Anand Swaroop Verma
‘जियो इंस्टीट्यूट’ पर चर्चा के बीच यह याद दिलाना जरूरी लगता है कि मुकेश अंबानी की शिक्षा के क्षेत्र में अपार क्षमता की पहचान पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी जिनकी उदारवादी छवि की चर्चा करते हुए लोग अघाते नहीं हैं।
विश्व बैंक ने ‘री-डिफाइनिंग दि रोल ऑफ स्टेट’ शीर्षक दस्तावेज के जरिए जब तीसरी दुनिया के देशों को हर क्षेत्र में निजीकरण लागू करने का निर्देश दिया। तब 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने देश के प्रमुख उद्योगपतियों को लेकर व्यापार और उद्योग से संबंधित एक कौंसिल का गठन किया।
इसमें रतन टाटा, मुकेश अंबानी, कुमारमंगलम बिड़ला, एन.आर.नारायण मूर्ति, नुस्ली वाडिया, राहुल बजाज आदि शामिल थे। अलग-अलग उद्योगपतियों को अलग-अलग जिम्मेदारियां सौंपी गईं।
मुकेश अंबानी को शिक्षा में सुधार की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसके बाद अंबानी और कुमारमंगलम बिड़ला ने एक लंबा चौड़ा दस्तावेज तैयार किया जिसका शीर्षक है ‘ए पॉलिसी फ्रेमवर्क फॉर रिफॉर्म्स इन एजुकेशन’। इसमें अंबानी ने बहुत सारे सुझाव दिए कि किस तरह शिक्षा में सुधार किए जाएं और विश्वविद्यालयों को दुरुस्त किया जाय।
उन्होंने सुझाव दिया कि शिक्षा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया जाय, पैसे के लिए सरकारी निर्भरता समाप्त की जाय, विश्वविद्यालयों को इस योग्य बनाया जाय कि ज्यादा से ज्यादा विदेशी छात्र आकर्षित हों, प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिल लाया जाय ताकि निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना हो सके, विश्वविद्यालय तथा शिक्षा संस्थानों में हर तरह की राजनीतिक गतिविधि पर रोक लगाई जाय।
आश्चर्य की बात है कि प्रधानमंत्री की इस परिषद में कोई भी शिक्षाविद् नहीं शामिल था जो अपनी राय दे सके। यह दस्तावेज अभी भी इंटरनेट पर देखा जा सकता है।
जाने-माने पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा की एफबी वॉल से.