अजय कुमार, लखनऊ
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जनहित के तमाम फैसले तो धड़ाधड़ ले रहे हैं, लेकिन जमीन पर यह फैसले उम्मीद के अनुसार फलीभूत होते नहीं दिख रहे हैं, जिसका गलत मैसेज जनता के बीच जा रहा है, तो विपक्ष को सरकार पर हमलावर होने का मौका मिल रहा है। सवाल यह उठ रहा है कि चूक कहां हो रही है? क्या सरकारी मशीनरी योगी सरकार के मंसूबों पर पानी नहीं फेर रही है ? योगी की बार-बार की डांट-डपट के बाद भी नौकरशाही के कानों पर जूं क्यों नहीं रेंग रही है ? चर्चा यह भी है कि ब्यूरोक्रेसी के दिलो-दिमाग में यह बात घर कर गई है कि यूपी की सरकार पीएमओ से चल रही है ? सरकार के गठन के समय प्रमुख और मुख्य सचिव से लेकर अब पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति तक में जिस तरह की फजीहत योगी सरकार की हो रही है, उससे ब्यूरोक्रेसी के बीच यही मैसेज गया है कि यूपी में सभी प्रमुख पदों पर नौकरशाही की नियुक्ति में योगी नहीं, केन्द्र की मोदी सरकार की चल रही है. वह महत्वपूर्ण पदों पर अपने हिसाब से अपने पसंद के अधिकारियों का बैठा रहा है, ताकि केन्द्रीय योजनाओं को पीएम की इच्छा के अनुरूप लागू किया जा सके. 2019 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए ऐसा आवश्यक भी बताया जा रहा है.
सीएम योगी ने कुर्सी संभालते ही अपनी पसंद का प्रमुख सचिव बनाने के लिये आईएएस अधिकारी अवनीश अवस्थी को दिल्ली से बुलाया था, लेकिन उनकी चली नहीं और एस0पी गोयल को दिल्ली ने प्रमुख सचिव के रूप में नामित कर दिया, आज भी गोयल प्रमुख सचिव हैं, जबकि अवनीश को प्रमुख सचिव सूचना के पद पर संतोष करना पड़ा। इसी तरह से मुख्य सचिव के रूप में भी यूपी के वरिष्ठ स्वच्छ छवि वाले आईएएस प्रवीण कुमार जैसे तमाम काबिल अफसरों को अनदेखा करके सीएम योगी को केन्द्र की इच्छा का सम्मान करते हुए दिल्ली से भेजे गये आईएएस राजीव कुमार को मुख्य सचिव बनाना पड़ा था.बात यही नहीं रूकी है. देर-सबेर ब्यूरोक्रेसी में एक और बड़ा फेरबदल देखने को मिले तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस चर्चा को वरिष्ठ आईएएस अधिकारी दलजीत सिंह के दिल्ली से लखनऊ आने के बाद ज्यादा बल मिला है। दलजीत सिंह हैं तो ब्यूरोक्रेट्स, लेकिन दलित परिवार से आने के कारण इनके माध्यम से बीजेपी दलित वोटरों के बीच पैठ बढ़ाना चाहती है। हो सकता है अभी इन्हें कृषि उत्पादन आयुक्त जैसा कोई महत्वपूर्ण पद दे दिया जाये और चुनावी बेला में यह मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुंच जायें।
अब 1983 बैच के आईपीएस अधिकारी ओ0पी0सिंह की डीजीपी पद पर नियुक्ति और उनके कार्यभार नहीं ग्रहण करने के कारण योगी सरकार पर सवाल उठ रहे हैं। कहा यह जा रहा है कि पीएमओ ने ओ0पी0 को रिलीव ही नहीं किया जिससे उनकी नियुक्ति पर सवाल खड़े हो गये. विपक्ष ने भी इससे मुद्दा बना दिया. असल में ओ0पी0 सिंह का बैक ग्रांउड उनके लिये परेशानी का सबब बन गया है। बात जून 1995 की है. तब प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन की संयुक्त सरकार थी. मुलायम सिंह सीएम थे. मुलायम सरकार को सत्ता संभाले डेढ़ वर्ष से अधिक का समय बीत चुका था. इस दौरान सपा-बसपा के बीच तमाम मुद्दों पर दूरियां काफी बढ़ गई थीं. बसपा बार-बार समर्थन वापसी की धमकी दे रही थी. इसी बीच जब बसपा सुप्रीमों मायावती ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस लिया तो सपा के दबंगों ने बसपा सुप्रीमों मायावती को लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस में बंधक बना लिया. कहा यह गया कि सपा नेताओं ने मायावती के साथ काफी अभद्रता की.वह उन्हें जान तक से मार देना चाहते थे.तब केन्द्र में अटल सरकार थी.उसके हस्तक्षेप से मामला ठंडा पड़ा। बीजेपी ने मायावती को पूरा समर्थन दिया. वह सीएम बन गईं. उस समय ओ0पी0 सिंह लखनऊ के एसएसपी थे. माया के सीएम बनने के बाद ओपी सिंह को निलंबन का समाना करना पड़ा. यह घटना तो छोटी सी थी, लेकिन 22 वर्ष बाद भी बीजेपी को डर सता रहा है कि अगर ओपी सिंह को सूबे का हाकिम बना दिया गया तो मायावती इसे दलित स्वाभिमान से जोड़ कर सियासी रोटियां सेंकने का मौका छोड़ेंगी नहीं. दलित वोटों के लिये चिंतित बीजेपी कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं है. वैसे भी सहारनपुर में दलितों के साथ घटी घटना के बाद बीजेपी दलितों के मामले में बैकफुट पर है।
वैसे, कुछ सूत्रों का यह भी दावा है कि ओ0पी0 सिंह डीजीपी के लिये सीएम योगी की पहली पसंद नहीं थे, मगर पार्टी के एक कद्दावर नेता और केन्द्र में मंत्री के चलते योगी ने ओ0पी0 सिंह के नाम पर सहमति तो दे दी, परंतु जब उन्हें लगा कि ओ0पी0सिंह की छवि निर्विवाद नहीं रही है.उन्हें डीजीपी बनाने से दलितों में गलत संदेश जायेगा, तो योगी ने पीएम मोदी से मुलाकात करके उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया. इसके बाद ही ओ0पी0 को पीएमओ से रिलीव नहीं किया गया. हो सकता है भावेश कुमार को डीजीपी के पद की जिम्मेदारी सौंप दी जाये। वह योगी की पहली पंसद तो हैं ही अभी उनका रिटायर्डमेंट भी करीब नहीं है।
खैर, बात इससे आगे बढ़ाई जाये तो सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि सीएम योगी स्वयं नौकरशाही का कैसे बखूबी इस्तेमाल किया जाये इसको लेकर भी तमाम मौकों पर दुविधा में नजर आते हैं। यह दुविधा सरकार के गठन के समय से शुरू हुई थी और अब तक जारी है। बात पिछले वर्ष हुए विधान सभा चुनाव प्रचार के समय की है। तब तत्कालीन मुख्य सचिव राहुल भटनागर और डीजीपी रिजवान अहमद के खिलाफ बीजेपी नेताओं-कार्यकर्ताओं ने चुनाव आयोग तक से शिकायत की थी कि दोनों अधिकारी सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के एजेंट के रूप में काम कर कर रहे हैं। बीजेपी के पक्ष में नतीजे आते ही इस संभावना को बल मिलना शुरू हो गया कि सीएम योगी सबसे पहले मुख्य सचिव राहुल भटनागर और डीजीपी रिजवान अहमद की छुट्टी करेेगी, लेकिन ऐसा करने की बजाये योगी ने घोषणा कर दी कि नौकरशाही गलत नहीं होती है.इसको चलाने वाले गलत होते हैं. हम इसी नौकरशाही से काम लेकर दिखायेंगे. इसके साथ ही योगी ने यह फरमान भी सुना दिया कि अधिकारी बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं के दबाव में न आयें। इसका नतीजा यह हुआ कि बीजेपी वालों की इन सहित तमाम अधिकारियों ने सुनना बंद कर दिया। योगी के इस एक फरमान से बीजेपी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट गया। यह मामला बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के समाने भी पहुंचा था। इस पर शाह ने सभी मंत्रियों को आदेश दिया था कि वह पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं से मिलने का समय निकाले, ताकि जनता की समस्याओं का निराकरण हो सके।
मुद्दे पर आते हुए बात सीएम योगी के ब्यूरोक्रेसी में बदलाव नहीं करने वाले फैसले की कि जाये तो इससे संगठन में यह संदेश गया कि सरकार को कार्यकार्ताओं की भावनाओं की कद्र नहीं है। भ्रष्टाचार को लेकर योगी सरकार सख्त नहीं है। दरअसल, यह धारणा मुख्य सचिव राहुल भटनागर को नहीं हटाये जाने के कारण बनी थी। तत्कालीन मुख्य सचिव राहुल भटनागर कभी अपनों के बीच ‘शूगर डैडी’ के नाम से मशहूर हुआ करते थे, उनके चीनी मिल मालिकों से बहुत अच्छे संबंध थे,इस लिये उनकी छवि पर भी उंगली उठती थीं. राहुल भटनागर को करीब तीन माह के बाद काफी फजीहत उठाने के बाद योगी ने चलता किया गया और भटनागर की जगह पीएमओ की पंसद के राजीव कुमार को मुख्य सचिव की कुर्सी सौंपी गई।
योगी सरकार के दस माह के शासनकाल में नौकशाहों की लापरवाही के कारण उनकी सरकार की किरकिरी की लम्बी चौड़ी लिस्ट तैयार की जा सकती हैं। विधान सभा में मिले सफेद पाउडर को खतरनाक पीटीईएन पाउडर बताना, किसानों का लोन माफ करने में की गई लापरवाही का प्रकरण अथवा सरकारी अस्पतालों में बच्चों की मौत के मामलों, गोरखपुर महोत्सव सहित अन्य कुछ घटनाओं के कारण योगी सरकार की फजीहत को भुलाया नहीं जा सकता है। बात विधान सभा में मिले सफेद पाउडर की कि जाये तो यह एक ऐसा मौका था, जब सीएम योगी ब्यूरोक्रेसी को कड़ा संदेश दे सकते थे। ब्यूरोक्रेसी की लापरवाही के कारण ही सीएम योगी ने सदन में बयान दे दिया था कि यह एक आतंकी घटना हो सकती है. जितना पीटीईएन पाउडर मिला है,उससे पूरी विधान सभा उड़ाई जा सकती थी। इसके बाद आनन-फानन में पूर्व विधान सभा सदस्यों सहित तमाम लोगों के प्रवेश पत्र निरस्त कर दिये गये.बाद में पता चला कि विधान सभा हाल में मिला पाउडर पीटीईएन नहीं, लकड़ी के फर्नीचर और खिड़की-दरवाजों पर पॉलिश करने के काम आने वाला साधारण पाउडर था. इतनी बड़ी चूक हो गई, मगर किसी बड़े अधिकारी के ऊपर आंच नहीं आई,जबकि इसमें कई अधिकारियों के निलंबन की प्रबल संभावना जताई जा रही थी. इसके बजाये एक छोटे से अधिकारी को ‘शूली’ पर लटका कर सरकार ने अपने कृतव्यों की इतिरी कर दी.
नौकरशाही मनमानी ही नहीं करती है, मुख्यमंत्री को गुमराह करने का भी कोई मौका नहीं छोड़ती हैं। इसका एक उदाहरण कुछ माह पूर्व वाणिज्य विभाग बना था। मुख्यमंत्री योगी के अधीन आने वाले वाणिज्य कर विभाग में एक हजार वैट अधिकारियों के स्थानान्तरण व तैनाती को लेकर खींचतान चल रही थी, लम्बे मंथन के बाद विभाग के 84 ज्वाइंट कमिश्नरों की सूची गोपनीय ढंग से जारी की गयी, कई अधिकारियों के लिए पद भी खाली छोड़े गए, लेकिन शासन में बैठे अधिकारियों ने सीएम को जो जानकारी दी वह हकीकत से कोसों दूर थी। सीएम को बताया गया कि अगर विभाग में अधिकारियों की तैनाती में फेरबदल किये गए तो इसका प्रभाव जीएसटी के अनुपालन पर पड़ेगा और ये फेल हो सकती है।
योगी सरकार में पंचम तल और जिलों में तैनात नौकरशाह/अधिकारियों की लापरवाही के चलते सरकारीं फाइलों की रफ्तार सुस्त है तो मोदी की महत्वाकांक्षी किसानों का ऋण माफी योजना में भी नौकरशाही के कारण सरकार को फजीहत उठानी पड़ी. योगी का गौ-माता प्रेम जगजाहिर है।योगी जी जानते हैं कि पॉलिथीन के बैग्स सबसे अधिक गौ-माता को नुकसान पहुंचाते हैं, इसको लेकर निचली से ऊपरी कोर्ट तक के तमाम आदेश आ चुके हैं, मगर पॉलिथीन आज तक बंद नहीं हो पाई है। इससे बाजार पटा पड़ा है तो नालियां और नाले चोक हो रहे हैं। योगी ने पदभार ग्रहण करते ही प्रदेश की सड़कों को गड्ढा मुक्त करने का बीड़ा उठाया था। अधिकारियों के समाने समय सीमा रखी गई थी, परंतु यूपी तो दूर आज तक राजधानी लखनऊ तक गड्ढा मुक्त नहीं हो पाई है। इसी प्रकार अतिक्रमण और जाम से भी जनता को छुटकारा नहीं मिल पाया है। अवैध निर्माण और नजूल की जमीन पर कब्जा दिन पर दिन पैर पसारता जा रहा है.
शेयर बाजार की तरह ‘चढ़ते-उतरते’ नौकरशाह
कहा जाता है कि शेयर, बाजार की चाल और नौकरशाही राजनीति की नब्ज बहुत जल्दी पकड लेते हैं. लम्बे अंतराल के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में भगवा का परचम फहराते ही नौकरशाही ने अपने आप को इसी रंग में रंगने में देर नहीं की. कोई ब्यूरोक्रेटस भगवा साड़ी में नजर आती तो किसी की कमीज का रंग बदल गया है। सीएम सचिवालय का रंग बदल कर भगवा किया गया तो अस्पतालों में हरे रंग की जगह भगवा ने ले ली. इसमें से काफी कुछ सरकारी आदेश पर किया गया तो नौकरशाही द्वारा सीएम योगी को खुश करने को लखनऊ के विधान भवन के सामने स्थित हज हाउस तक को भगवा रंग में रंग देने का कारनामा भी कर दिखाया गया,यह और बात थी कि हो-हल्ला होने के नौकरशाही ने ठेकेदार की गलती बता कर पूरे मामले से पल्ला झाड़ लिया. काफी किरकिरी के बाद प्रदेश सरकार ने हज समिति के कार्यालय को भगवा रंग से रंगवाने वाले सचिव आर0पी0 सिंह को हटाया तो जरूर लेकिन तब तक इस एक अधिकारी की हरकत से योगी सरकार को ‘नुकसान’ हो चुका था.
लेखक अजय कुमार यूपी के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.