Abhishek Srivastava : आज की गिरफ्तारियों के बहाने ”Urban Naxals” पर कुछ बातें… पिछले चार साल में एक ट्रेंड पर ध्यान दें। अगले एक साल की तस्वीर साफ़ होती दिखेगी। केंद्र की सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार ने पहले एक साल में छिटपुट मूर्खतापूर्ण बयानों और दुष्प्रचार की राजनीति जम कर की। याद करें, 2014-15 में गिरिजाघरों पर हमले की कई खबरें आईं जो ज्यादातर भ्रामक साबित हुईं।
इस बीच हिंदू राष्ट्र, दलित, कश्मीर, राम मंदिर, 370 और मुसलमानों को लेकर अंडबंड बयानबाज़ी हुई। यह पानी नापने का चरण था। अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं से जब अंदाज़ा लगा कि ईसाइयों के यहां पानी कम है और कश्ती डगमगा सकती है, तो तोप को शैक्षणिक परिसरों, मुसलमानों और दलितों की ओर घुमा दिया गया। दूसरा और तीसरा साल इन पर हमले का रहा।
दो साल में छात्रों, दलितों और मुसलमानों पर हमले का नतीजा यह हुआ कि इनके बीच एक एकता सी बनती दिखी। प्रतिक्रिया में दलित-मुस्लिम एकता, वाम-दलित एकता, बहुजन एकता जैसे नारे उछलने लगे। समाज तेज़ी से बंटा लेकिन बंटे हुए तबकों को तीन साल बीतते-बीतते समान दुश्मन की पहचान हो गई। गुजरात से कैराना के बीच छह माह में इसका चुनावी असर दिखा। तब जाकर पार्टी ने कोर्स करेक्शन किया। प्रधानजी ने हरी चादर ओढ़ ली और कश्मीर में इफ्तार करने चल दिए। इधर अध्यक्षजी ने 4000 लोगों को निजी संपर्क के लिए चुन लिया। इस बीच ईसाई भांप चुके थे कि संकट के इस क्षण में तोप उनकी तरफ वाकई घूम सकती है, लिहाजा असमय व बिना संदर्भ के आर्कबिशप का एक निंदा-बयान आया और खूब फला-फूला।
ज़ाहिर है, चौथे साल की शुरुआत में दलित, मुसलमान या ईसाई को छूना हाथ जलाने जैसा होता। नए दुश्मन की स़ख्त ज़रूरत आन पड़ी। एक ऐसा दुश्मन जो सर्वस्वीकार्य हो। जिससे वोट न बंटे, चुनाव न प्रभावित हो। जो लोकप्रिय विमर्श का हिस्सा भी बन सके। ध्यान दीजिए कि 2014 से लेकर इस साल की शुरुआत तक माओवाद के मोर्चे पर गहन शांति बनी रही। अचानक मार्च-अप्रैल के महीने से माओवादियों के हमलों और उन पर सैन्यबलों के हमलों की ख़बरें नियमित हो गईं। फिर एक बड़ा एनकाउंटर हुआ। कोई चालीस कथित माओवादी मारे गए। उसका छिटपुट प्रतिशोध भी हुआ। समस्या केवल यह थी कि सुदूर सुकमा या गढ़चिरौली में हो रही घटनाओं से लोकप्रिय जनधारणा को गढ़ना संभव नहीं था। इसे शहर केंद्रित होना था ताकि समाचार माध्यम उसे उठाएं और लोगों तक पहुंचाएं।
नए दुश्मन पर वैसे तो काम बहुत दिनों से चल रहा था लेकिन फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री ने बिलकुल सही समय पर इसकी एक थीसिस लिख दी- ”अरबन नक्सल्स”। किताब का लोकार्पण हफ्ते भर पहले हुआ, जमकर प्रचार किया गया और कल ही यह किताब दूसरे संस्करण के लिए प्रेस में चली गई। कल शाम ट्विटर पर किसी ने विवेक को लिखा- ”विवेक जी महाराष्ट्र में आज ही अर्बन नक्सली अरेस्ट हुये, आपकी किताब का यह शुभसंकेत है…” जिसके जवाब में लेखक ने लिखा- ”आगे आगे देखिए होता है क्या। श्री @rajnathsingh @HMOIndia ने बड़ी शांति से काफ़ी अच्छा काम किया है।” आज सुबह तक महाराष्ट्र और दिल्ली को मिलाकर कुल पांच गिरफ्तारियां हो गईं। विवेक अग्निहोत्री परसों हैदराबाद जा रहे हैं अपनी किताब लेकर। देश भर में घूमेंगे और ”अरबन नक्सल” का प्रचार करेंगे। टीवी चैनल देखिए, ”अरबन नक्सल” खूब चल पड़ा है।
विवेक ने 2014 में इस विषय पर ”बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम” फिल्म बनाई थी। ज़मीन पर फिल्म की स्क्रिप्ट अब रची जा रही है। यही उपयुक्त समय है। अब दलितों, मुसलमानों को नहीं मारा जाएगा। उससे चुनाव प्रभावित होगा। अब उन्हें सताया जाएगा जो वोट नहीं देते। जिनके वोट न देने से किसी को फ़र्क नहीं पड़ता। हां, इनकी पकड़-धकड़ से लोकप्रिय धारणा को ज़रूर भाजपा की ओर वापस मोड़ा जा सकेगा। और दिलचस्प तब होगा जब इन ”अरबन नक्सल” की गिरफ्तारियों के खिलाफ सामूहिक रूप से न मुसलमान बोलेगा, न दलित और न ही ओबीसी। किसी को नक्सल का सिम्पेथाइज़र होने का शौक नहीं चढ़ा है।
विवेक अग्निहोत्री ने ठीक लिखा है- ”आगे-आगे देखिए होता है क्या।” चुनाव तक भाजपा का अगला एक साल बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों, एक्टिविस्टों को समर्पित होगा। दो साल पहले जो ”अवार्ड वापसी गैंग” या ”टुकड़े-टुकड़े गैंग” वाला नैरेटिव रचा गया था, उसके जमीन पर उतरने का वक्त अब आया है। मानकर चलिए कि जनता इन गिरफ्तारियों के पक्ष में ही होगी। जो विरोध में होंगे, धीरे-धीरे एक-एक कर चुपाते जाएंगे। इस तरह मार्च 2019 तक दो अहम काम होंगे- पहला, शहरी नक्सल की धरपकड़ की आड़ में असली नक्सल को भविष्य के लिए बचाकर रखा जाएगा। दूसरा, मतदाता बनाम अमतदाता का एक फ़र्क परसेप्शन में पैदा कर दिया जाएगा। जो देश को प्यार करेगा, वो मतदान करेगा। मतदान नहीं करने वाला देशद्रोही होगा, भीतर होगा। और देश मने? ज़ाहिर है…!
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सोनिया गांधी ने अपने बेटे से कभी कहा था- सत्ता ज़हर है। वे यह बताना भूल गई थीं कि अपना पैदा किया ज़हर कभी खुद भी पीना पड़ सकता है। कांग्रेस के दिन याद करिए। 2004 से 2014 के बीच कौन-कौन नक्सल के नाम पर धरा गया था? एक समय ऐसी स्थिति आ गई थी कि माओवाद पर एक अदद लेख दैनिक भास्कर में छपा तो गृहमंत्री चिदंबरम ने संपादक को तलब कर लिया। संपादक लोट गए, तो उन्हें राष्ट्रीय एकता परिषद का सदस्य बना दिया गया।
खैर, दस साल के राज में कांग्रेस ने जैसा नक्सल-नक्सल खेला, कि हम लोग इसका बाकायदे सूत्रीकरण करने लगे थे कि अगर आप असहमत हिंदू हैं तो सरकार के लिए नक्सल हैं। अगर आप असहमत मुसलमान हैं तो सरकार के लिए आतंकवादी हैं। दिल्ली, हरियाणा, उत्तराखंड, यूपी, पंजाब में वाम राजनीतिक कार्यकर्ताओं का जीना मुहाल हो गया था। गिरफ्तारी की छोडि़ए, हेम पांडे को भूल गए हों तो याद कर लीजिए। अखबार में लिखता था। मार दिया गया। प्रशांत राही को याद करिए, सीमा आज़ाद को याद करिए। अजय टीजी को याद करिए। बहुत से नाम तो लोग जानते तक नहीं हैं। यहीं दिल्ली के मामूली लोग हैं, जिन्हें कितने साल यूपीए के दौर में डर के साये में जीना पड़ा था। डॉक्टर, पत्रकार, फिल्मकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता, शिक्षक, छात्र… ऐसे दो दर्जन नाम यहीं के गिनवा दूंगा।
बस, समय का फेरा है। एक अदद चिट्ठी जो फि़ज़ां में कल से घूम रही हैं, एक महान विडंबना रच रही है। कांग्रेस को नक्सल का फंडर बता रही है। जिस कांग्रेस ने सिद्धार्थ शंकर रे से लेकर चिदंबरम के राज तक वाम राजनीति को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया, उसे आज नक्सलियों का यार बताया जा रहा है। ये दिमाग बीजेपी का नहीं है। कांग्रेस से उधार लिया है।
कांग्रेस ने जो बोया है, वही अब काट रही है। कांग्रेस चाह कर भी बीजेपी को नक्सलियों के नाम पर नहीं फंसा सकती थी। दोनों तीरघाट मीरघाट हैं। इसलिए उसने ”भगवा आतंक” को हवा दी। आज राज बदला है तो ”शहरी नक्सल” आ गया है। यकीन मानिए, कांग्रेस और बीजेपी की इस घिनौनी लड़ाई में ठीकठाक लोग पिस जा रहे हैं। कल जो गिरफ्तार हुए हैं, वे केवल मोहरा हैं। निशाना राहुल गांधी पर है। सम्बित पात्रा को ध्यान से सुनिए- भीमा कोरेगांव हिंसा की एफआइआर के आधार पर गिरफ्तार लोगों का जवाब वे राहुल गांधी से मांग रहे हैं। अब क्या करेगी कांग्रेस?
कांग्रेस के पास कोई नैतिक बल नहीं है इस लड़ाई को लड़ने का। वो क्या कहेगी? कि हमने तो जी नक्सलियों को इतना मारा है, फिर हम कैसे यार हुए उनके? ये नहीं कह सकती। मजबूरी वाला सारा सपोर्ट बेस जो चार साल में बना है उसका, एक झटके में चला जाएगा। तो क्या गिरफ्तार हुए लोग या उनके साथी बताएंगे कि उनका कांग्रेस से कनेक्शन नहीं है, चिट्ठी झूठी है? ये भी संभव नहीं है। चिट्ठी तो है। सामने है। टीवी चैनल से चलकर भाजपा की प्रेस कॉन्फ्रेंस तक आई है। परसेप्शन बना चुकी है। तो क्या करेंगे ये लोग? चुप रहेंगे। न्यायिक प्रक्रिया पर यकीन बनाए रखेंगे और अपनी बारी का इंत़जार करेंगे।
मैंने कल कहा था कि इस घटना से राष्ट्रीय राजनीति का नैरेटिव निर्णायक रूप से बदलने वाला है। यकीन मानिए, कांग्रेस हिंदुत्व/राष्ट्रवाद आदि का काउंटर-नैरेटिव फिर भी गढ़ सकती थी, नक्सल कनेक्शन का तोड़ नहीं खोज सकती। राहुल के मुंह खोलने से पहले ही कांग्रेस यह लड़ाई हार चुकी है।
मो. खलील की मर्मस्पर्शी आवाज़ में मौके पर एक गीत याद आया है- “अंगुरी में डसले बिया नगिनिया हे ए ननदो, दीया ना जरा दा… दीया ना जरा दा अपने भइया के जगा दा… राती राती उठतिया लहरिया हे ए ननदो… दीया ना जरा दा…!”
पत्रकार, अनुवादक और एक्टिविस्ट अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.