‘दीवार’ फिल्म का एक सीन याद है आपको जिसमें एक मुनीम टेबल लगाने के बाद मजदूरों को लाईन लगवाकर उनकी मजदूरी बांटता है। आज के इस डिजिटल दौर में भी अगर इसी तरह पत्रकार लाईन में लगकर अपनी तनख्वाह पायें तो शायद इससे बड़ी शर्म की बात कुछ नहीं हो सकती है। मगर यह सच्चाई है। रांची में सन्मार्ग अखबार में कमोबेश इसी तरह मीडियाकर्मियों को लाईन में लगाकर अपनी तनख्वाह लेनी पड़ती है। वह भी बिना किसी इनवेलप के। चर्चा है कि यहां मीडियाकर्मी लाईन में लगते हैं और मुनीम रुपी क्लर्क सबके सामने गिनकर लोगों को बिना इनवेलप के हाथ में पैसा थमाकर बाउचर पर साईन कराता है। जिस दिन तनख्वाह बंटनी होती है उस दिन कार्यालय का एक प्यून आता है और सबको कहता है सभी लोग लाईन में लग जाइये। लोग समझ जाते हैं कि तनख्वाह मिलने वाली है।
बताते हैं कि इस अखबार के रांची संस्करण में मीडियाकर्मियों के शोषण का आलम यह है कि यहां कई मीडियाकर्मियों का पीएफ नहीं काटा जाता और मजीठिया वेज बोर्ड तो दूर की कौड़ी है। इस अखबार के एक मीडियाकर्मी ने मेल भेजकर और टेलीफोन पर हुयी बातचीत में जो जानकारी उपलब्ध करायी है उसके मुताबिक पत्रकारों को प्रताड़ित करने का पुराना शगल रहा है रांची से प्रकाशित सन्मार्ग प्रबंधन का और प्रकाशन वर्ष 2009 से ही सन्मार्ग प्रबंधन यहां प़त्रकारों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करता आ रहा है। कई पत्रकारों ने अपने अधिकार के लिए आवाज उठाई तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
एक और चौंकाने वाली जानकारी सामने आयी है कि विगत सात-आठ साल में 72 कर्मियों ने रांची से प्रकाशित सन्मार्ग अखबार की नौकरी छोड़ दिया है। इनमें 58 पत्रकार, 6 छायाकार व 6 विज्ञापन प्रबंधक शामिल हैं। इनमें से कई पत्रकार प्रबंधन के कर्मचारी विरोधी रवैये के कारण संस्थान छोडने को विवश हुए। वहीं कुछ कर्मियों को मजीठिया वेज बोर्ड के अनुसार वेतनमान की मांग करने, पीएफ-ईएसआई की सुविधा देने, वेतन भुगतान चेक से या बैंक के माध्यम से करने सहित अन्य सुविधाएं मांगे जाने पर हटा दिया गया। प्रबंधन के पत्रकार विरोधी रवैये के खिलाफ एक पत्रकार सुनील सिंह ने लेबर कोर्ट में शिकायत दर्ज कराई है जहां सुनवाई चल रही है।
शशिकांत सिंह
पत्रकार और आरटीआई एक्सपर्ट
९३२२४११३३५
Raj Alok Sinha
July 25, 2017 at 11:27 am
यही हाल तो रांची एक्सप्रेस का भी है. यहां भी ज्यादातर कर्मचारियों को इसी तरह कैश में बारी-बारी से सैलरी दी जाती है, वह भी काफी मशक्कत व फजीहत के बाद. नोटबंदी के बाद सरकार के लाख सख्ती के बावजूद यहां अबतक कैशलेस का कोई असर नहीं दिखा. इस मुद्दे पर सरकार को भी एक्शन लेना चाहिए व इस मामले की तहकीकात करनी चाहिए. कोई भी कानून से उपर नहीं है. क्या समाचारपत्र के दफ्तर में कानून लागू नहीं होते? इस दफ्तर में कर्मियों को पीएफ का लाभ भी नहीं मिल रहा है. प्रबंधन बिना कोई नोटिस के किसी का भी हिसाब कर उसे नौकरी से बेदखल करने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है. अभी हाल में संपादकीय विभाग में कार्यरत दो-तीन लोगों के साथ यही व्यवहार किया गया है. और तो और कई लोगों के छोड़ने या हटाने के बाद काफी दिनों तक उन्हें अपना बकाया पैसा लेने के लिए भी काफी दौड़ाया जाता है. ऐसे में सन्मार्ग का प्रबंधन तो उससे बेहतर है कि वह किसी इंप्लाई का बकाया पैसा तो नहीं रखता.