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साहित्य

कहानीः यथातथ्य

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आकाश से टूटकर बिजली गिरी। ठीक उस वृक्ष के शीर्ष पर जिसके नीचे काफी देर से सिमटे खड़े थे वह। बारिश से भीगा हुआ उनका बूढ़ा और थका हुआ शरीर उस पीपल वृक्ष के मोटे तने से आत्मरक्षा के लिये ही तो चिपका हुआ था। शहर के एक कोने में स्थित अपने घर से टहलकर जब वे निकले थे तो काफी उद्विग्न थे। मन किया था कि घर ही नहीं इस बेरहम दुनिया को ही छोड़कर कहीं चल दिया जाय। घर…. जो उनका बनाया हुआ था आज जैसे पराया हो चला था। उनके बेटा-बहू ने ही उनके जीते-जी उस पर से उनका अधिकार छीन लिया था। वास्तव में छीन लेते तो भी चलता…. मगर घर में रहते हुए भी उन लोगों ने उस घर को उनके लिए बेगाना बना दिया था।

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आकाश से टूटकर बिजली गिरी। ठीक उस वृक्ष के शीर्ष पर जिसके नीचे काफी देर से सिमटे खड़े थे वह। बारिश से भीगा हुआ उनका बूढ़ा और थका हुआ शरीर उस पीपल वृक्ष के मोटे तने से आत्मरक्षा के लिये ही तो चिपका हुआ था। शहर के एक कोने में स्थित अपने घर से टहलकर जब वे निकले थे तो काफी उद्विग्न थे। मन किया था कि घर ही नहीं इस बेरहम दुनिया को ही छोड़कर कहीं चल दिया जाय। घर…. जो उनका बनाया हुआ था आज जैसे पराया हो चला था। उनके बेटा-बहू ने ही उनके जीते-जी उस पर से उनका अधिकार छीन लिया था। वास्तव में छीन लेते तो भी चलता…. मगर घर में रहते हुए भी उन लोगों ने उस घर को उनके लिए बेगाना बना दिया था।

वह करते भी तो क्या करते। एक ही तो बेटा था। एक बहू। दो नन्हें-मुन्ने पोता-पोती। पत्नी ने साठ बरस की होते-होते उनका साथ छोड़ दिया। चार बरस छोटी थी निर्मला उनसे। जब तक रही कभी अपने साथ-साथ उन्हें उनके होने का अहसास नहीं होने दिया…. घर-गृहस्थी का पूरा जिम्मा खुद ही ओढ़े रही। वह कोल्हू के बैल की तरह बाहरी दुनिया में ही खटते रहे।
घर केवल उनकी आरामगाह था। रेलवे स्टेशन का विश्रामालय।… आओ लेटो बैठो। आने वाली ट्रेन या समय की प्रतीक्षा करो। समय पर चाय-पानी खाना मिल जाएगा। नहाने जाओगे तो तौलिये से लेकर गरम-पानी तक तुम्हें किसी बात की फिकर करने की जरूरत नहीं। बस ….. निर्मला को किसी बात पर टोको नहीं…. वर्ना एक लम्बा लेक्चर मुफ्त में हाजिर।
अब निर्मला जा चुकी है समय के उस पार…. उनके पास समय ही समय है जो किसी तरह काटे नहीं कटता।

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घर के तीन कमरों में से एक उनके पास था। एक लड़का-बहू के पास। एक कमरा आधा ‘ड्राइंगरूम’ था और आधा बच्चों का ‘स्टडीरूम’ जो उनकी नादान हरकतों से हरदम अस्तव्यस्त रहता…. जिसके कारण बहू का मिजाज दिन ब दिन बिगड़ता जाता था।

फिर भी….. बड़े सहनशील थे उनके लड़का-बहू। मुँह से कभी कुछ न कहते, लेकिन घर का नक्शा हर चैथे दिन बदल जाता था। ……छोटे से घर को सँभालना कोई आसान काम था? सोफा, डाइनिंग टेबल, बच्चों का पलंग, बेडरूम की अलमारी सभी सामान पूरे घर में हर चैथे दिन अपना स्थान बदल देते थे। बहू घर में हरदम चक्करघिन्नी बनी रहती। वह डरते रहते कि किसी दिन बहू उनके कमरे पर भी हमला न बोल दे।

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निर्मला जब तक थी उन्हें अपनी किसी चीज का होश नहीं था। अब उसके न रहने पर उनमें अभूतपूर्व परिवर्तन आ चुका था। अपने अधोवस्त्र वह स्वयं धोते थे। जूता-चप्पल किनारे कोने में रखते थे। मजाल है जो अपनी हाथ की छड़ी कभी इधर-उधर रख दें। वह भी उनके बिस्तर के एक निर्धारित कोने पर टिकी रहती। अलमारी में पायजामा, कुर्ता, अन्य वस्त्र सभी करीने से सजे रहते। किस ख़ाने में पीछे की ओर सुई-धागा-बटन का डिब्बा है…. छोटी कैंची किधर है…. दवाओं की डिबियाँ कहाँ रखी हैं? सब उन्हें याद रहता। कोई वस्तु मजाल है कि कभी गलती से अपनी जगह बदल दे। मजाल है जो उनका कोई सामान इधर का उधर हो जाए।

पर कुछ भी हो, उन्होंने सारी जिंदगी में अगर किसी बात से नफरत की थी तो इन्सान की एक ही फि़तरत से – ‘‘हिप्पोक्रेसी’’ – चरित्र का दोगलापन – ….साफ कहकर यदि कोई उनकी गर्दन भी उतार लेता तो वह उसके लिए सहर्ष तत्पर हो जाते। लेकिन मुँह में कुछ मन में कुछ…. ऐसे व्यवहार वालों से वह सदैव कतराते थे। स्वयं किसी को ‘चीट’ करना उन्होंने कभी नहीं सीखा था। जो कुछ था वह साफ-साफ सीधा-सीधा।

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अपने लम्बे अध्यापकीय जीवन में उन्होंने झूठ का सहारा कभी नहीं लिया। बड़ा नुकसान भी उठाया उसके चलते। मगर सीधी-सच्ची डगर  पर चलने की अपनी कोशिश उन्होंने कभी नहीं छोड़ी।

निर्मला ने भी हँसते-रोते उनका काफी हद तक साथ दिया था। अध्यापक से प्रधानाध्यापक हुए। फिर रिटायर होने से डेढ़ वर्ष पूर्व डिप्टी डायरेक्टर एजूकेशन भी बने।…. ले देकर एक यही छोटा-सा मकान बना पाए जिसमें आज सत्तर वर्ष की आयु में वह एक अजनबी की-सी जिन्दगी गुजार रहे थे। वह….. याने कि आचार्य महेश दत्त शर्मा, एम0ए0, बी0टी0, साहित्यरत्न, प्रभाकर। उनके मित्र उन्हें ‘आचार्यजी’ कहकर सम्बोधित करते थे और कालोनी वाले ‘‘शर्मा जी’’।

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कालोनी वालों से शर्मा जी के भीतर निवास करने वाले आचार्य जी का मोहभंग जल्दी ही हो गया। शहर के बाहरी सिरे पर बसी वह अनियोजित कालोनी निम्न मध्यवर्गीय परिवारों का स्वाभाविक बसेरा था। उसमें नियोजित यदि कुछ था तो वह कोने वाला एक पार्क, जो बच्चों का क्रीड़ांगन और बूढ़ों का वृद्धावस्था में अपनी जिजीविषा को बनाए रखने का एकमात्र स्थान था।

शुरू-शुरू में कुछ महीने सुबह-शाम वह भी उस पार्क में बड़े उत्साह से जाते थे। पर धीरे-धीरे उन्हें यह अहसास होने लगा कि वहाँ प्रायः दो ही तरह की चर्चाओं का प्रचलन था। या तो देश-प्रदेश की पॉलिटिक्स या फिर अपने-अपने घर और समाज के दुखड़े-लफडे़। कोई स्वस्थ परिचर्चा-साहित्य, कला, दर्शन इत्यादि से सम्बन्धित-वहाँ किसी प्रकार का रूपाकार ग्रहण न कर पाती।

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सच पूछिये तो अधकचरी मानसिकता के बूढ़ों में उन्हें महज ‘खूसटई’ ही नज़र आती। क्योंकि किसी आचार्य अथवा बुद्धिजीवी की वहाँ कोई गुंजाइश ही नहीं थी।

आचार्य जी का मन एक-न-एक दिन उस हरे भरे पार्क के बीच उस मनहूसियत भरे माहौल से ऊब ही जाना था। सो ऊब गया। उन्होंने पार्क में जाना ही कम कर दिया। अब वह वहाँ दोपहर के समय तब जाते जब वहाँ कोई भकुआ न होता। सूनेपन में पेड़ों के साये में पड़ी एक बेंच पर वह घंटों अकेले बैठे अपने आप से बातें करते रहते। कुछ वह समय को काटते और कुछ समय उनको काटता।

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उस दिन भी दोपहर का समय था। दो दिन की लगातार बारिश के बाद सुबह से मौसम खुला हुआ था। बादल काफी कुछ छँट चुके थे। सूर्य किरणों की आँखमिचैली भी बीच-बीच में कई दफा हो चुकी थी। बहू ने गीले कपड़ों को घर के पिछवाड़े तार पर और कुछ को प्लास्टिक की कुर्सियों पर फैला दिया था। कुछ सामान उसने उनके कमरे में भी लाकर पटक दिया था। अपने कमरे का इस तरह से सत्यानासा पीटा जाना आचार्य जी की बर्दाश्त से बाहर था। उन्होंने अपनी छड़ी उठाई और उत्तेजना में घर से बाहर निकल पड़े।

पार्क में घास काफी ‘उँचिया’ गयी थी। धरती गीली थी। कीड़े-मकोड़ों का डर था। इसलिए वह शहर से गाँव की ओर जाने वाली पतली सड़क पर छड़ी के सहारे बढ़ चले। वह सिर उठाए चलते गए। इस बीच मौसम फिर रंग बदलने लगा। बादलों का जमावड़ा मटमैले आकाश में गहराने लगा। उन्होंने फिर भी हिम्मत नहीं हारी। वह निरंतर चलते चले जा रहे थे कि रास्ते में एक दृश्य देखकर बरबस ठिठक गये।

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कई कच्चे-पक्के घरों के बीच एक सहन। वहाँ एक वर को घेरे ग्रामीण स्त्रियाँ मंगलगान कर रही थीं। जिसका आशय था- बाँका बन्ना ब्याह रचाने आन गाँव को जा रहा है…. वह सजीला गबरू जवान है…. विवाह करके प्यारी सी दुल्हनियाँ घर को लाएगा…… आने वाली बहू कुल की मर्यादा का ध्यान रखेगी….. घर में खुशहाली और खेतों में हरियाली लाएगी….. परिवार में नयी सन्तान को जन्म देगी जिससे कुल आगे बढ़ेगा…… लेकिन हे प्रियवर! दुल्हन लाने के बाद कहीं तुम अपनी पुरानी होती जाती माँ को भूल तो नहीं जाओगे?
आचार्य जी ने महसूस किया कि इस लोकगीत में शादी-ब्याह के उल्लास के बीच लोक-व्यवहारों और संस्कारों का गहरा दर्द भी छिपा है।

धूप फिर से झलक उठती है। कुछ देर को ही सही। उधर सिर पर चमकीले रंगों का कागज़ी मौर बाँधे वह देहाती वर अपनी माँ की ओर देखता है।…. अधेड़ होती माँ….. जिसका कुछ शरीर दोहरा गया है….. आँसू पोंछती हुई एक कुँए की जगत पर जा बैठती है। वह अपने दोनों पाँव कँुए में लटका देती है।

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आचार्य जी जानते हैं कि यह गाँव की बहुत पुरानी रस्म है। अन्यथा वह खुद लपककर उस औरत को ऐसा करने से रोकते। उनके देखते-ही-देखते वर मुद्रा में ही वह युवक आगे बढ़ता है। …. माँ के दोनों कंधों का स्पर्श कर उसे कुँए की जगत से उठा लाता है।

माँ धरती पर बैठ जाती है। बेटा माँ से दुलार करता है। उसकी गोदी में सर रखकर लेटने का उपक्रम करता है। माँ दूल्हा बने बेटे का मौर सँभालती हुई असीसें देती हैं और स्त्रीकण्ठों से निकलने वाले मंगलगान के स्वर और तेज़ हो जाते हैं।

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आचार्य जी यह जानते थे कि इन सब बातों का अर्थ यह है कि बारात लेकर जाने वाले बेटे से माँ यह जता रही है कि नौ महीने जिस बच्चे को उसने कोख में पाला…. जन्म से अब तक मर-खटकर पालपोसकर बड़ा किया…. वही बेटा अब ब्याह रचाने जा रहा है।…. वह माँ के आँचल से दूर होकर जवान पत्नी के पल्लू से बँधने जा रहा है।…. कदाचित् अब वह अपनी बूढ़ी होती हुई माँ को भूल जाएगा….. अतः ऐसे जीवन से मृत्यु भली। इसलिए कुँए में उस महिला का पाँव लटकाकर बैठना आत्महत्या का प्रतीक है।…. उस युवक का माँ को मनाकर वहाँ से लाना और प्यार करना। माँ के प्रति बेटे की पहले की-सी श्रद्धा का प्रदर्शन और भविष्य के आश्वासन का प्रतीक है।

इसके बाद पुरुष सदस्यों के साथ गाँव की वह बारात प्रस्थान कर गयी। घर-परिवार-पड़ोस की स्त्रियाँ सूप में अनाज पर दीपक सजाए उसी भाँति गाती-गाती रह गईं।

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आचार्य जी छड़ी टेकते हुए सधे कदमों से और आगे बढ़ गये। वह शुरू से व्यायाम के अभ्यासी रहे थे। छड़ी की वैसे उन्हें कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी। फिर भी पागल कुत्तों और कीरा-काँटा से बचने के लिए छड़ी फिलहाल टहलते समय अपने पास रखनी पड़ती थी। आकाश में बादलों और धूप-छाँप का खेल अभी जारी था। आचार्य जी अपनी धुन में छड़ी उठाए तेजी से चले जा रहे थे।

कुछ ही देर में बादलों में गड़गड़ाहट पुनः शुरू हो गई। दोपहर को अँधेरा गहराने लगा। बिजली आसमान में रह-रह कर कड़कने लगी। उन्होंने अपने कदम कुछ और तेज किये ही थे कि हरहराकर पानी बरसने लगा।

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एक पीपल का पेड़ थोड़ी दूर पर था। भीगते हुए किसी तरह उस तक पहुँचे। इस बीच उनकी साँसें तेज़ हो चली थीं। करीब-करीब हाँफने ही लगे थे वह कि बिजली कड़की। –
गड़ ड़ ड़ गड़म… कहीं दूर गिरी भी शायद।

वह सहम गए। हालांकि काफी हिम्मती थे। पर तडि़त चालन का धमाका इतना तेज था कि उनकी पीठ पीपल वृक्ष के तने से जा सटी। हवा बहुत तेज थी। पूरा वृक्ष झूम रहा था। बहुत बड़ा कद्दावर था वह पीपल का पेड़। उसके तने में एक लाल लंगोट भी लटका था। उसके तने के चारों ओर ग्रामीण महिलाओं के द्वारा लपेटे गए सूत के अनेक धागे भी लिपटे हुए थे।

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आचार्य जी जान गए कि इस वृक्ष की आसपास के लोग पूजा करते हैं। यह विशेष पूजनीय है। अतः विपत्ति के उन क्षणों में उनको यह भरोसा हो आया कि यह वृक्ष जरूर उनकी रक्षा करेगा।

हवा के तूफान से पूरा पेड़ झूम रहा था। पत्तों की सरसराहट ऐसी थी मानों आसपास कोई विशाल झरना आवाज़ कर रहा हो। पानी की बौछार उसके पत्तों और टहनियों को चीरे डाल रही थी। वृक्ष के तने पर भी पानी की धाराएँ बहने लगीं। आचार्य जी तने से आगे हटकर खड़े हो गए। धरती पर बहता पानी उनके जूतों को भिगोने लगा।
हर हर हर हर करके चारों ओर बरसता पानी। और उस सूनसान बियावान में अकेले खड़े वह। वह पीपल का पेड़ उनके सिर पर एक ऐसा कुदरती छाता था जो कि जगह-जगह से फटा हुआ था। बरसते पानी को रोकने में कायदे से सक्षम न था। काश!…. वह बरगद या पाकड़ का पेड़ रहा होता तो कुछ राहत होती…. फिर भी वह देव स्थान था। इसलिये रक्षाकारक तो था ही।

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अभी वह सोच ही रहे थे कि एक आकाशीय बिजली आसमान से टूटकर उसी पेड़ पर आन गिरी। विद्युत-तरंग का आघात इतना प्रबल था कि उसकी धमक से अथवा उसके स्पर्श से जो भी हो, आचार्य जी भी अछूते नहीं रह सके। वह एक झटके से लड़खड़ाकर नीचे गिर पड़े।

वर्षा का जल सड़क से उतरकर दोनों ओर बह रहा था। पीपल के तले वर्षा-जल के प्रवाह और कीचड़ में आचार्य जी का शरीर बिना हिले-डुले वहाँ पड़ा था। उस सूने-सन्नाटे में जहाँ उनकी मदद करने वाला कोई नहीं था, वह अचेत थे कि मर चुके थे? …. कोई नहीं जानता था।

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थोड़ी देर बाद बारिश पूरी तरह थम गयी। आचार्य जी का शरीर वहां वैसे-का वैसा ही पड़ा रहा।

शहर की ओर से दो कुत्ते उछलते-कूदते चले आ रहे थे। बारिश से धुली हई सड़क पर विचरने का मजा ही कुछ और था। शेरू और झबरू नाम था उन कुत्तों का। इस समय उनका खिलंदड़ापन सातवें आसमान पर था। दुमें हवा में लहराती हुई। चेहरे मुस्कुराहटों से भरे हुए। मौज-मस्ती ऐसी कि कोई देखकर ही कह दे कि दोनों में बड़ी प्रगाढ़ मैत्री है…..।
ईर्ष्या-द्वेष-वैमनस्य से कोसों दूर…. अपनी अलमस्त दुनियाँ में मस्त। यहाँ तक की मुन्नू लोहार की कुतिया चमेली भी दोनों के बीच दरार डालना चाहे तो नहीं डाल सकती थी……।
शेरू लम्बे-दुबले और सुते हुए जिस्म का वह कुत्ता था जो आचार्य जी की कालोनी में उत्तर की तरफ जाने वाली सड़क के किनारे बरसों से धूनी रमाए एक साधूबाबा के छप्पर तले रहता था। रूखी-सूखी खाकर गुजारा कर लेने वाला जीव। जाड़े के दिनों में साधू बाबा की धूनी की गर्म राख ही उसे गर्म बिछौने का सुख दे दिया करती थी। उसका किसी से न राग था और न द्वेष। इने-गने-चुने जो भी लोग साधू बाबा के ठिकाने पर आकर गाँजा-चिलम पीते, उनका वह सदैव दुम हिलाकर बड़ी आत्मीयता से स्वागत करता। शेरू…. एक भूरे बाल और सफेद चित्तियाँ वाला आमफहम सा देसी कुत्ता। निहायत शरीफ और मोहब्बती।

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जबकि झबरू कुत्ते का स्वरूप शेरू से काफी कुछ भिन्न था। थोड़ा भारी बदन। ऊपर से काफी घने काले बाल। चालढाल कुछ रईसी अंदाज वाली छोटे-छोटे डग भरने वाली।….. और ये सब हो भी क्यों न? उसके गले में पालतू वाला एक पट्टा पड़ा हुआ था। वह किसी ऐसे वैसे फटीचर के यहाँ का पला-बढ़ा कुत्ता थोड़े ही था। एक शानदान होटल वाले का कुत्ता होने के नाते दूध-बे्रड, रोटी-बोटी, किसी चीज की उसे तंगी नहीं थी। इसलिए झबरू कुत्ते का स्वास्थ्य जमाने भर के कुत्तों के लिये ईष्र्या का केन्द्र था।
अब शेरू जैसे मामूली कूकुर की झबरू जैसे समृद्ध श्वान से मित्रता कैसे संभव हुई? उसकी अपनी एक अलग कहानी है।…. अगर हम उसमें गए तो यह कथा बहुत विस्तृत हो जाएगी। और उस विस्तार में हम जाना नहीं चाहते।

फिलहाल शेरू गर्दन घुमाकर झबरू से कह रहा था – ‘‘अबे ओ भरे पेट वालों की औलाद!….. इतने हसीन मौसम में भी तू तेज़ नहीं दौड़ सकता। इस पर झबरू का कथन था कि – ‘‘ओ बाबा की धूनी की राख की सड़ी गंजी खाने वाले भुख्खड़!….. तेरे जिस्म पर तोला भर चर्बी नहीं है, इसलिये दौड़ में हिरन बना फिरता है।…. जरा ठहर तो फिर तुझे बताता हूँ…. हः हः हः।’’

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– हाँफता हुआ झबरू मध्यम गति से ही शेरू के पीछे-पीछे भाग पा रहा था। श्रम के आधिक्य से उसकी जुबान आगे को लटक गयी थी।
बारिश पूरी तरह थम चुकी थी। आसमान में बादल खुलने लगे थे। दोनों कुत्ते इस समय पूरी तरह आवारागर्दी के मूड़ में थे। वे जब उस पीपल के करीब से गुजरे उन्होंने धरती पर गिर पड़े आचार्य जी को देखा। शेरू ने उनके निकट पहुँचकर कूँ-कूँ किया। उसकी पूँछ और भी तेजी से हिलने लगी। तब तक झबरू भी आ पहुँचा। वह आचार्य जी की छाती को सूँघने लगा।

‘‘कौन हैं ये?’’ – झबरू ने आँखों ही आँखों में शेरू से पूछा।

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शेरू बेचैनी से आचार्य जी के दो चक्कर काट गया। वह उन्हें पहले से पहचानता था। कभी-कभी वह उसे घर से ले आकर एक-आध सूखी रोटी डाल दिया करते थे। एक कुत्ते पर उपकार के लिये इतना ही बहुत था।

‘‘अपनी ही तरफ के हैं…. भले आदमी हैं।’’ शेरू ने जवाब दिया।

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और फिर शेरू बिना किसी तकल्लुफ के आचार्य जी का मुँह चाटने लगा। उसकी जुबान ने उनके माथे…. आँख…. नाक….. ठोड़ी….. प्रायः चेहरे के हर अवयव का भरपूर स्पर्श किया। कहते हैं कि कुत्ते की जुबान में अमृत होता है। यह भी कहते हैं कि पीपल के पत्तों की कोपलों में पौरुष को बढ़ाने वाली ऐसी तासीर होती है कि जिसका जवाब नहीं।
जिस समय शेरू आचार्य जी का मुँह चाटकर पीछे हटा उसी समय उनके खुले हुए मुँह में पीपल की एक कोपल ऊपर से टपककर गिरी। कुछ ही क्षण बाद उनके निर्जीवप्रायः शरीर में हरकत हुई और फिर देखते ही देखते उठ बैठे वह।

दोनों कुत्तों ने अपनी राह पकड़ ली। वह उन्हें भागते-कूदते दूर जाता देखते रहे। उन्हें लगा जैसे वह दोनों जानवर आपस में बात कर रहे हों। मोटा कुत्ता दुबले कुत्ते से कहता हुआ-सा लगा कि…… ‘‘तूने तो यार चमत्कार कर दिया….. एक मरे हुए आदमी के बदन में जान डाल दी।’’ दुबला कुत्ता कह रहा था – ‘‘अरे नहीं रे…. वह मरे नहीं थे…. बेहोश हो गए थे…. मैंने तो बस उन्हें कुछ…. ‘‘आगे के शब्द आचार्य जी पकड़ नहीं सके।

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यह संभाषण उनके समक्ष घटित हो रहा था अथवा उन्हें मात्र ऐसा लग रहा था? वह समझ नहीं सके। वैसे भी होने और लगने के मध्य काफी अंतर होता है। इतने बड़े हादसे से अभी-अभी उबरे आचार्य जी के लिये उसे समझ पाना आसान नहीं था। जो भी हो बहरहाल…. आचार्य जी को जैसे मरने के बाद एक बार पुनः जीवनदान मिल गया था।
आठ-बरस की अपर्णा उन चंद समझदार बच्चियों में से थी जो दादा जी का चश्मा बिस्तर पर पड़ा देखकर न सिर्फ उसे सहेजकर अलग धर देती हैं, बल्कि अपने फ्रॉक के छोर से उसके लेंस, भी साफ कर दिया करती हैं।…. यह सोचकर कि चश्मा टूटे नहीं और दादा जी को देखने में कोई तकलीफ न हो…।

इसके विपरीत उसी से दो बरस छोटा भाई नितिन काफी शरारती और मनमौजी बालक था। उसके लिए दादा जी का घर में होना या न होना कोई मायने नहीं रखता था। थोड़ा बहुत असर उस पर होता था तो माँ के तमाचों का जो कभी-कभार उसे सहने पड़ते थे।

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आचार्य जी के बेटा-बहू सोमदत्त और पल्लवी भी आजकल के जमाने के लिहाज से सामान्य ढंग के ही थे। उनके लिए आचार्य जी दीवार पर टँगे हुए एक उस कैलेडर के समान थे जिस पर वर्ष के अंतिम महीने प्रदर्शित हो चले थे। वे जानते थे कि एक-न-एक दिन यह कैलेंडर भी खूँटी से उतर जाना है।
आचार्य जी को शुरू से ही इस बात का बहुत मलाल रहता था कि उनका पिद्दा सा पोता उन्हें ‘लिफ्ट’ नहीं देता था। वह भी उसे आये दिन रोकते-टोकते ही रहते थे – ‘‘कहाँ ऊधम मचाए हैं?…. पढ़ने क्यों नहीं बैठता?…. ये मत कर….. वोह मत कर।….’’

उस बिजली गिरने की घटना के कुछ दिन बाद एक दिन आचार्य जी को प्यास लगी। उस दिन वह घर में अकेले थे। कुछ ही देर बाद नितिन और अपर्णा घर में दाखिल हुए। उन्होंने नितिन से ही एक गिलास पानी माँगा। नितिन ने अनसुनी कर दी और वह हमेशा की तरह पड़ोसी के घर भाग गया।

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तब उन्होंने अपर्णा को आवाज लगाई। अपर्णा ने सुन लिया था वह बिना कहे दादा जी के लिए पानी ले आई। फिर उन्होंने अपर्णा से कहा – ‘‘जा मेरी बेटी… नितिन को बुला ला। कहना दादाजी ने फौरन बुलाया है ….न आवे तो हाथ पकड़कर उसे लिवा लाना।’’

कुछ देर में दोनों बच्चे पुनः प्रकट हुए। नितिन आचार्य जी के सामने मुँह बनाए खड़ा था। अपर्णा की साँसें फूली हुई थीं। लगता था कि नितिन को लाने में उसे काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।

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अब दादा-पोते एक दूसरे को कुछ देर तक आँखों-ही-आँखों में तौलते रहे। नितिन की आँखों में खीझ थी जबकि आचार्य जी की आँखों में बच्चे को ‘सरप्राइज’ देने का भाव। वह कहने लगे –  ‘‘तुम यही सोच रहे हो कि दादा जी जब देखो उल्टी-सीधी बातें करते रहते हैं….. न कभी टाफी को पूछते हैं और न कभी खिलौने को… तुम्हारे दोस्त टिंकू के दादा जी की तरह कभी कोई कहानी-वहानी भी नहीं सुनाते?’’

इतना सुनना था कि नितिन उछल पड़ा – ‘‘अरे?…. आपने कैसे जाना?’’ आचार्य जी समझ गए कि किला फतह हो गया है। हालाँकि वह स्वयं भी यह जान नहीं सके कि उनमें सामने वाले के मस्तिष्क को हूबहू पढ़ लेने का यह नया गुण अचानक कहाँ से उत्पन्न हो गया? प्रत्यक्षतः वह यही बोले- ‘‘बस…. जान लिया।’’

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आचार्य जी अपने गाव-तकिये पर सिर रखकर लेट गए। फिर नितिन को और भी आश्चर्य में डालते हुए उन्होंने कहा –
‘‘वैसे…. मेरे पास तुम्हारे लिये एक बड़ी जबरदस्त कहानी है।’’
‘‘कौन सी कहानी…. कौन सी?’’ – कहता हुआ नितिन उनके पास आ गया।
‘‘एक ऐसी कहानी जो मैं कई बरस पहले भूल गया था। …वह कहानी बचपन में मेरे दादा जी को उनके दादा जी ने सुनायी थी… फिर उनके….’’
‘‘मुझे भी सुनाइये दादा जी!-’’ कहकर नितिन अब दादा जी के पलंग से जा लगा। अपर्णा भी उनके निकट जा बैठी। आचार्य जी को उस क्षण लगा कि जैसे किसी पर्वत की ऊँचाई से गिरते-गिरते अचानक किसी अज्ञात शक्ति ने उन्हें हवा में थाम लिया हो। उनके नेत्रों की चमक सहसा बढ़ गयी।
‘‘ऐसे नहीं…’’ आचार्य जी ने नितिन से कहा -‘‘ तुम्हें घुड़सवारी करनी पड़ेगी तब कहानी सुनने को मिलेगी।… ये कहानी एक कविता की शक्ल में है। आओ मैं तुम्हें सुनाता हूँ।…’’

आचार्य जी ने दोनों हाथ पसार दिये और लेटे-लेटे अपने दोनों घुटने सटाकर मोड़ लिये। नितिन को उन्होंने अपने घुटनों से पाँवों के बीच पेट के बल लिटा लिया। वह बालक दादा जी के घुटनों पर ठोड़ी टिकाये उन्हें अवाक् देखता रह गया। दादाजी उसे हौले-हौले झूला झुलाने लगे और कहानी चल पड़ी।

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आचार्य जी गाने-से लगे – ‘‘अंटा-मंटा कौड़ी पाई/कौड़ी ले गंगा में बहाई/गंगा जी ने बालू दी/बालू ले भड़भूज को दी/भड़भूजे ने लावा दिया/लावा ले मैंने घसियारे को दिया/घसियारे ने घास दी/घास ले गऊमाता को दी/गऊमाता ने दुद्धू दिया/दुद्धू ले मैंने खीर पकाई/ओछन-पोछन मोर चटाई/मोर ने मुझको पंख दिये/पंख ले मैंने वज़ीर को दिये/वज़ीर ने मुझको घोड़ा दिया/घोड़ा ले मैंने ब्याह रचाया…’’ – यह कहकर आचार्य जी रुके और निष्कर्ष रूप में बोले – ‘‘फिर भइया की बारात कैसे आई!टी ली ली ली ली ली!’’

ऐसा कहते हुए उन्होंने अपने पैरों के झूले को, उछलते हुए घोड़े की तरह, ऊँचा कर दिया। नितिन का सिर नीचे की ओर धड़ ऊँचाई की ओर हो गया। वह जोर-जोर से आनंदातिरेक में हँसने लगा। आचार्य जी फिर बोले –  ‘‘नितिन की बारात कैसे आई?… टी ली ली ली ली ली!!’’

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यही प्रक्रिया उन्होंने कई बार दोहराई। नितिन के पेट में हँसते-हँसते बल पड़ गए। तभी बहू पल्लवी वहाँ आ पहुँची और इस अकल्पित दृश्य को घर में समुपस्थित देखकर कुछ देर को ठगी-सी रह गयी।

फिर कुछ ही क्षणों में स्वयं को सँभाला उसने और बच्चों से कहने लगी-’’ चलो-चलो निकलो यहाँ से…. स्टडीरूम में जाकर पढ़ो।’’

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नितिन वही कहानी एक बार फिर सुनाने के लिए दादा जी से जिद करने लगा। परन्तु पल्लवी ने उसे घसीट लिया और अपने साथ कमरे से बाहर ले गयी। अपर्णा भी चुपचाप माँ के पीछे-पीछे चली गयीं किन्तु आज वह मन-ही-मन बहुत खुश थी।

आचार्य जी उन बच्चों को हसरत भरी निगाहों से कमरे से बाहर जाता देखते रहे। उन्हें लगा जैसे अभी जीवन पूरा नहीं हुआ है। अभी भी बहुत कुछ बाकी है इस संसार में करने को।
पल्लवी ने आचार्य जी को लक्ष्य करके सोमदत्त से कहा – ‘‘सुनते हो जी! ….आजकल बाबू जी कुछ अजीब-अजीब हरकतें करने लगे हैं।’’

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सोमदत्त अपने बैंक के किसी हिसाब-किताब में उलझा हुआ था। उसने ध्यान नहीं दिया। पल्लवी ने उसका कंधा झिंझोड़ा – ‘‘मैं कुछ कह रही हूँ आपसे…. सुनेंगे ज़रा?….’’
‘‘क्या है? -‘‘ सोमदत्त ने आजि़ज़ी से कन्धा झटका।
‘‘बाबू जी इन दिनों काफ़ी स्ट्रेंज बिहेव कर रहे हैं।’’
‘‘मसलन?’’
‘‘मसलन ये कि पहले वह आधी-आधी रात तक जगे रहते थे। सुबह आँख लगने पर देर तक सोते थे। अब रात भर गहरी नींद में सोते हैं। घोड़े बेचकर। फिर सुबह चार बजे ही उठ जाते हैं।….’’
‘‘तो इसमें बुराई क्या है? यह तो अच्छी बात है उनके स्वास्थ्य के लिए भी…’’
‘‘अरे वो सब ठीक है मगर…. सुबह पौ फटने से पहले ही वह दरवाजा भेड़कर सैर को निकल जाते हैं… वो भी बिना छड़ी लिये…. नंगे पाँव….। मान लो हम लोग सोते रहें और घर में कोई सुबह-सुबह चोर बदमाश घुस आए तो?’’
‘‘ठीक है… उन्हें एक ताला-चाबी दे दो। बाहर से लगाकर चले जाएँगे।’’
‘‘मैंने ऐसा भी किया था… पर बोले – इसकी कोई जरूरत नहीं। मैंने शेरू की ड्यूटी लगा दी है। वह बाहर गेट पर पहरा देगा, जब तक मैं वापस नहीं आ जाता।…. शेरू जानते हो कौन?’’
‘‘कौन,’’
‘‘एक आवारा कुत्ता।… जाने कहाँ से परका लिया है बाबू जी ने। … सुबह-सुबह ही कहीं से रोज़ दुम हिलाता आ जाता है…. वो जब घर से बाहर निकलते हैं तो कुछ देर उनके कदमों पर लोटता है।…. उस पर हाथ फेरते हुए जाने उससे क्या-क्या बातें करते हैं। फिर सैर को निकल जाते हैं। वह पीछे-पीछे चलने को होता है…. फिर उनके एक इशारे पर गेट पर बैठ जाता है…. जब तक वह लौटकर नहीं आते वह कुत्ता अपनी  जगह से हिलता तक नहीं।…. दो दिन से मैं यही तमाशा देख रही हूँ।
‘‘अच्छा?’’
‘‘यही नहीं… अपने नितिन पर भी बाबू जी ने पता नहीं क्या जादू कर दिया है। पहले जो लड़का उनकी छाया तक के दूर भागता था अब वही उनके आगे-पीछे नाचने लगा है।’’

सोमदत्त पुत्र आचार्य महेशदत्त पत्नी की बातों से आश्चर्य और फिकर से भर गया। आश्चर्य तो उसे पिता के बदलते स्वरूप की बात सुन लेने से हुआ। फिकर इस बात की हुई कि इतनी ‘एडवांस एज’ में स्वभाव और आचरण में आने वाला एकाएक परिवर्तन कहीं आचार्य जी के मानसिक-असंतुलन का तो परिचायक नहीं?…. अगर ऐसा हुआ तो आने वाले दिनों में आर्थिक संकट का नामालूम कैसा दौर झेलना पड़े उसके परिवार को। ….यदि बाबू जी को लेकर साईकार्टिस्टों के चक्कर लगाने पड़े ….फिर तो एक नयी मुसीबत खड़ी हो जाएगी।
सोमदत्त के लिये अब पिता पर नजर रखना अनिवार्य हो गया। अपने थुलथुल शरीर को लेकर वह प्रातः आठ-बजे तक सोने का आदी था। मगर आचार्य जी तड़के पाँच बचे सैर को निकल जाते थे। इसलिये सोमदत्त ने अगली सुबह के लिये चार-बजे का अलार्म सेट किया। घड़ी को वह सिरहाने रखकर हो गया।

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सुबह नियत समय पर अलार्म बजा भी। मगर सोमदत्त चाहकर भी उठ न सका। वह करवट बदलकर आलस्य में पुनः सो गया। अलबत्ता आचार्य जी अवश्य, नित्य क्रिया से निवृत्त होकर, पाँच बजे भोर में घर से बाहर निकल लिये।

आचार्य जी को गेट पर शेरू दुम हिलाता हुआ इंतज़ार करता मिला। वह उससे कहने लगे – ‘‘आओ…. आज जुम्मन मियाँ के घर तक तुम्हें लिवा चलता हूँ। ….मगर वहाँ से तुम फौरन वापस लौट आओगे…. वायदा करो।’’

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शेरू ने मुस्कुराते हुए पुनः दुम हिलाई। आचार्य जी समझ गए कि वह कह रहा है – ‘‘आज तक आपका कोई आदेश टाला है मैंने? …फिर वायदा क्यों लेते हैं मुझसे?’’

‘‘अरे नहीं भाई ….आजकल किसी का कुछ ठिकाना नहीं….’’ आचार्य जी ने शेरू से फिर कहा – ‘‘वायदा तो मुझसे जुम्मन मियाँ के मुर्गे ने भी किया था कि वह रोज सुबह चार बजे बाँग देकर मुझे जगा दिया करेगा …मुझे ही क्या? उसकी कुक्कडूँ की ऊँची आवाज पूरे मुहल्ले को जगाने वाली हुआ करती थी… पर तीन दिन से देख रहा हूँ… सुबह पाँच बजे भी जब मैं उधर से गुजरता हूँ तो वह धोखेबाज मुझे सोता मिलता है।…’’
‘‘कहाँ?’’ – शेरू ने पूछा।
‘‘अपने दड़बे में… और कहाँ।’’
ये दोनों, आदमी और कुत्ता चलते-चलते जुम्मन मियाँ के हाते के पास से गुजरे। जुम्मन मियाँ के हाते का लकड़ी का छोटा दरवाजा बंद था। शेरू पहले तो उस पुराने दरवाजे को कुछ देर सूँघता रहा। फिर उसने अपनी पिछली एक टाँग उठाकर उसे पवित्र किया।
‘‘वैरी बैड शेरू! …वैरी बैड! …ये बेहूदगी तुम लोग आखिर क्यों करते हो?-’’ आचार्य जी ने झल्लाकर कहा।
शेरू फिर वहीं बैठकर अपनी पिछली एक टाँग से अपने कान खुजाने लगा। खुजाते खुजाते वह बोला – ‘‘क्या करें साहेब! ….आदत जो पड़ी हुई है …आप बताइये कि आप लोग कहीं भी बैठकर कभी भी किसी भी समय नाक में उंगली डालकर मैल क्यों निकालने लगते हैं….’’
‘‘हैं?-’’ आचार्य जी के मुँह से निकला।
‘‘और मैंने ये भी देखा है कि कई आदमी उस मैल को कहीं भी चिपका देते हैं….. मेज के नीचे… कुर्सी के पाँवदान में।’’ कुत्ते ने आगे कहा।
‘‘बुरी आदत होती है ये…. मैं मानता हूँ?’’ – आचार्य जी को स्वीकार करना पड़ा।

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आचार्य जी जुम्मन मियाँ के घर के सामने ठिठक गए। बिजली के खम्भे पर चढ़ी एक रॉड लुप्प-लुप्प कर रही थी। वोल्टेज कम थी अथवा उसका चोक खराब हो चुका था। ठीक से सुबह होने में अभी थोड़ी देर थी। अचानक शेरू जुम्मन मियाँ के हाते के कँटीले तारों में एक जगह मुँह डालकर जोर से भौंका। अंदर एक सरसराहट हुई। आचार्य जी ने देखा कि मुर्गियों के दड़बे के ऊपर चढ़ी एक श्वेतश्याम चितकबरी बिल्ली कूदकर भागी और साइड की दीवार पर चढ़कर पीछे की ओर ग़ायब हो गयी।

शेरू पलटकर आया और आचार्य जी से कहने लगा – ‘‘देखा आपने? …..उस दुष्ट बिल्ली को …. कई दिनों से मुर्गियों पर घात लगाए थी….. इसीलिए वो बेचारा मुर्गा रातभर जागकर अपनी मादाओं की रखवाली करता होगा…. और सुबह-सुबह उसकी आँख लग जाती होगी।……अब कहाँ से वह भोर में आपके लिए बाँग दे?’’- प्रत्यक्षतः उस कुत्ते के मुँह से हल्की-हल्की गुरगुराहट ही निकल रही थी।

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‘‘ठीक कहते हो।’’ कहकर आचार्य जी ने कुत्ते के सिर पर एक चपत लगाई। बड़े प्यार से और आगे बढ़ गए। कुत्ते की दुम एक बार फिर कुत्ता सुलभ स्नेहावेग में हिलने लगी।

आसपास से दो-तीन टहलुआ लोग गुजरे। उनको आचार्य जी और शेरू का यह संवाद समझ में नहीं आया। उन्होंने सोचा कि बुड्ढ़ा सठिया गया है और यों ही सड़क के किसी कुत्ते से बोल-बालकर अपना वक्त काट रहा है। जबकि आचार्य जी मन ही मन बड़े गद्गद् थे। उनके मन में कुत्ता-मुर्गा-बिल्ली की एक नयी कहानी का प्लॉट घुमड़ रहा था अपने प्रिय पोता-पोती को सुनाने के लिए।

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सुधाकर अदीब
चन्द्र सदन, 15-वैशाली एन्क्लेव,
सेक्टर-9, इन्दिरानगर,
लखनऊ-226016
<[email protected]>

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0 Comments

  1. Aradhana Lavania

    July 30, 2014 at 8:54 am

    कहानी पढ़ी, मार्मिक है़़़़ वृदधावस्था के एकाकीपन का सजीव चित्रण है। भाषा में लोक व्यवहार के शब्द ,,,,जैसे घास का ‘उंचिया ‘ जाना आदि भाषा को सरल बना देता है।अधिक लिखने की सामर्थ्य मुझमे नहीं है । कहानी रुचिकर है।

  2. Arvind Pandey

    July 30, 2014 at 10:35 am

    Fantastic story which is revealing the life`s truth.

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