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सियासत

खतरे में है खबरों के केंद्रीकृत नियंत्रण की व्यवस्था

नई किस्म के कन्टेन्ट के लिए पारंपरिक मीडिया की तुलना में डिजिटल मीडिया ज्यादा अनुकूल है। यह न सिर्फ इंटरएक्टिव है बल्कि पोर्टेबल भी है। वह अलग-अलग डिवाइस के लिहाज से रूप बदलने में सक्षम है, फिर चाहे वह टेलीविजन की बड़ी स्क्रीन हो या फिर कंप्यूटर की छोटी स्क्रीन। वह टैबलेट की आयताकार स्क्रीन हो या फिर मोबाइल फोन की लंबवत या वर्टिकल स्क्रीन। उसके लिए कोई सबस्क्रिप्शन प्लान लेने की जरूरत नहीं है। चाहिए तो सिर्फ एक अदद इंटरनेट कनेक्शन। ऊपर से पाठक को खुद पत्रकार बनने की आजादी देने की स्वाभाविक प्रवृत्ति एक किस्म की क्रांति को जन्म दे रही है।

<p>नई किस्म के कन्टेन्ट के लिए पारंपरिक मीडिया की तुलना में डिजिटल मीडिया ज्यादा अनुकूल है। यह न सिर्फ इंटरएक्टिव है बल्कि पोर्टेबल भी है। वह अलग-अलग डिवाइस के लिहाज से रूप बदलने में सक्षम है, फिर चाहे वह टेलीविजन की बड़ी स्क्रीन हो या फिर कंप्यूटर की छोटी स्क्रीन। वह टैबलेट की आयताकार स्क्रीन हो या फिर मोबाइल फोन की लंबवत या वर्टिकल स्क्रीन। उसके लिए कोई सबस्क्रिप्शन प्लान लेने की जरूरत नहीं है। चाहिए तो सिर्फ एक अदद इंटरनेट कनेक्शन। ऊपर से पाठक को खुद पत्रकार बनने की आजादी देने की स्वाभाविक प्रवृत्ति एक किस्म की क्रांति को जन्म दे रही है।</p>

नई किस्म के कन्टेन्ट के लिए पारंपरिक मीडिया की तुलना में डिजिटल मीडिया ज्यादा अनुकूल है। यह न सिर्फ इंटरएक्टिव है बल्कि पोर्टेबल भी है। वह अलग-अलग डिवाइस के लिहाज से रूप बदलने में सक्षम है, फिर चाहे वह टेलीविजन की बड़ी स्क्रीन हो या फिर कंप्यूटर की छोटी स्क्रीन। वह टैबलेट की आयताकार स्क्रीन हो या फिर मोबाइल फोन की लंबवत या वर्टिकल स्क्रीन। उसके लिए कोई सबस्क्रिप्शन प्लान लेने की जरूरत नहीं है। चाहिए तो सिर्फ एक अदद इंटरनेट कनेक्शन। ऊपर से पाठक को खुद पत्रकार बनने की आजादी देने की स्वाभाविक प्रवृत्ति एक किस्म की क्रांति को जन्म दे रही है।

हम इतिहास के उस दौर में हैं जहां खबरों और सूचनाओं के केंद्रीकृत नियंत्रण की व्यवस्था खतरे में है। शेन बोमैन और क्रिस विलिस ने कुछ साल पहले कहा था कि खबरों के चौकीदार के रूप में पारंपरिक मीडिया की भूमिका को सिर्फ तकनीक या प्रतिद्वंद्वियों से ही खतरा नहीं है बल्कि उसके अपने उपयोगकर्ताओं से भी है। क्योंकि न्यू मीडिया ने उपयोगकर्ता को सप्लायर भी बना दिया है। आज मैं कहूँगा कि लिविंग रूम के प्रभारी के रूप में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या टेलीविजन के एकाधिकार को भी डिजिटल मीडिया से खतरा है।

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क्या नए किस्म के वीडियो कन्टेन्ट का उभार पारंपरिक टेलीविजन के लिए खतरा बन सकता है या फिर ऐसा माना जाए कि वह अपने आप में एक अलग धारा है जो टेलीविजन को नुकसान पहुँचाए बिना अपने रास्ते पर चलती रहेगी।

आपने इसका उदाहरण पिछले दिनों देखा है। यू-ट्यूब पर वीडियो प्रोड्यूसरों की ऐसी जमात उभर रही है जो अपने कन्टेन्ट को ब्रॉडकॉस्ट करने के लिए टेलीविजन पर निर्भर नहीं है। नई तकनीकों ने वीडियो प्रॉडक्शन को बहुत सस्ता और आसान बना दिया है।

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क्या आपने एआईबी या ऐब और वायरल फीवर के बारे में सुना है?ये कुछ ऐसे वीडियो निर्माता हैं जो एकदम नई किस्म का वीडियो कन्टेन्ट लेकर आ रहे हैं और उसे इंटरनेट के जरिए डिलीवर कर रहे हैं। इनकी लोकप्रियता भी आश्चर्यजनक तेजी से बढ़ रही है।

यहाँ एक उदाहरण काबिले गौर है। भारत में स्टार समूह की इस बात के लिए काफी तारीफ हो रही है कि उसने इंटरनेट का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया है। अभी पिछले हफ्ते ही खबर थी कि विश्व कप क्रिकेट 2015 में भारत और पाकिस्तान के मैच का वीडियो जो स्टार समूह ने इंटरनेट पर अपलोड किया, उसे 21.4 लाख लोगों ने देखा।

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स्टार ग्रुप को बधाई देने की जरूरत है। लेकिन जरा इसकी तुलना द वायरल फीवर और एआईबी जैसे ऑनलाइन वीडियो कन्टेन्ट निर्माताओं से कीजिए। हालाँकि वित्तीय आधार पर देखें तो दोनों के आकार में कोई तुलना हो ही नहीं सकती। एक भारत का सबसे सफल और सबसे बड़ा मीडिया समूह है और दूसरी तरफ चंद मरजीवड़े इंटरनेट-योद्धा। बहरहाल, इस महीने के शुरू में एआईबी के कुल वीडियो व्यूज़ 6.3 करोड़ तक जा पहुँचे थे। इतना ही नहीं, उसे दस लाख से अधिक इंटरनेट यूजर्स ने सबस्क्राइब कर रखा है। यानी एआईबी का हर वीडियो, जो यू-ट्यूब पर डाला जाता है वह कम से कम दस लाख लोगों तक तो पहुँचेगा ही इसकी गारंटी है।

क्या नए किस्म के वीडियो कन्टेन्ट का उभार पारंपरिक टेलीविजन के लिए खतरा बन सकता है या फिर ऐसा माना जाए कि वह अपने आप में एक अलग धारा है जो टेलीविजन को नुकसान पहुँचाए बिना अपने रास्ते पर चलती रहेगी। उसमें भी लोग कामयाब होंगे लेकिन टेलीविजन अपनी जगह पर मजबूती से जमा रहेगा। माफ कीजिए, मुझे लगता है कि बात उतनी सीधी-सरल नहीं है। यहाँ वीडियो के दर्शक और वीडियो कन्टेन्ट देखने का समय यानी व्यूइंग ऑवर्स टेलीविजन और इंटरनेट के बीच विभाजित हो रहे हैं। जो आदमी पहले टेलीविजन पर समय गुजारता था, वह अब अपना काफी समय मोबाइल फोन और इंटरनेट को देता है। और इस प्रक्रिया में टेलीविजन अपने व्यूइंग ऑवर्स खो रहा है।

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इस परिघटना के कई पहलू हैं। पहला यह कि हमारे टेलीविजन चैनलों का कन्टेन्ट स्टीरियो टाइप यानी एकरसता-पूर्ण हो रहा है। मुझ जैसे बहुत से लोगों को सास बहू के सीरियलों में दिलचस्पी नहीं है और समाचार चैनलों के लिए हमारी क्षुधा या एपेटाइट सीमित है। हर शाम हम रिमोट लेकर भटकते रहते हैं कि देखें तो क्या देखें। महिलाओँ को छोड़कर एक बहुत बड़ा तबका है जो टेलीविजन की एकरसता से ऊब चुका है।

दूसरी तरफ इंटरनेट आधारित वीडियो कन्टेन्ट एकदम नई तरह का है- ताजा ताजा, फ्रैश और दिलचस्प। एकदम नई तरह की कॉमेडी, नई तरह के स्पूफ और प्रैंक.. जैसे कि ऐब या वायरल फीवर की तरफ से पेश कन्टेन्ट। अर्णब गोस्वामी और अरविंद केजरीवाल की नकल करते हुए द वायरल फीवर की तरफ से बनाया गया एक वीडियो जिसका नाम है Arnab’s Qtiapa, वह यू-ट्यूब पर करीब 50 लाख बार देखा जा चुका है। आखिरकार कहाँ से आ रहे हैं ये दर्शक?कुछ नए दर्शक हैं और कुछ टेलीविजन के दर्शक हैं। इस बात का अहसास इन वीडियो निर्माताओं को भी है कि वे टेलीविजन के दर्शकों को अपनी तरफ खींचने में सक्षम हैं। इसलिए उन्होंने अब पूरे के पूरे ऑनलाइन फिक्शन सीरियल बनाने शुरू कर दिए हैं। एक नई किस्म की वीडियो क्रांति के मुहाने पर खड़े हैं हम।

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इसके तकनीकी पहलुओं पर भी गौर करना ज़रूरी है। क्रोमकास्ट जैसे गैजेट्स, जो अब भारत में भी मौजूद हैं, उन्होंने ऑनलाइन वीडियो को टेलीविजन पर देखना बहुत आसान बना दिया है। बस अपने टेलीविजन के एचडीएमआई स्लॉट में पेन ड्राइव जैसा एक छोटा सा गैजेट घुसाइए और कंप्यूटर या टैबलेट पर चलने वाले तमाम इंटरनेट वीडियो तुरंत टेलीविजन पर चलने शुरू हो जाते हैं। अमेरिका में हूलू एक बेहद लोकप्रिय वीडियो स्ट्रीमिंग सर्विस है। वह इंटरनेट के जरिए कन्टेन्ट वितरित करती है जो टेलीविजन, कंप्यूटर, टैबलेट, वेबसाइट आदि पर देखा जा सकता है। नेटफ्लिक्स और अमेजॉन भी ऐसी ही सेवाएँ देते हैं।

ये सेवाएँ बहुत लोकप्रिय हो रही हैं और धीरे-धीरे लोग टेलीविजन पर वीडियो कन्टेन्ट देखने के लिए भी इंटरनेट की तरफ बढ़ रहे हैं।

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प्रभासाक्षी से साभार

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