सौमित्र रॉय-
आज विश्व प्रेस फ्रीडम डे है। मुझे सुबह का दैनिक भास्कर पढ़कर हैरानी हुई कि 9वें पन्ने में एक गुमनाम संपादकीय के रूप में इस पर बेहद लचर खानापूर्ति की गई है।
पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देश के तौर पर वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 142वें स्थान पर खड़े भारत की भयावह तस्वीर शायद अब किसी को बेचैन नहीं करता।
ये बेशर्मी मालिकान और संपादकों दोनों की तरफ से है। दोनों के बीच आजकल दलाली का गहरा रिश्ता है।
आज मौका था अपने गिरेबां में झांकने का। आगे की दिशा के बारे में सोचने का।
एमपी, यूपी जैसे हिंदी गोबर पट्टी के राज्यों में जिस तरह संपादकों ने मालिकान की ख़ातिर हुकूमत और सिस्टम के आगे घुटने टेके हैं, वह हाल के एग्जिट पोल में खुलकर सामने आया है।
कोविड के काल में सिर्फ मानवता ही नहीं, प्रेस की आज़ादी भी धीमी मौत मर रही है।
Prakash k ray-
हिंदी टीवी/प्रिंट मीडिया के लेटे/झुके हुए संपादकों, एंकरों, चतुर स्पिन जगलरों और थर्ड रेट ऑप-एड कॉलमनिस्टों को वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम डे की शुभकामनाएँ. जल्दी स्वस्थ हों.
Dinesh pathak-
प्रेस को स्वतंत्रता चाहिए तो सब एक हों। अखबारों के दाम बढ़ें। टीवी न्यूज चैनल्स भी भुगतान लें। शुरू में तनिक दिक्कत होगी, पर थोड़ी सी आजादी महसूस करेंगे। मुँहदेखी नहीं करनी पड़ेगी। सच बोल, लिख पाएँगे। अन्यथा, दुनिया में हमारी रैंक 142वीं है ही।
ममता मल्हार-
जिन पत्रकारों का दिल दिमाग, जमीर,ईमान आजाद है। जो अभी भी मीडिया के कर्मी नहीं खुद को कलमकार कहते हैं। ऐसे सभी पत्रकारों को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की बधाई। गिनती के ही सही पर असल पत्रकार तो यही हैं। बाकी गुलमटे पत्रकारों को उनकी गुलामी मुबारक।
खुद के लिये जबतक बोलना, खड़े होना शुरु नहीं करते आप गुलाम ही कहलाते हैं। हक लेने की ताकत पैदा करो खुद के भीतर।
सुभाष त्रिपाठी-
पत्रकारिता पर भारी संकट है।हर कोई केवल वाहवाही चाहता है अगर किसी ने सच छाप दिया तो मुश्किल। एकजुटता साहस बेहद जरूरी है।आओ सब साथ साथ चलें।। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की बहुत बहुत बधाई।
दिलीप खान-
शाम ढल रही है. विश्व प्रेस फ़्रीडम डे की तुरही दोपहर बाद ही शांत पड़ गई थी. सबको पता है कि भारत का मीडिया अपने बदतरीन काल से गुज़र रहा है. इसमें बाक़ी कुछ बचा हो या न बचा हो, लेकिन फ़्रीडम सिर्फ़ एक बात की बची है. वह है- नरेन्द्र मोदी और उनके एजेंडे का प्रचार.
फ़ेसबुक मेमोरी ने आज दो ख़बरों की याद दिलाई. 2015 में इन्हीं दिनों नेपाल भीषण भूकंप की त्रासदी झेल रहा था. दुनिया के तमाम देशों ने नेपाल की मदद की. भारत भी उनमें एक था. काठमांडू में ब्यूरो-विहीन भारतीय टीवी मीडिया अपने कई सितारे ऐंकर्स के साथ वहां पहुंच गया. दो-चार दिन तो नेपालियों ने इन्हें झेला, लेकिन उसके बाद भारतीय टीवी पत्रकारों को देखते ही दौड़ाने लगे.
नेपालियों के लिए भूकंप जैसी भीषण त्रासदी से ज़्यादा मुश्किल हो गया था इन पत्रकारों को झेलना. ये लोग दिन-रात किसी भी नेपाली के मुंह के सामने माइक तानकर भारत द्वारा भेजी गई मदद के बहाने मोदी का जयकारा लगवाने लगते थे. नेपालियों ने ‘इंडियन मीडिया गो बैक’ का नारा लगा दिया. बाक़ायदा धरना दे दिया. मैंने सुना कि कुछ रिपोर्टरों को थप्पड़ भी पड़े थे.
तब से अब तक का सिलसिला देख लीजिए. ये टीवी वाले जिस भी त्रासदी, जिस भी आंदोलन, जिस भी प्रदर्शन को कवर करने जाते हैं, वहीं के लोग इन्हें दौड़ाना शुरू कर देते हैं. वजह साफ़ है. ये लोग उनकी पीड़ा का उपहास उड़ाते हैं. वहां मोदी का जयकारा लगवाना चाहते हैं. कश्मीर में 370 के बाद टीवी वाले कहीं आ-जा नहीं रहे थे. ‘जान का ख़तरा’ था. क्यों था भाई? CNN, BBC, अल-जज़ीरा को तो नहीं था. तुम्हें ही क्यों था?
किसान आंदोलन शुरू हुआ तो टीवी वाले किसानों के बीच जाने से पहले माइक आईडी खोलने लगे. मार का डर बैठ गया था.
दूसरी ख़बर फ़ेसबुक मेमोरी में दिखी. वह भी नेपाल भूकंप से ही जुड़ा है. दैनिक भास्कर नामक अख़बार ने दो छोटे बच्चों की तस्वीर पहले पन्ने पर छाप कर एक भावुक विवरण लिखा था. विवरण कुछ ऐसा था कि दोनों यतीम हो गए और वायुसेना की कोई अधिकारी जब उनसे मिली तो उन बच्चों ने उन्हें कितनी दारुण कथा सुनाई. पूरा नैरेशन छापा गया था.
यह पूरी तरह झूठ था. न तो वह तस्वीर नेपाल की थी और न ही वह 2015 की तस्वीर थी. वह कई साल पुरानी वियतनामी बच्चों की तस्वीर थी. ज़ाहिर है विवरण भी ग़लत था. यानी भास्कर ने कहानी गढ़ ली. भावुकता और पीड़ा को झूठी कहानी बनाकर बेच दिया.
अभी कुछ दिन पहले भास्कर ने यही काम किया. नागपुर से एक ख़बर छापी कि कैसे एक बुज़ुर्ग ने अपना बिस्तर किसी युवक के लिए क़ुर्बान कर दिया. यह पूरी तरह झूठी स्टोरी थी, जो देखते-देखते वायरल हो गई. संघियों ने उस बुज़ुर्ग पर अपना क्लेम ठोक दिया.
कोई भी पत्रकार पहली नज़र में ही उस स्टोरी को पढ़कर समझ सकता था कि यह नकली है. उसमें न कोई क़ोट था, न बाईलाइन, न ही मरीज़ों का ज़रूरत के मुताबिक़ विवरण. बाद में भास्कर की यह कहानी भी झूठी निकली.
तो, यह है फ्रीडम कथा. पुरानी कहानियां याद दिलाईं हैं. ताज़ा तो आप देख ही रहे हैं.
डॉ चंदन शर्मा-
आज भी सरकार पत्रकारों को फ्रंट लाइन वॉरियर नहीं मान रही है। चंद राज्यों ने अब जाकर वैक्सीनेशन के लिए पहल की है। यह तब है जबकि हर दिन पत्रकार कोरोना से बेमौत मर रहे हैं।
……
3 मई, वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे। दुनियाभर में प्रेस की स्वतंत्रता और पत्रकारों की सुरक्षा तय कराने में अपना देश नीचे की ओर ही जा रहा है। कितना आसान है खबर रुकवा देना, केस करवा देना, हत्या करा देना, नौकरी से हटवा देना…! वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 142वें नंबर पर है। जरा सोचिए, कौन जिम्मेवार है? पत्रकारिता को रसातल में ले जाने के जिम्मेवार हम खुद भी हैं। सत्ता, सरकार व उद्योग तो अपने हित की बात कल भी सोचते थे, कल भी सोचेंगे। उनका जर्नलिज्म के एथिक्स से क्या सरोकार? चिंता तो हम पेशेवर पत्रकार को ही करनी होगी। छोटे-छोटे लाभ के लिए जम़ीर से समझौता…एक-दूसरे की टांग खिंचाई। पत्रकार होना पार्टी होना नहीं है, सवाल पूछना है। सही के साथ खड़े रहना है। एका में कमी का लाभ किसे मिल रहा? हम खुद से सवाल पूछते हैं न सिस्टम से, न सरकार से। अध्ययन-मनन भूल चूके हैं। ज्ञान विहीन, रीढ़ विहीन पत्रकारों की फौज बढ़ती जा रही है। यह न देश हित में है न समाज के। समाज को आईना बाद में दिखाएं, पहले खुद को दिखाएं। सच बोलने का, स्वीकार करने का हौसला जिंदा रखें। शायद आनेवाले सालों में पत्रकारिता का स्तर थोड़ा ऊपर उठे।
वेवकूफ
May 4, 2021 at 3:35 pm
मोदी को पानी पी पी कर रोजाना इतनी गालियाँ देते हो फिर भी कहते हो की स्वतंत्रता नहीं ?