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साहित्य

मंगलेश डबराल धुत हो कर अशोक वाजपेयी की बेटी से बोले- तुम अपने पिता की तरह मत बनना!

विनोद भारद्वाज-

यादनामा : अशोक वाजपेयी पर मेरी इस शैली में संस्मरण लिखना आसान नहीं है। बरसों पहले उनकी किसी किताब के फ़्लैप में उन्हें विवादास्पद संस्कृतिकर्मी बताया गया था। मेरा प्रकाशक मुझे विवादास्पद संस्मरणकार बताए, तो हैरानी नहीं। पर अशोक वाजपेयी पर भविष्य में कोई ईमानदारी से जीवनी लिखे, तो वह एक बड़ी उपलब्धि होगी। वैसे हिंदी में एक बढ़िया और काफ़ी हद तक सच्ची जीवनी लिखना एक बड़ी चुनौती भी है।

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आप में से बहुतों को हैरानी हो सकती है कि मैं 18 साल की उम्र से अशोक वाजपेयी को जानता हूँ-और यह कोई उड़ता हुआ परिचय नहीं था। वह सीधी में कलेक्टर थे-और मैं अपने समय की चर्चित लघु पत्रिका आरम्भ का एक संपादक। नरेश सक्सेना, जयकृष्ण दो अन्य संपादक थे-वे मुझ जैसे छोकरे से ज़्यादा अनुभवी थे।

अशोक वाजपेयी ने उन दिनों सीधी से मुझे कई लंबे पत्र लिखे थे जिन्हें अन्य कई नामी लेखकों के पत्रों के साथ बाद में मैंने एक किताब में छपवा भी दिया।किताब नामवर सिंह, कुँवर नारायण, जयकृष्ण ने रिलीज़ की थी।अशोक जी दिल्ली में थे नहीं।उन दिनों वह ललित कला अकादमी के अध्यक्ष थे।उस भव्य कमरे में मैं एक ही बार गया था।उन्हें बस यह किताब देने।उन पत्रों को शायद वह भूल चुके थे। वह बहुत हैरान हुए।कभी-कभार में उन्होंने उस किताब पर लिखा भी।दूधनाथ सिंह ने किताब में अपने ख़तों को याद कर के फ़ोन पर मुझसे एक घंटे तक बात की थी। हाल में प्रकाशित धूमिल ग्रंथावली में धूमिल की क़रीब साठ के आसपास चिट्ठियाँ संकलित हैं, जिनमें से 29 मेरे नाम है। पत्र लेखन की वह दुनिया अलग थी।

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अशोक जी के इन पत्रों में आरम्भ के अंकों की सिर्फ़ तारीफ़ नहीं थी।अपनी आलोचनात्मक राय भी वह खूब देते थे।उन्होंने आरम्भ में लिखा भी। कविता नहीं, आलोचना।

बाद में मैंने जब दिनमान की नौकरी शुरू की,तो वह भोपाल आ चुके थे।एक बार जब वह दिल्ली आए,तो मैंने उन्हें बॉम्बे में ट्रेनिंग के दौरान निकाला अपना अख़बार प्रशिक्षण टाइम्स दिखाया।उसमें मैंने गुंटर ग्रास की कविताओं के ख़ुद के किए अनुवाद,विचारक एलियास कानेटी की भीड़ के मनोविज्ञान (क्राउड एंड पॉवर)पर टिप्पणी छापी थी।सब कुछ मैंने ख़ुद ही लिखा था। अशोक जी उस अख़बार को अपने साथ ले गए।

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भोपाल में भारत भवन तो बहुत बाद में बना,पर मध्यप्रदेश कला परिषद की गतिविधियाँ 1974 के आसपास महत्वपूर्ण हो गयीं।उत्सव कार्यक्रम भोपाल से बाहर होते थे।उज्जैन में उत्सव कार्यक्रम में मेरे लिए शमशेर ,रघुवीर सहाय के साथ मंच पर कविता पढ़ना छोटी बात नहीं थी।रीवा में नरेश मेहता थे और बिलासपुर में श्रीकांत वर्मा,सौमित्र मोहन।मध्यप्रदेश घूमने का मौक़ा भी मिला।क्यूँकि मैं साहित्य,फ़िल्म और कला इन तीन दुनियाओं में खूब सक्रिय था इसलिए बीसियों पुरस्कारों में मैं निर्णायक मंडल में रहा।बाद में मध्यप्रदेश फ़िल्म विकास निगम में श्रीराम तिवारी ने लगभग हर कार्यक्रम में बुलाया।जहन्नुमा पैलेस होटेल में श्याम बेनेगल,बासु भट्टाचार्य ,बासु चटर्जी और मनोहर श्याम जोशी के साथ फ़िल्म निर्णायक मंडल की बैठकों में मैंने खूब समय बिताया।बेनेगल प्रसंग के दौरान कभी-कभी शाम को अशोक वाजपेयी भी होटल आ जाते थे।

भारत भवन में भोपाल गैस कांड के बाद नए साल में आयोजित होने वाला विश्व कविता सम्मेलन काफ़ी आलोचना का विषय बन गया था।कुछ कवियों ने इस कार्यक्रम का बहिष्कार करने की माँग की।मैंने भी उस वक्तव्य पर दस्तख़त किए थे।पर मुझे दिनमान ने कवरेज के लिए भोपाल भेजा।उन दिनों अशोक जी की इस टिप्पणी से उनकी बहुत आलोचना हुई थी कि मरे हुओं के साथ मर नहीं जाया जाता।मैंने हंगरी के कवि आटो ओरबान का दिनमान के लिए इंटर्व्यू किया।उनका कहना था जो कवि प्रोटेस्ट कर रहे हैं वे ग़लत हैं।हमारा कविता पाठ गैस पीड़ितों के समर्थन में है।पत्रकार के रूप में मैं निजी विचारों को पाठकों पर थोपने की कोशिश नहीं करता था।

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मेरा जन्म लखनऊ में हुआ था,पर मेरे प्रदेश ने मेरे लिए कुछ नहीं किया।हिंदी का गढ़ था उत्तर प्रदेश पर अशोक वाजपेयी ने उसे समकालीन कविता का प्रदेश बना दिया।उत्सव के कार्यक्रमों की कोई आज सूची बनायी जाए,तो शामिल होने वाले कवियों की सूची शोध के लायक़ होगी।मेरे वरिष्ठ मित्र प्रयाग शुक्ल हँस कर कहा करते थे,अशोक का बस चले,तो मध्यप्रदेश के हर घर की छत पर एक कवि बैठा दे।1980 में हर प्रकाशक कवि खोज रहा था,बीस प्रतिशत की अग्रिम धनराशि हाथ में लिए।मध्यप्रदेश में अशोक वाजपेयी की नई स्कीम के तहत विष्णु खरे के संपादन में एक नए प्रकाशक ने असद ज़ैदी का बहनें और मेरा संग्रह जलता मकान छापा था ।
मध्यप्रदेश ने बहुत कुछ किया,उसका मुख्य कारण अशोक वाजपेयी की ज़बरदस्त कल्चरल सक्रियता भी थी।मैं किसी भी आदरणीय को देवता नहीं मानता।कुँवर नारायण इस पहचान के शायद सबसे नज़दीक थे पर उन्हें भी मैं देवता नहीं मानता।कहने का अर्थ यह है कि अशोक जी को भी देवता बनाने की ज़रूरत नहीं है।

मेरा छोटा-सा कविता संग्रह पीछा और अन्य कविताएँ पूर्वग्रह के साथ पहले-पहल की दूसरी पुस्तिका थी।मंगलेश जी तब पूर्वग्रह में थे। वह भी ज़ोर दे कर मुझसे काफ़ी लिखवा लेते थे।कुँवर नारायण का मेरे साथ एतिहासिक लंबा इंटर्व्यू पूर्वग्रह में ही छपा था।

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मैं मंगलेश डबराल के जीवन काल में एक बहुत ग़ैर-खुशामदी संस्मरण लिख चुका हूँ। वह मेरे प्रिय मित्र थे। मंगलेश जी भोपाल के दिनों में एक कवयित्री पर फ़िदा थे। उन्होंने मुझसे कहा,अशोक जी उसका शोषण (बड़ा जटिल शब्द है) करते रहे हैं। मैंने उनके क़िस्से को उन्हीं के मुख से पूरा सुन रखा था।मैंने उनसे हँस कर कहा, उसका शोषण तो आप भी कर रहे है, फिर अशोक जी को दोष क्यूँ दे रहे हैं। एक बार दिल्ली में अशोक जी के जन्मदिन की पार्टी में मंगलेश धुत हो कर अशोक जी की बेटी से बोले, तुम अपने पिता की तरह मत बनना। ज़ाहिर है कि कोई भी बेटी अपने पिता के बारे में यह सब सुनना नहीं चाहेगी। बाद के सालों में मंगलेश ने अशोक जी की आलोचना बिलकुल बंद कर दी थी। बल्कि वह उनके प्रशंसक हो गए थे।

पाब्लो नेरुदा अपनी आत्मकथा में अपने सेक्स जीवन के कुछ कवि के आत्म स्वीकार कर के फँस चुके हैं। सांतियागो (चिली की राजधानी) में हवाई अड्डा उनके नाम से रखने का एक अच्छा प्रस्ताव था पर मी टू आंदोलन के शोर में नेरुदा पर कई आरोप लगाए गए और प्रस्ताव काग़ज़ों में ही दबा रह गया। कवि (कवयित्रियों को भी शामिल कर के) बुनियादी रूप से आवारा होते हैं। उनकी आवारगी को कुछ छूट मिलनी चाहिए।

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एक बार कादंबिनी के संपादक मेरे पुराने मित्र विष्णु नागर ने मुझसे कभी-कभी लिखवाना शुरू किया। आर्ट अलाइव गैलरी ने रज़ा पर अशोक वाजपेयी की अंग्रेज़ी में एक बड़ी और महँगी किताब छापी थी। मैंने विष्णु नागर से उस किताब पर लिखने की बात की। वह बोले, ठीक है आप लिखिए।मेरा लेख छपा,मैंने उसे पढ़ा भी नहीं। कभी-कभार कॉलम में मेरा नाम लिए बिना अशोक वाजपेयी ने लिखा कि रिव्यू कॉपी न मिलने के कारण मैंने अपनी समीक्षा से उनका यानी किताब के लेखक का नाम ही हटा दिया। यह बिलकुल सच नहीं था।मैंने अपने हाथ की लिखी कॉपी देखी।बाक़ायदा उनका नाम था।मैंने विष्णु नागर को फ़ोन किया। उनका छोटा-सा जवाब मैं आज भी समझ नहीं पाया हूँ। बस,मेरा जाने क्यूँ मन किया,मैंने लेखक का नाम काट दिया।अशोक वाजपेयी ने अपने कॉलम में भूल सुधार किया कि संपादक ने लेखक का नाम काटा दिया था।

मुझे कई बार दोस्तों से यह सुनना पड़ता है लगता है आप अब अशोक जी की गुड बुक में नहीं हैं। अब मुझे पता नहीं कि गुड बुक में होना क्या होता है पर दो साल पहले धूमीमल गैलरी के लिए जब मैं स्वामीनाथन पर एक फ़िल्म बना रहा था,तो उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे पूरा सहयोग दिया। अपने कॉमेंट किए, हिंदी में स्वामी पर अपनी कविता पढ़ी और स्वामी पर लिखी आक्तेवियो पाज की अद्भुत कविता का अंग्रेज़ी में पाठ भी किया। धूमीमल का रज़ा को ले कर एक विवाद हो गया था।पर उन्होंने सहयोग देने से कहीं इंकार नहीं किया।फ़िल्म देखने मेरे घर आए, और वहीं उन्होंने कहा, रज़ा फ़ाउंडेशन स्वामी के जन्मदिन पर इस फ़िल्म का प्रीमीयर शो करेगा। इसके पीछे स्वामी के प्रति उनका गहरा आदर भाव था। भारत भवन के पीछे अशोक वाजपेयी,स्वामी और कारंथ ये तीन नाम थे।पेरिस में ऐसा कोई महान संग्रह बनता, तो सरकारें बदलतीं, पर संग्रह की भारत सरीखी दुर्दशा कभी न होती।

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बरसों पहले उदय प्रकाश अशोक जी को शास्त्री भवन से ले कर मेरे घर उनका एक इंटर्व्यू लेने आए थे।साथ में तत्व चिंतन के लिए बोतल भी थी।एक जगह मदन सोनी की भाषा पर मैंने कुछ कह दिया।अशोक जी भड़क गए,बोले,वह भाषा नवभारत टाइम्स की नहीं है।मैं तब वहाँ काम करता था।पर यह बातचीत कभी कहीं छपी नहीं।

सहमति तो मेरी अपने सबसे निकट मित्र विष्णु खरे से भी नहीं रहती थी।वह कम ख़ुराफ़ाती नहीं थे।कुछ साल पहले मुझसे बोले,अरे भई अशोक तो इस काम के लिए तुम्हारा नाम भी नहीं लेना चाह रहा था।विष्णु जी अशोक वाजपेयी के बहुत शुरू के दोस्त थे।मैंने हँस कर कहा,कोई बात नहीं खरे साहेब।हर साल होने वाली अशोक जी के जन्मदिन की पार्टी में अभी मेरा नाम नहीं काटा गया है।

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रज़ा के पैसों को लूटने के आरोप के बारे में मुझे यही कहना है कि वर्तमान सरकार के अशोक वाजपेयी प्रखर विरोधी हैं।इसलिए फ़ाउंडेशन के एक -एक पैसे पर सरकार की कड़ी निगाह रहती है।ऑडिट,इंकम टैक्स सब हथियार सरकार के पास हैं।

सच लोग बहुत कम जानते हैं।वे भी जो मेरे प्रिय मित्र हैं।फ़ाउंडेशन के कई अच्छे काम मैं गिना सकता हूँ।आप ख़राब भी गिनाइए।बहुत से हिंदी लेखक इसी बात से नाराज़ हैं की रज़ा की पेंटिंग करोड़ों में क्यूँ बिकती है।कला की दुनिया सारी नक़ली है,वाहियात।अब इस पर क्या कहा जाए।

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ख़ैर।मुझे अंत में एक निजी भावुक क़िस्म की याद आ रही है।मेरी पत्नी का कैन्सर से 2001,22 नवंबर को निधन हुआ।उन दिनों महात्मा गांधी विश्वविद्यालय का दफ़्तर साउथ दिल्ली में था।नीलाभ भी तब उनके साथ काम करते थे।अशोक जी को ख़बर मिली,तो व्यस्त होने के बावजूद वह नीलाभ के साथ अंतिम संस्कार में पहुँचे।

यादें बहुत हैं। जैसे एक बार तोक्यो,जापान में मैं,अशोक जी और मंगलेश गिंजा घूमने गए।मंगलेश और मैं गेइशा की जादुई तलाश में निकले थे।अशोक जी बोले,मैं भी चलता हूँ आप लोगों के साथ। गेइशा हमें उस दिन नहीं मिली।

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