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सियासत

मज़दूर क्रांति के ध्येय को समर्पित एक बुजुर्ग साथी द्वारा तैयार किया गया पर्चा… बहस के लिए

मूलाधार और अधिरचना में जाति-समस्या

भारत में जाति की समस्या कई दशकों से व्यापक चर्चा का विषय रही है। इस चर्चा में वामपंथी आंदोलन का भी हस्तक्षेप रहा है, खास कर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का। वामपंथी आन्दोलन में इस समस्या को लेकर एक लम्बे अरसे से विचार-मंथन चल रहा है।
एक सैद्धान्तिक आन्दोलन होने के चलते जब कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन ने इसमें हस्तक्षेप किया और इस विषय पर विचार-मंथन शुरू किया तब यह स्वाभाविक ही था कि विषय पर वह व्यापकता और गहराई में जाकर विचार-विमर्श करें तथा इसका सांगोपांग अध्ययन करें और समाधान प्रस्तुत करें।

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जाति-व्यवस्था की उपस्थिति और समस्या के अन्तर्वस्तु एवं स्वरूप पर वामपंथी आन्दोलन में काफी हद तक एकता है। आन्दोलन एकमत है कि जाति-व्यवस्था भारतीय समाज का यथार्थ है।

भारतीय इतिहास के खास कर ज्ञात इतिहास से लेकर भक्ति आन्दलोन तक के विचारकों तथा फुले, अम्बेडकर, पेरियार, लोहिया जैसे पुरोधाओं ने जाति-समस्या पर महत्वपूर्ण विमर्श किया और उसके उन्मूलन के लिए व्यावहारिक आन्दचोलनों को जन्म दिया। इन सभी का अवदान महत्वपूर्ण रहा है। लेकिन जाति-समस्या आज भी एक अभिशाप के तौर पर बनी हुई है और समाप्त होने का नाम नहीं ले रही है।
जाति-सतमस्या अधिरचना तक ही सीमित है या मूलाधार में भी धंसी हुई है, यह एक विवाद का विषय है।

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मूल समस्या पर विचार करने से पहले हम इस विषय पर अपनी राय रखेंगे कि यह भ्रम क्यों बना हुआ है कि मूलाधार से जाति की समस्या समाप्त हो गयी है और यह केवल अधिरचना तक ही सीमित है। इसके कुछ निश्चित कारण हैं।

1947 के बाद, कांग्रेस राज में आधा-अधूरा भूमि-सुधार सम्पन्न हुआ जिसमें बड़ा सामन्तवाद या ऊपरी स्तर का सामन्तवाद समाप्त प्राय हो गया। राजे-रजवाड़े, नवाबी-जागीरदारी, जमींदारी आदि समाप्त हुआ और राज्य तथा रैय्यत के बीच बिचौलियों की समाप्त हुई। यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इस परिवर्तन ने भारतीय समाज को प्रभावित किया और जाति व्यवस्था पर भी असर डाला।

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दूसरा कारण है, सार्विक मताधिकार। संविधान बनने के बाद और 1952 में हुए आम चुनाव के साथ बड़े पैमाने पर पहली पर नीचे से नीचे के तबके और जातियों के लोगों ने इसमें हिस्सेदारी की। यह हिस्सेदारी निर्विघ्न, निर्बाध और बाधाहीन नहीं थी। इसमें अनेक अड़चने डाली गयीं। फिर भी यह हिस्सेदारी एक के बाद एक आम चुनावों में बढ़ती गयी। कालांतर में बंगाल से लेकर पंजाब तक संविद सरकारें बनीं और कांग्रेसी हुकूमतें व्यवस्थापित हुई। चरण सिंह, कर्पूरी ठाकुर, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, मायावती, नीतीश कुमार आदि के आविर्भाव की जड़ें इसी प्रक्रिया में है। यह परिघटना देश के अन्य हिस्सों में भी घटित हुई।

यह हिस्सेदारी अकारण नहीं थी और यह आसमान से टपकी हुई चीज नहीं थी। 1947 के बाद जो सामाजिक प्रक्रिया चलती रही, उसी का यह परिणाम था। यह शासक एवं शोषक वर्गों द्वारा एक सुविचारित नीति और योजना के तहत हुआ और इसमें भी भारतीय समाज पर गहरा असर डाला।

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तीसरा कारण है आरक्षण। आरक्षण की नीति ने भी भारतीय समाज पर असर डाला है। भारतीय शासक एवं शोषक वर्गों द्वारा दलित जातियों को अपने में समाहित कर लेने की प्रक्रिया (एसीमिलेटरी प्रोसेस) की नीति अख्तियार की गयी। इसके तहत जाति-व्यवस्धथा के निचले पाये पर खड़े हुए लोगों को नौकरी, शिक्षा और राजनीतिक प्रक्रिया में आरक्षण देकर उस विशाल जन-समुदाय को अपने साथ रखने का प्रयास किया गया। यह नीति मुख्य रूप से शासक वर्गों द्वारा आयोजित और पोषित रही है।

जिस प्रकार अमेरिका में काले लोगों को मुख्य पूँजीवादी धारा में समाहित करने के बाद वहां काले लोगों के पूँजीवाद का आविर्भाव हुआ, उसी प्रकार भारत में दलितों और जाति व्यवस्था के निचले पायदान पर खड़े लोगों को शासक और शोषक वर्गों द्वारा अपनी धारा में समाहित कर लेने की प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप दलित पूँजीवाद पैदा हुआ है। यही आरक्षण की सीमा है। शासक वर्गों द्वारा किए गये सुधार मुख्यतः ब्राह्मवाद, मनुवाद, सामन्तवाद की रक्षा करते हैं।

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शासक वर्ग एक छोटे से मुखर तबके को अपने में समाहित कर लेता है और बहुलांश दलित आबादी को अभिशप्त जीवन जीने के लिए बाध्य कर देता ह।छ समाहचित कर लेने की चयह प्रक्रिया वर्ग संघर्ष का मार्ग प्रशस्त करने के बजाय उसे धुंधला करती है और जाति समस्या को हल करने के बजाय उसे जटिल बना देती है। जाति-व्यवस्था का मुकम्मिल समाधान ब्राह्मणवाद, मनुवाद, सामन्तवाद के समूल नाश में निहित है और यह सुधारों द्वारा सम्भव नहीं है।

इसके साथ-साथ अनेक ऐसे छोटे-बड़े फैसले किए गए तथा नीतियाँ बनाई गयीं, जिन्होंने भारतीय समाज पर असर डाला।

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ये सारे सुधार भारतीय समाज में चल रहे वर्ग-संघर्ष के परिणाम थे। 1947 के बाद भारतीय समाज में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निरन्तर वर्ग-संघर्ष चलता रहा है। समाजवादियों दवारा चलाये गये आन्दोलन, कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चलाये गये आन्दोलन और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन इसके उदाहरण के रूप में मुख्य रूप से गिनाये जा सकते हैं। निरन्तर चलने वाले इस वर्ग संघर्ष की मुख्यरूप से उल्लेखनीय घटनाएं हैं, तेलंगाना और नक्सलवाड़ी आन्दोलन। इन सभी चीजों के साथ मिलकर गांव और शहर तक प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से निरन्तर चलने वाला यह वर्ग-संघर्ष लोगों की चेतना को उन्नत करता रहा है।

इन सभी घटनाओं के योग ने ही भारतीय समाज में परिवर्तनों को जन्म दिया है। यहाँ पर हम इन परिवर्तनों को रेखांकित करने तक ही अपने को सीमित रख रहे हैं।

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शासक वर्षों द्वारा अपनायी गयी ये नीतियाँ, चाहे वह ऊपर से सामन्तवाद का उन्मूलन हो या सार्विक मताधिकार हो या आरक्षण हो, प्रतिक्रियावादी नीतियाँ रही हैं। और वर्तमान व्यवस्था के पायों को मजबूत किया है। ये नीतियाँ इस व्यवस्था के पायों को मजबूत करने के लिए ही लागू की गयी। मुख्य रूप से ये सुधार ही आज तक इस सड़ी-गली व्यवस्था को कायम रखने के मुख्य कारक रहे हैं। संक्षेप में कहें तो, इन परिवर्तनों की अलग-अलग समझदारी के फलस्वरूप ही भारतीय समाज के बारे में अलग-अलग चिन्तन और सोच पैदा हुई है।

सामन्तवाद के बारे में कुछ लोग कहते हैं कि यह मुख्यतः समाप्त हो गया है और इसके अवशेष मात्र ही बचे हैं। ऐसी सोच रखने वालों में आपस में मतभेद है कि अवशेष कितने हैं, ज्यादा या कम या अतिकम। लेकिन वे सामन्तवाद की समाप्ति के बारे में एकमत हैं। इसी के फलस्वरूप वे कम्युनिस्ट-क्रान्तिकारी आन्दोलन के भीतर यह विचार रखते हैं कि जाति-समस्या का अस्तित्व अधिरचना तक ही सीमित है और मूलाधार से समाप्त हो गया है। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि जाति की समस्या मूलाधार और अधिरचना दोनों में ही मौजूद है। फलतः यह विवाद और गोष्ठी।

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हमारा निश्चित और सुविचारित मत है कि जाति समस्या मूलाधार और अधिरचना दोनों में ही उपस्थित है।

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भारत में सामन्तवाद

भारत में सामन्तवाद दो स्तरों पर रहा है- बड़ा सामन्तवाद या ऊपरी स्तर का सामन्तवाद और छोटा सामन्तवाद या निचले स्तर पर व्याप्त सामन्तवाद। दोनों प्रकार के सामन्तवाद इतिहास के अलग-अलग कालखण्डों में पैदा हुए। बड़े सामन्तवाद का उद्भव प्राचीन भारत में ही हो गया था जबकि छोटे सामन्तवाद का उद्भव बाद में हुआ।

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छोटे सामन्तवाद का आविर्भाव और विकास उत्तरवर्ती प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक होता रहा और मुहम्म्द बिन तुगलक के समय में यह अपने उत्कर्ष पर पहुँचा। दाम्दर धर्मानन्द कोशाम्बी रामशरण शर्मा और इरफान हबीब जैसे इतिहासकारों की रचनाओं में छोटे सामन्तवाद की विस्तृत वर्णन किया गया है और बताया गया है कि इसका अविर्भाव किस तरह हुआ और यह कैसे फूला-फला और भारतीय सामन्तवाद का अविभाज्य अंग बन गया।

जमीदारी उन्मूलन और उसके बाद किया गया भूमि सुधार खास कर जमीन हदबंदी कानून और जमीन का बंटवारा यदि ठीक ढंग से हुआ होता तो छोटा सामन्तवाद भी समाप्त हो गया होता और इससे जुड़ी जाति-व्यवस्था की समस्या के सम धान का मार्ग प्रशस्त हो गया होता। ऐसा न होने से भारतीय परिदृश्य से छोटे सामन्तवाद का और इस तरह सामन्तवाद का उन्मूलन नहीं हो सकता और आज भी वह जमीनी हकीकत है। छोटा सामन्दवाद छोटा तो है लेकिन इसका विस्तार और गहराई ज्यादा है। समूचे भारत के लाखों गाँवों में इसकी उपस्थिति है। आज के जोतदार और भूस्वामी छोटे सामन्तवाद के वर्तमान रूप हैं और समाज के निचले से निचले स्तर पर अपना प्रभाव रखते हैं।

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भारत के विस्तृत फैले भू-भाग में और गाँवों में जार इसकी उपस्थिति को देखा जा सकता है, इसे समझा जा सकता है और इसे महसूस किया जा सकता है। इसके वजूद के बने रहते भारतीय सामन्तवाद का अस्तित्व मिटाना असम्भव है।

बड़ा सामन्तवाद ब्रिटिशकाल में ही अंग्रेजों के हाथों सैन्य और राजनीतिक शक्ति से वंचित कर दिया गया था। आजादी के बाद पूँजीपति वर्ग ने इसे आर्थिक शक्ति से भी वंचित कर दिया और इसका उन्मूलन हो गया। चूँकि यह पहले से ही सैन्य एवं राजनीतिक शक्ति से वंचित था, अतः इसका प्रतिरोध कमजोर था और यह पूँजीपति वर्ग का मुकाबला नहीं कर पाया तथा भारतीय परिदृश्य से यह मूलतः और मुख्यतः समाप्त हो गया लेकिन इसके अवशेष बचे रहे।

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बड़े सामन्तवाद की उपस्थिति उनको दिये जाजने वाले प्रिवी पर्स भत्ते, विशेषाधिकार आदि के रूप में बनी रही, जिसे 1971 में समाप्त कर दिया गया। इसके अलावा भूस्वामित्व, भवन, बगीचे, हीरे-जवहरात-जेवरात और अकूत धन सम्पत्ति के अन्य रूपों में भी बड़े सामन्तवाद की उपस्थिति बनी रही।

जाति की समस्या भारतीय सामन्तवाद से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। जाति-व्यवस्था की गहरी समझ के बिना भारतीय सामन्तवाद को नहीं समझा जा सकता है और इसका उन्मूलन नहीं किया जका सकता है।

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जन-जातियों की समस्या भारतीय सामन्तवाद को एक नया आयाम देती है और उसे मजबूत बनाती है तथा इसकी जटिलता को और अधिक बढ़ा देती है।

छोटे सामन्तवाद की मौजूदगी, मठ-मंदिरों, मस्जिदों-वक्फों, गिरिजाघरों, गुरुद्वारों आदिक की मौजूदगी और बड़े सामन्तवाद के अवशेष तथा जाति-समस्या में सब मिलकर आज भारतीय समाज में सामन्तवाद को एक मौलिक अन्तरविरोध बनाते हैं।

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सामन्तवाद एक उत्पादन प्रणाली है।छ कोचछई भी उत्पादन प्रछणाली समाज में मौजूद वर्गीय सम्बन्धों और समूचे मानवीय सम्बन्धों-आर्थिक, राजनीतिक, सामुजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक, मनोवैज्ञानिक- सभी को अपने में समेटे हुए होती है।

जाति-व्यवस्था और भूमि सुधार

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जाति-व्यवस्था का सीधा सम्बन्ध जमीन के मालिकाने से है। अफ्रीकी-अमरीकी लोगों की समस्या पर विचार करते हुए माओ ने कहा था कि मूलताः भूमि समस्या है। अफ्रीकी-अमेरिकियों की समस्या और भारत में दलित-समस्या, इन दोनों में जातियाँ जमीनों से वंचित रहती है और वे जाति-व्यवस्था के सबसे निचले पायदानों पर स्थिति है। सर्वण जातियों के पास ही जमीनों की मिल्कियत रही है और वे जाति व्यवस्था के ऊपरी पायदान पर स्थित हैं।

दलितों और छोटी जातियों की भारी आबादी जमीन से वंचित रही हैं। और आज भी भूमिहीन रही है। यह स्थिति केवल जाति-व्यवस्था के कारण बनी हुई है। यह किसानों की एकता को खण्डित करती है। किसान अलग-अलग जातियों के होने के कारण आपस में बँटे हुए हैं।
पूरे देश के पैमाने पर जमीनों का बड़ा हिस्सा ऊपरी जातियों के हाथों में हैं। यदि मुकम्मिल भूमि-सुधार किया गया होता तो यह निश्चित था कि दलितों और जाति व्यवस्था के निचले पायदानों पर खड़े अन्य जातियों के हाथों में जमीनें आतीं उनकी आर्थिक स्थिति सुधरती और जाति समस्या के समाधान का मार्ग प्रशस्त होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

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भूमि-सुधार के तहत जहाँ चीन में 43% ताइवान में 37% दक्षिण कोरिया में 32% तथा जापान में 33% खेती योग्य जमीनों का पुनर्बंटवारा किया गया था, वहीं भारत में भूमि सुधार के नाम पर केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा सम्मिलित रूप से 1995 तक के 35 सालों के प्रयास से कुल खेती योग्य जमीन का केवल 1.25% ही पुनर्वितरित हो पाया।

ये आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि भारत में मूलतः और मुख्यतः भूमि सुधार का काम पूरा नहीं हुआ। इसके परिणीम स्वरूपु निचले स्तर का छोटा सामन्तवाद बचा रहा। चूँकि भूमि सुधार मूलतः और मुख्यतः पूरा नहीं हुआ इसलिए ऊपरी जातियों के पास जमीनों का मालिकाना बना रहा और उनकी परजीविता भी बनी रही।

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जाति, जमीन और जनवाद

जाति की समस्या जमीन के साथ अन्योन्याश्रित रूप से जुड़ी हुई है।छ जमींदारी उन्मूलन और टीनेसी ऐक्ट लागू होने के बाद तथा अन्य कारणों के चलते कुछ मछध्य जातियों को जमीनें मिलीं और बाद में इनका एक तबका कुलक मध्यम किसान, धनी किसान और फार्मर के रूप में विकसित हुआ।

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जमीन की समस्या जनवाद के साथ जुड़ी हुई है। संविधान और भारत के सारे कानून मिलाकर भी जनता को जनवाद नहीं दिला पाते हैं। संविधान प्रदत्त राहत बहुत थोड़े से ही लोगों को प्राप्त होती है। आम जनता को राहत तो कानून-व्यवस्था देती है लेकिन भारत की कानून व्यवस्था औपनिवेशिक है जो जनता को उसके अधिकारों से वंचित करती है। जनता को जो भी अधिकार हासिल हैं उन्हें भोगा नहीं जा सकता क्योंकि राज्य का क्रमशः बढ़ता दमनात्मक चरित्र क्रूर से क्रूरतम होता चला गया है।

भूमि क्रांति को जनवादी क्रांति भी कहते हैं। भूमि क्रान्ति और जनवादी क्रान्ति एक दूसरे के पर्याय हैं। भारत में मूलतधः और मुख्यतः भूमि क्रांति या उग्र भूमि सुधार विफल रहा है। और जमीन के मालिकाने की समस्या आज भी बनी हुई है।

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बाँटने भर को काफी जमीनें मौजूद हैं। खेती योग्य पूरी जमीन, परती जमीन और बेकार पड़ी कृषि योग्य जमीन को सभी ग्रामीण परिवारों में बराबर-बराबर बाँट दिया जाय तो हर ग्रामीण परिवार को औसत 3.68 एकड़ जमीन उपलब्ध हो जाएगी। यदिनौकरी पेशा करने वाले लोगों, जिनकी खेती में कोई दिलचस्पी नहीं है, कि कुल 200 लाख एकड़ जमीन को भी वितरित कर दिया जाय तो खेती कनरे वाले परिवारों को उपलब्ध जमीन का औसत और बढ़ जाएगा। (Household ownership holding in india 2003, report no 491 (59/18.1.4) वार्षिक रिपोर्ट 1996-97 ग्रामीण विकास मंत्रालय भारत सरकार, land reform in india vol. 5.p.428186)।

जमीन के बंटवारे के बाद भारतीय किसान सहकारी खेती से कम्यून की यात्रा करता हुआ जनवादी क्रांति को सम्पन्न करेगा और समाजवादकी तरफ आगे बढ़ते हुए मुकम्मिल जनवाद हासिल करेगा। समाजवादी राज्य राष्ट्र के पैमाने पर जमीन का राष्ट्रकरण करेगा और प्राथमिकता क्रम में में जाति-व्यवस्था के सबसे नीचे के पाये पर खड़े लोगों को जमीन बाँटता हुआ क्रमशः ऊपर के गरीबों की तरफ जाएगा।
नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की उलट-पलट की एक सामाजिक प्रक्रिया ही भारत में जनवादी क्रान्ति को सम्पन्न कर सकती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यहां जातियों की समस्या मौजूद है। जमीन के बंटवारे के बाद सहकारियों से कम्यून की मात्रा में जनवादी क्रान्ति को मुकम्मिल करते हुए जाति –व्यवस्था के समूल उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त होगा।

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जाति समस्या को हल करने के लिए जमीन का मुकम्मिल बँटवारा अनिवार्य है। लेकिन इसके पहले से ही क्रान्तिकारियों को मूलाधार और अधिरचना पर एक ही साथ निरन्तर प्रहार जारी रखना होगा। इसके लिए शैक्षणिक-वैज्ञानिक-सांस्कृतिक स्तर पर यह संघर्ष करना तथा जमीनी स्तर पर जनवादी अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष करते रतहना जरूरी होगा।

जाति समस्या के मूलाधार में सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाने के बाद ही अधिरचना में मुकम्मिल रूप से इसके उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त होगा। इतिहास की सही समझ देकर, वैज्ञानिक शिक्षा प्रदान करके और मानवता के सही मूल्य पैदु करके इंसान-इंसान के बीच में सही रिश्ते कायम किये जा सकते हैं। इस प्रकार जाति-व्यवस्था को समूल नष्ट किया जा सकता है।

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समाजवादी राज्य के अन्तर्गत किसान सोवियत के प्रत्यक्ष नेतृत्व में जमीन का वितरण, नियमन, संबर्धन और को ऑपरेटिव तथा कम्यून का संचालन होगा। क्रांति अपने पूरे दौर में मूलाधार और अधिरचना पर प्रहार जारी रखेगी और संघर्ष के नये-नये रूपों को विकसित कर सामन्तवाद और जातिवाद के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर रूपों पर प्रहार करती रहेगी।

भारत में जाति की समस्या का समाधान समाजवाद की जमीन पर खड़ा हो कर ही किया जा सकता है। अन्य कोई भी जमीन मूलाधार और अधिरचना से इसकी समाप्ति नहीं कर सकती है।

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