बरगला कर चुनाव जीतना ज्यादा होता है.कभी-कभी ऐसे नेताओं के बगावती तेवर पार्टी के लिये चिंता का विषय भी बन जाते हैं,लेकिन अक्सर ऐसे नेताओं को मुंह की ही खानी पड़ती है. बगावती तेवर अपना कर ऐसा ही कारनामा आजकल बीजेपी सांसद सावित्री बाई फुले पार्टी कर रही हैं. चार साल तक मुंह बंद रखने वाली सांसद सावित्री को अचानक लगने लगा है कि मोदी और योगी सरकार दलित विरोधी है. इसी लिये तो उन्होंने हाल ही में लखनऊ के स्मृति उपवन में आयोजित ‘संविधान व आरक्षण बचाओ‘ रैली में वह सब मुद्दे उठाये जिसके माध्यम से वह मोदी-योगी सरकार को घेरने के साथ-साथ अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी कर सकती थीं. अगर यह कहा जाये कि सावित्री दलितों के नाम पर ‘हो-हल्ला’ करके दूसरी मायावती बनने का सपना देख रही हैं तो अतिशियोक्ति नहीं होगी.
सावित्री भी बसपा सुप्रीमों मायावती की तरह दलित बिरादरी से आती हैं. बस फर्क इतना है कि दलित समाज में दोनों का वर्ग अलग-अलग है. मायावती का जन्म जहां जाटव परिवार में हुआ था वहीं सावित्री का ताल्लुक पासी समाज से है,जो जाटव के बाद प्रदेश में सबसे बड़ी आबादी है. पासी समाज को बसपा का कोर वोटर समझा जाता है. 2007 के विधान सभा चुनाव में 57 प्रतिशत और 2012 के इकेक्शन में 53 प्रतिशत पासी वोट बसपा के खाते में गया था, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधान सभा चुनाव में पासी वोटर बीजेपी के साथ खड़े नजर आये थे.
बगावती तेवर अपनाये फुले को चार वर्ष से अधिक समय बिताने के बाद लगने लगा है कि संविधान निर्माता बाबा साहेब की मूर्तियां तोड़ी जा रही हैं तो इसके खिलाफ उन्हें लड़ना होगा. वह अपनी ही सरकार के सीएम योगी आदित्यनाथ से पूछती हैं कि जो मूर्तियां तोड़ी जा रही हैं, उसके तोड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही.इसी के साथ उन्हें इस बात का भी दर्द सताने लगा है कि एससी, एसटी और पिछड़ी जातियों के रिक्त पदों को भरा नहीं जा रहा है.
राजनीति के जानकार फुले के बगावती तेवर की दूसरी वजह बताते हुए कहते हैं कि दरअसल बीजेपी अपने करीब दो दर्जन उन सांसदों का टिकट काटने का मन बना रही है जिनसे जनता संतुष्ट नहीं है. इस लिस्ट में फुले का भी नाम बताया जाता है. 2019 के लोकसभा चुनाव में टिकट कटने के डर से भाजपा के यह सांसद अलग-अलग तरीके से केन्द्रीय नेतृत्व पर दवाब बना रहे हैं। कुछ सांसदों को उम्मीद है कि उनका टिकट शायद न कटे,इस लिये वह पार्टी स्तर पर अपना पक्ष रख रहे हैं, परंतु जिन सांसदों को लगता है कि उनका टिकट कटना तय है वे अपनी शिकायतें पार्टी के मंच पर रखने की बजाय उसे सार्वजनिक मंच से हवा दे रहे हैं। यह और बात है कि मोदी और शाह की राजनीति को समझने वालों को यह नहीं लगता है कि केन्द्रीय नेतृत्व ऐसे सांसदों के सामने झुकेगा. उल्टे बीजेपी आलाकमान और संघ ऐसे नेताओं की पार्टी विरोधी गतिविधियों को लेकर उनके प्रति गंभीर रुख अपनाने का मन बना रहा है.
बात बीजेपी की दलितों के बीच स्थिति की कि जाये तो 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़ी संख्या में दलित वोट बीएसपी से कट कर बीजेपी की झोली में आया था. प्रदेश में दलित वर्ग के सबसे ज्यादा 17 सांसद भाजपा के पास ही हैं. ऐसे में किसी न किसी बहाने सांसदों, खासकर दलित सांसदों के पार्टी विरोधी कार्यों को केन्द्रीय नेतृत्व उचित नहीं मान रहा है। पिछले चार साल के कार्यकाल में कई भाजपा सांसदों के रवैये ने पार्टी नेतृत्व को असहज किया है। सहारनपुर में एक सांसद द्वारा वहां के एसएसपी को धमकाना, बाराबंकी की क्षेत्रीय सांसद का अपने ही जिलाधिकारी के खिलाफ मोर्चा खोलना, धौरहरा की सांसद का अपने ही पार्टी के महोली के विधायक से झगड़ा करना और निकाय चुनाव में कैसरगंज के सांसद के पार्टी प्रत्याशी के विरोध को पार्टी नेतृत्व ने संज्ञान लिया है। इसी तरह एक सांसद का विद्युत वितरण व्यवस्था को निजी क्षेत्रों को सौंपने का विरोध करना भी पार्टी नेतृत्व को नहीं सुहाया.अब यही काम बीजेपी सांसद फुले कर रही हैं.
उधर, बीजेपी आलाकमान सांसद सावित्री फुले के बगावती तेवरों की वजहें तलाशी जा रही हैं। यह भी सवाल उठ रहे हैं कि उनको अलग से भीड़ जुटाने की जरूरत क्यों पड़ी. कहीं वह 2019 में बीजेपी से टिकट नहीं मिलने की दशा में दूसरा विकल्प चुनकार अपना भविष्य सुरक्षित करने की कोशिश में तो नहीं लगी हैं.वैसे भी 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियों ने प्रत्याशियों के चयन को लेकर मंथन शुरू कर दिया है.
माना जा रहा है कि बीजेपी कई वर्तमान सांसदों के टिकट काट सकती है. ऐसे में दलितों की भीड़ जुटाकर फुले अपनी ताकत दिखा रही हैं. बीजेपी से टिकट न मिला तो दूसरी पार्टी में जगह बनाने के लिए भी ताकत दिखाना जरूरी है.वैसे यह तय है कि बीएसपी को अपने लिये किसी दूसरी ‘मायावती’ की आवश्यकता नहीं है.समाजवादी पार्टी का कोर वोटर पिछड़ा और मुस्लिम समझा जाता है.इस लिये सपा दलित वोटरों को अपनी तरफ रिझाने की कोई खास कोशिश भी नहीं करती है.बात कांग्रेेस की कि जाये तो हाल में फूलपुर और गोरखपुर संसदीय सीट के लिये उप-चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन जितना लचीला रहा उसके बाद फुले वहां जाकर अपना भविष्य शायद ही सुरिक्षत रख सकें,मगर राजनीति संभावनाओं का खेल है,यहां एक रास्ता बंद होता है तो सैकड़ों स्वतः खुल जाते हैं.
बहरहाल,दलितों के मुद्दे पर बीजेपी किसी भी तरह का रिस्क नहीं उठाना चाहती है.इसीलिये एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ मोदी सरकार द्वारा जनहित याचिका दायर कि है तो नौ अप्रैल से यूपी में विधान परिषद की 13 सीटों पर शुरू होने वाले नामांकन में भाजपा दलितों और अति पिछड़ों को महत्व दे सकती है। सपा-बसपा गठबंधन के बाद बीजेपी के लिये जातीय गोलबंदी मजबूत करना मजबूरी बन गया है.
2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में दलितों का पार्टी को अच्छा वोट मिला था, बीजेपी के पक्ष में दलितों के झुकाव के बाद बसपा सहित तमाम दल दलितों को अपने हिसाब से समझा कर दलित सियासत को हवा दे रहे हैं. बीजेपी आरक्षण के नाम पर मचे बवाल और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के नाम पर उसके विरोधियों द्वारा आगे बढ़ाई जा रही दलित राजनीति की काट के लिये कुछ अतिरिक्त करना चाह रही है. विधान परिषद के चेहरों को चुनते समय यह दबाव पार्टी पर साफ दिख सकता है. खासकर जिस तरह विपक्ष के खेमे से एक दलित चेहरे को परिषद भेजने की चर्चा है, सूत्रों के अनुसार इसमें कम से कम दो सीट दलित और दो सीट ब्राह्मण चेहरे के खाते में जा सकती है।
एससी-एसटी ऐक्ट से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर स्टे न मिलने के बाद एक बार फिर बीजेपी बैकफुट पर है। हालांकि, पार्टी की ओर से विपक्ष को करारा जवाब देने के लिए पूरी तैयारी की गई है, जिस तरह से विपक्ष ने इस मामले को लेकर जोरदार तरीके से अभियान चलाया है, उससे बीजेपी के भीतर चिंता महसूस की जा रही है। खासतौर पर उन सांसदों में, जो इस समुदाय से जुड़े हैं। यही वजह है कि लोकसभा में गृह मंत्री के बयान के बाद खुद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को भी इस मामले में खुद ही बचाव के लिए उतरना पड़ा।
बीजेपी सूत्रों के मुताबिक, पार्टी इस मामले में पुरजोर तरीके से विपक्ष के तर्कों को काट रही है और जनता के बीच यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि मोदी सरकार लगातार दलितों के हित में कार्य कर रही है। पार्टी ने यह भी प्लानिंग की है कि संसद सत्र समाप्त होने के फौरन बाद ही जनता को बताया जाएगा कि सरकार ने दलितों के लिए कितने कार्य किए हैं। इस मामले के गंभीर होने के कारण सरकार को अब चिंता दलित वोट छिटकने को लेकर है।
दरअसल, बीते चार सालों में बीजेपी को दलितों का जितना समर्थन मिला है, इससे पहले कभी नहीं मिला। ऐसे में सबसे ज्यादा चिंता उन सांसदों को है, जिनके निर्वाचन क्षेत्र में दलित वोटरों की संख्या बहुत अधिक है। ऐसे नेताओं को लग रहा है कि अगर इस मसले पर दलित वोटरों में कुछ हिस्सा भी उनसे छिटका तो सीधे उसका नुकसान उन्हें ही होगा। इन नेताओं का कहना है मामले में जिस तरह से अदालत का फैसला आया, उसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन विपक्ष के अभियान की वजह से मेसेज यह जा रहा है कि मोदी सरकार की ढिलाई की वजह से यह हुआ।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.