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‘तितली’ के बहाने आभासी दुनिया के मित्र पंकज सोनी से वास्तविक मुलाकात हुई

तितली : फ़ायदे की उड़ान… सिवनी, मप्र। इंसान का मन तितली की तरह चंचल होता है। और यह पुरूष का हो तो कई बार तितली के पंख कुंठित यौनेच्छाओं से लिपटे होते हैं और बार-बार फ्रायड के कथन को बगैर जरूरत साबित करने पर आमादा होते हैं। पुरुष को किसी लड़की के चरित्रहीन होने में दिलचस्पी सिर्फ इस बात पर होती है कि चरित्र के सन्देह का लाभ उसके अपने खाते में जाए। इससे ज्यादा चरित्रहीनता वह अफोर्ड नहीं कर सकता और लाभांश नहीं मिलने पर वह थोपे गए आरोपों के मूलधन में किसी काईंयाँ बनिए की तरह सूद पर सूद लगाता जाता है। वैसे परिवार में वह भला-मानुस बना रहता है और मौका लग जाए तो नजर बचाकर थोड़ी-बहुत “फ्री-लान्सिंग” भी कर लेता है।

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तितली : फ़ायदे की उड़ान… सिवनी, मप्र। इंसान का मन तितली की तरह चंचल होता है। और यह पुरूष का हो तो कई बार तितली के पंख कुंठित यौनेच्छाओं से लिपटे होते हैं और बार-बार फ्रायड के कथन को बगैर जरूरत साबित करने पर आमादा होते हैं। पुरुष को किसी लड़की के चरित्रहीन होने में दिलचस्पी सिर्फ इस बात पर होती है कि चरित्र के सन्देह का लाभ उसके अपने खाते में जाए। इससे ज्यादा चरित्रहीनता वह अफोर्ड नहीं कर सकता और लाभांश नहीं मिलने पर वह थोपे गए आरोपों के मूलधन में किसी काईंयाँ बनिए की तरह सूद पर सूद लगाता जाता है। वैसे परिवार में वह भला-मानुस बना रहता है और मौका लग जाए तो नजर बचाकर थोड़ी-बहुत “फ्री-लान्सिंग” भी कर लेता है।

कल नाटक ‘तितली’ के बहाने आभासी दुनिया के मित्र पंकज सोनी से वास्तविक मुलाकात हुई। नाटक की कथावस्तु कस्बाई परिवेश के लिहाज से ‘बोल्ड’ है। खासतौर पर छोटी जगहों में महिला पात्रों का मिल पाना थोडा मुश्किल होता है और मिल भी जाएँ तो वे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका करना ही पसन्द करती हैं क्योंकि ‘मम्मी-पापा’ का सख्त निर्देश यही होता है।

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नाटक में काम करने की छूट मिलती ही इसी शर्त पर है। इसलिए  नाटक की सफलता के लिए पहले सेल्यूट का हक उस परिवार का बनता है, जिसने अपनी प्रतिभाशाली बच्ची के परों को कतरने से बचाए रखा। बड़े शहरों के उन नाटककारों के लिए जो अपने नाटकों में ‘बोल्ड’ सीन की तलाश में रहते हैं, इस स्क्रिप्ट में खासी संभावनाएं हैं। वे बड़ी आसानी से इस भले नाटक का सत्यानास कर सकते हैं।

निर्देशक सचिन इसी बात पर सहमे हुए थे। कस्बे का निर्देशक गुडबॉय होता है और वे बार -बार संकोच के साथ पूछते हैं, मैंने बोल्ड और अश्लील के बीच वाली महीन लकीर को काटा तो नहीं? मैं उन्हें आश्वस्त करता हूँ कि “भाई साहब! हमारी भोली-भाली जनता रोज टीवी पर जो शीलवान विज्ञापन बड़ी रूचि के साथ सपरिवार ग्रहण करती है, उनकी तुलना में आप कहाँ टिकते कहाँ हैं?”  वे खुश होते हैं कि उनका नाम बदनाम निर्देशक की सूची में आते-आते रह गया।

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मित्र रोहित रूसिया भी थे। अच्छे चित्रकार और फोटोग्राफर तो हैं ही, गला भी बड़ा सुरीला है। पार्श्व में बतौर सेट उनकी पेंटिंग्स लगी थी। मित्र हनुमन्त किशोर ने झाड़ लगाई कि रोहित की सॉफ्ट पेंटिंग नाटक के कथानक से मेल नहीं खाती। पिकासो वगैरह की होनी चाहिए थी। रोहित ने संकोच के साथ इस तथ्य को स्वीकार किया। उनके संकोच का लाभ उठाते हुए मैंने और भाई हनुमन्त ने एक-एक पेंटिंग हथिया ली और यही नाटक का सबसे उम्दा दृश्य रहा जो नाटक के बाद खेला गया!

लेखक दिनेश चौधरी थिएटर एक्टिविस्ट हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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