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सियासत

सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के मानव मात्र होने में भी मुझे संदेह है!

समरेंद्र सिंह-

एक बार हत्या पर बहस हो रही थी। किसी ने तर्क दिया कि “तुम लोग बेरहमी से कत्ल कर दिया” क्यों लिखते हो? कत्ल करने वाला तो बेरहम ही होता है और कत्ल तो बेरहमी से ही किया जाता है। पहली नजर में दलील दमदार लगती है। लेकिन ऐसा है नहीं।

मसलन किसी से दुश्मनी चल रही हो और इस स्तर पर चल रही हो कि या तो वो मारा जाएगा या आप। ऐसी सूरत में अगर आपका दुश्मन हथियारों के साथ आपके दरवाजे पर चढ़ आता है तो आप उसे जिंदा नहीं छोड़ सकते। फिर उसे मारना, खुद का बचाव करना है। बहुत उदार लोग यह कह सकते हैं कि मारने वाला बेरहम है, लेकिन जिसकी जिंदगी दांव पर लगी हो उसके लिए रहम और बेरहम जैसे सवाल बेतुके हैं।

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ठीक इसी तरह हत्या की वारदात में डिग्री का बहुत महत्व है। मतलब हत्या किस तरह की गई है? हत्यारे का मकसद क्या था? अगर सब हत्या एक ही जैसी होती है तो फिर निठारी कांड के सुरेंद्र कोली को किस श्रेणी में रखा जाएगा, जो बच्चों को मार कर खा जाता था? तंदूर कांड वाले सुशील शर्मा को किस श्रेणी में रखा जाए, जिसने अपनी पत्नी को मार कर, टुकड़े-टुकड़े करके तंदूर में जला दिया था? उन हत्यारों को किस श्रेणी में रखेंगे जो सिर्फ मनोरंजन के लिए या फिर निशाना लगाने के लिए किसी को गोली मार देते हों? कोई हत्यारा इलाके के शांतिप्रिय समाज सेवक को सिर्फ इसलिए कत्ल कर देता हो कि इलाके में उसकी दहशत कायम रहे, ऐसे व्यक्ति को आप किस श्रेणी में रखेंगे?

इसलिए हत्या के साथ बेरहम, विभत्स और घिनौना शब्द जोड़ने में कोई बुराई नहीं। ठीक इसी तरह हत्यारे के साथ विकृत और बीमार जोड़ने में कोई बुराई नहीं है।

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हत्या की तरह ही एक शब्द है लापरवाही। लापरवाही में जान चली जाती है। एक बार मैं ही गाड़ी चला रहा था और मुझे झपकी आ रही थी। कायदे से मुझे रुक जाना चाहिए था, लेकिन मैं रुका नहीं। एक मोड़ पर मेरी गाड़ी फुटपाथ से लड़ी और पलट गई। हालांकि मैं बच गया। वहां पर कोई दूसरा आदमी नहीं था इसलिए किसी को चोट नहीं लगी। लेकिन कुछ भी हो सकता था। अगर कोई होता और उसे चोट लग जाती तो ये आपराधिक लापरवाही होती। मुझे ही कुछ हो जाता तो मैं अपने परिवार की नजर में गुनहगार रहता।

हत्या की तरह लापरवाही भी आपराधिक, विभत्स और क्रूर हो सकती है। इस समय हमारा देश एक ऐसी ही विकृत और आपराधिक लापरवाही का दंश झेल रहा है। हजारों-हजार लोग असमय मृत्यु का शिकार हुए हैं । और मैं ये दावे से कह सकता हूं कि ये उन लोगों के जाने का वक्त नहीं था। वो सिर्फ और सिर्फ इसलिए गए क्योंकि सत्ता के शीर्ष पर एक ऐसा शख्स बैठा है जिसके समर्थक उसे महामानव मानते हैं, लेकिन मुझे उसके मानव मात्र होने पर भी संदेह है।

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किसी के राज में लोग ऑक्सीजन की कमी से मर जाएं, एक दो नहीं हजारों लोग मर जाएं और हम हर रोज लाशें गिनते रहें तो उस नेता को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। लानत है इन सब पर।

आपकी हैसियत श्मशान लायक ही है, अपनी बारी की प्रतीक्षा कीजिए

1997-98 की बात है एक वरिष्ठ गांधीवादी के साथ कुछ घंटों की यात्रा का मौका मिला। उन दिनों मैं सवाल बहुत करता था। मेरी पोटली में अजीब-अजीब से सवाल रहते थे। मैंने उनसे पूछा कि आपको क्या लगता है, हमारा देश किस मोड़ पर भटक गया? उन्होंने बहुत सीधा और सपाट जवाब दिया। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तीनमूर्ति भवन में रहने लगे और राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति भवन में रहने लगे तभी देश अपनी राह से भटक गया था। तीनमूर्ति भवन और राष्ट्रपति भवन गुलाम भारत में सत्ता के केंद्र थे और इस नाते वो शोषण के पर्याय थे। वहां पर ब्रितानी हुकूमत के प्रतिनिधि रहते थे। भारत एक गरीब मुल्क था। इसके नायक शोषण के उन्हीं अड्डों को अपना आशियाना बना लें, उन्हीं की तरह भव्य जीवन जीने लगें तो फिर इस देश के आम जन प्रतिनिधियों से ईमानदारी और सादगी की उम्मीद बेमानी हो जाती है।

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उनकी वह बात अब भी ध्यान है। जवाहर लाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद ने इस देश की धारा ही मोड़ दी। सभी नेताओं में त्याग की भावना भरने की जगह ऐशो-आराम की चाहत पैदा कर दी। अब हमारे नेता त्याग नहीं करते हैं। वो जनता को लूटने का उपक्रम चलाते हैं। जनता के पैसे से अस्पताल और स्कूल-कॉलेज नहीं बनवाते हैं, अपने लिए महल बनवाते हैं। महंगी गाड़ियां खरीदते हैं। हवाई जहाज खरीदते हैं। और जब ये कम पड़ता है किसी कंपनी से उसका हवाई जहाज उधार लेते हैं। उसके एवज में न जाने क्या क्या बेच देते होंगे – इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

जिस देश का प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री लाखों रुपये का सूट पहनता हो, लाखों रुपये की घड़ी पहनता हो, लाखों रुपये के कलम से हस्ताक्षर करता हो, निजी कंपनियों के जहाज में घूमता हो, दाढ़ी पर आधे-आधे घंटे का स्पा कराता हो – उस देश की जनता ऐसी ही मौत मरती है जैसे भारत की जनता मर रही है।

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मिट्टी जब तपने लगती है तो चिटियां तड़प कर दम तोड़ देती हैं। आज हमारे मुल्क के आम लोगों की कुछ ऐसी ही स्थिति है। कोई एंबिलेंस में दम तोड़ रहा है। कोई अस्पताल के बाहर फुटपाथ पर तो किसी की जान ऑटो में जा रही है। मरने वालों में कुछ ऐसे भी बदनसीब हैं, जिनकी हैसियत इतनी भी नहीं कि ऑटो कर सकें। वो अपनी झोपड़ी में ही लावारिस मौत मर जा रहे हैं। उन्हें आंकड़ों में भी जगह नहीं मिल रही है।

फिर भी हम आजाद हिंदुस्तान के बेशर्म, बेगैरत लोग अपनी बेबसी का तमाशा देख रहे हैं। पढ़ रहे हैं। मगर आवाज उठाने की जगह हाथ जोड़े महाकाल से रहम की भीख मांग रहे हैं। नेता को कुछ नहीं कह रहे। जिन्हें हमने विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनाया है – उनसे हम सांसों का अधिकार नहीं मांग रहे। रहम की भीख मांग रहे हैं, गिड़गिड़ा रहे हैं – वो भी महाकाल नामक ऐसी ताकत से जो भ्रम के सिवाय कुछ नहीं। अगर वो यकीनन होता तो शर्म से मिट्टी में गड़ जाता। अपनी मौत मर जाता।

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ब्रिटेन की महारानी एक बार भारत आई थी। तब जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने करोड़ों रुपये उनके स्वागत पर खर्च किए थे। जिस पर राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि ये पैसे नेहरू के बाप के नहीं हैं जो इस तरह उड़ा रहे हैं।

हजारों साल नरगिस के रोने पर बीजेपी के युगपुरुष नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी जी मौज करने और मौज लेने के लिए इस धरती पर अवतरित हुए हैं। इस गरीब मुल्क में मोदी जी पॉवर कॉरिडोर बना रहे हैं। उसका नाम है सेंट्रल विस्टा। इसकी लागत है 14000 करोड़ रुपये। और ये पैसे मोदी जी के बाप के हैं। उनके बाप बिल गेट्स से भी अधिक अमीर थे। अपने बाप के पैसे से वो इस गरीब मुल्क में ऐसा ऐतिहासिक पॉवर कॉरिडोर बना रहे हैं, जिसके आगे दुनिया के बड़े से बड़े हुक्मरानों की ऐशगाह फीकी पड़ जाएगी।

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आप चिंता मत कीजिए। आपकी हैसियत श्मशान जाने लायक है। अपनी बारी की प्रतीक्षा कीजिए। आपकी बारी आएगी। बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी।


सौमित्र रॉय-

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पौने 4 करोड़ वैक्सीन डोज़ पर 56 करोड़ का GST नरेंद्र मोदी की बेरहम तानाशाह सरकार ही वसूल सकती है।

देखना है कि मोदी कफ़न, दफ़न और दाह-संस्कार पर भी कब से GST वसूलना शुरू करता है।


कृष्ण कांत-

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दस लाख का सूट, साढ़े आठ हजार करोड़ का विमान, 20 हजार करोड़ का हवा महल. महंगे कपड़े, महंगी सदरी, महंगी घड़ी, महंगा चश्मा, महंगी शॉल… 13 साल सीएम, 7 साल पीएम और फिर ‘गरीब मां का फकीर बेटा’. क्या फकीरी है! काश फकीरी में फूंका जा रहा ये धन उन निरीह लोगों को मिलता, जिन्हें आज सांस लेने और जान बचाने का संकट है.

इस वक्त जरूरी क्या है? प्रधानमंत्री के लिए नया हवा महल या मरते हुए लोगों की बुनियादी जरूरतें? जरूरतमंद हैं अस्पतालों में ऑक्सीजन के बिना तड़प रहे मरीज, दवा के बिना छटपटा रहे लोग, अस्पताल न मिलने से सड़क पर तड़प रहे लोग, वेंटिलेटर न मिलने से दम तोड़ते लोग. काश उन्हें भी इस फकीरी का एक हिस्सा नसीब होता!

काश ये फकीरी उन 23 करोड़ लोगों को भी नसीब होती जो एक साल के भीतर गरीबी रेखा से नीचे चले गए! उन 10 से 15 करोड़ लोगों को मिलती जो पिछले एक साल में बेरोजगार हो गए. असली सवाल प्राथमिकता का है.

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आपका बच्चा भूख प्यास से मर रहा हो तो आप सबसे पहले उसे खाना पानी देंगे या रसगुल्ला खाने बाजार चले जाएंगे? हमारी सरकार यही कर रही है.

विषाणु के प्रकोप के बीच भक्ताणुओं का समूह पूछता घूम रहा है कि विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों के मुख्यमंत्री क्या कर रहे हैं? सवाल एकदम जायज है. लेकिन अब तक जो ‘कोरोना से लड़ाई का मोदीमंत्र’ जाप हो रहा था, उसका क्या हुआ? पहली लहर थम गई थी तो मोदीमंत्र को श्रेय मिला. अब लोग मुसीबत में हैं तो मोदी जिम्मेदार नहीं हैं? संदिग्ध पीएम केयर फंड बनाकर जो पैसा वसूला गया, उसका क्या? आठ महीने पहले 162 ऑक्सीजन प्लांट लगाने की फर्जी घोषणा का क्या? पीएम केयर से भेजे गए घटिया वेंटिलेटर का क्या?

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अगर पूरे देश पर आपदा है तो आप सीएम और डीएम से सवाल क्यों पूछा जाना चाहिए? अगर विदेशी धरती पर जाकर कोरोना से लड़ाई का श्रेय प्रधानमंत्री को चाहिए तो कोरोना से निपटने की राष्ट्रीय योजना किसे बनानी चाहिए?

रैली नहीं रोकी गई. जनता के धन की बर्बादी नहीं रोकी गई. भाषण नहीं रोका गया. प्रचार नहीं रोका गया. मन की बकवास नहीं रोकी गई. कोरोना नहीं रोका गया. लेकिन जनता की आवाज रोकी गई. आम जनजीवन रोका गया और आम लोगों की सांस रोकी गई.

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लाखों लोगों को संकट में छोड़कर हवा महल बनवाने के कुछ उदाहरण मध्य युग में मिलते हैं जहां कोई सनकी तानाशाह अपने अमर होने की तमन्ना में अपनी प्रजा का बर्बादी के कगार पर ला छोड़ता था. ‘हिंदू खतरे में है’ कहकर पूरे देश को खतरे में डाल दिया गया है.

इस संकट के इस ताबूतनुमा हवा महल को ‘जरूरी सेवाओं’ में क्यों डाला गया है? क्या इसका बनना लाखों लोगों की जान बचाने से ज्यादा जरूरी है?

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अविचल दुबे-

‘सरकार’ ने बड़ी चालाकी से आपको झूठ बेचा,
मजे की बात आपने खरीदा भी_____जानिए जरा

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  • बीते एक बरस में सरकार ने दो शब्द खूब जपे हैं. “आत्मनिर्भर भारत”. ये स्लोगन, नारा, वादा, एलान, घोषणा, उम्मीद सबकुछ है लेकिन नहीं है तो बस सच. कोरोना की दूसरी लहर ने भारत का जो हाल किया है वो सिर्फ एक वायरस की कमी नहीं, उससे कहीं ज्यादा बड़ी गलती सरकार के ओवर कॉफिंडेंस की है. एक साल पहले 12 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना महामारी से निपटने के लिए जो रास्ता सुझाया वो था आत्मनिर्भर भारत.
  • सरकार ने इसके लिए 20 लाख करोड़ के एक भारी-भरकम पैकेज का एलान भी किया लेकिन उस इन्वेस्टमेंट का फायदा पाने वाले आपको ढूंढने से नहीं मिलेंगे. आज देश की स्थिति इतनी ज्यादा खराब हो चली है मोदी सरकार को 16 साल पहले मनमोहन सरकार की विदेशी मदद ना लेने वाली पॉलिसी तक को बदलना पड़ा. साल 2004 में सुनामी के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बेहद विनम्र तरीके से विदेशी मदद ये कहते हुए रिसीव नहीं की थी कि हम अपने हालातों से खुद निपट सकते हैं. उसके बाद देश ने कई आपदाओं को झेला लेकिन कभी विदेशी मदद नहीं ली बल्कि दुनियाभर के लिए मदद का हाथ हमेशा आगे रखा.
  • आत्मनिर्भर भारत का फर्जी नारा बुलंद करने वाली मोदी सरकार अब तक 40 से ज्यादा देशों से मदद ले चुकी है. सालभर पहले 21वीं सदी को भारत की सदी बताते हुए पीएम मोदी ने कहा था अभी पूरी दुनिया भारत पर ही नजर टिकाए बैठी है. भारत की दवा, हेल्थ केयर प्रोडक्ट्स की पूरी दुनिया में तारीफ होती है. लेकिन अभी के हालात देखकर लगता है सरकार किसी मुगालते में थी. जिस भारत को पीएम ने दुनियाभर के लिए सामान सप्लायर बताया आज वो पूरी दुनिया के सामने हाथ फैलाये खड़ा है.
  • कैसे “आत्मनिर्भर भारत” जैसे बड़े अभियान सिर्फ सालभर दम तोड़ दिया और हमारी निर्भरता इस कदर हो चली है कि हम हमारी आस, निगाहें तमाम देशों से मदद पर लगी रहती हैं. पीएम मोदी की कही सारी बातें आज बिल्कुल उलट साबित हो रही हैं.
  • पीएम मोदी ने आपदा में अवसर, वोकल से लोकल और आत्मनिर्भर भारत जैसी बड़ी बातें की तो सहीं लेकिन उनके लिए ना कोई भी विजन रखा और ना ही कोई प्लान ऑफ एक्शन तैयार किया. आज नौबत ये है कि आत्मनिर्भर बनने चला भारत विदेशों से हेल्प, गिफ्ट, डोनेशन सबके लिए विदेशों पर निर्भर है.
  • मोटे तौर पर बाहर से मदद के रूप में अबतक करीब 300 टन कोविड आपातकालीन राहत सामग्री भारत पहुंची है, जिसमें है
  • ऑक्सीजन कॉन्संट्रेटर्स- 5,500
  • ऑक्सीजन सिलिंडर- 3,200
  • आक्सीजन सिलिंडर रेगुलेटर- 1 हजार से ज्यादा
  • N-95 मास्क- 10 लाख से ज्यादा
  • लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन- 20 मीट्रिक टन (UAE),
    दूसरे देशों से और भी लिक्विड ऑक्सीजन और एक प्लांट
  • BiPAP मशीन- 480
  • इसके अलावा अमेरिका ने 10 करोड़ डॉलर की मदद भारत को दी है. 10 करोड़ डॉलर का मतलब हुआ करीब 730 करोड़ रूपये.
  • पिछले साल 8 अक्टूबर को पीएम मोदी ने भारत को वर्ल्ड फार्मेसी बताया था. यानी दुनिया के लिए दवा बनाने वाला देश. लेकिन आज स्थिति ये है कि देश में लोग रेमेडिसिवर, टोसीलीजुमैब जैसे इंजेक्शन के लिए दर-दर भटक रहे हैं और ब्लैक मार्केट से इन्हें हजारों-लाखों रूपये में खरीदने को मजबूर हैं. फैबीफ्लू और मेड्रोल जैसी दवाएं बाजार से गायब हैं. वर्ल्ड फार्मेसी का क्लेम करने वाले देश को अबतक करीब 1.5 लाख रेमेडिसिवर की विदशी मदद मिली तो दूसरे इंजेक्शन्स और दवाएं भी कई देश लगातार भेज रहे हैं.
  • तारीख 26 सितंबर 2020 को पीएम ने दुनिया को कोविड से निजात दिलाने के लिए भारत में वैक्सीन निर्माण को सबसे जरूरी बताया. ये बात बिल्कुल सच है कि भारत दुनिया में सबसे ज्यादा वैक्सीन बनाता है. हमें वैक्सीन हब कहा जाता है लेकिन ऐसे टैग का क्या ही फायदा कि पहले तो वाहवाही दिखाने के लिए अपने लोगों के लिए सर्वाधिक जरूरी वैक्सीन दुनियाभर में बांटों और फिर संकट काल में उसके लिए मोहताज हो जाओ. दरअसल सरकार दूरदर्शिता ना दिखाते हुए करोड़ो-करोड़ वैक्सीन डोजेस वैक्सीन डिप्लोमेसी के नाम पर कई देशों को दीं. भारत अबतक 80 देशों को 6.5 करोड़ से ज्यादा वैक्सीन भेज चुका है.
  • नतीजा ये हुआ कि आज हमारे वैक्सीन सेंटर्स में वैक्सीन ही नहीं है. ना कोई बफर नहीं, ना कोई स्टॉक बल्कि टारगेट से कम ऑर्डर. जुलाई तक 30 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगाने का प्लान करने वाली सरकार को 60 करोड़ डोज चाहिए लेकिन अबतक सरकार ने सिर्फ 45 करोड़ वैक्सीन डोज का ऑर्डर दिया हुआ है. इसका रिफ्लेक्शन ये है कि आप अपने आस-पास वैक्सीन की कमी की कहानी ही सुनते होंगे. स्थिति इतनी खराब है कि जिस एस्ट्राजेनेका कंपनी की कोवीशील्ड वैक्सीन का प्रोडक्शन भारत का सीरम इंस्टीट्यूट करता है अब वही वैक्सीन विदेश से आने वाली है.
  • पॉलिसी मेकिंग में भारत के हालात इस कदर खराब हैं कि आत्मनिर्भर भारत के नाम से साल में 20 लाख करोड़ का एक्स्ट्रा बजट देने वाली सरकार इस बार भी पक्का काम नहीं किसी नारे के सहारे ही लोगों से संवाद करेगी. शायर दुष्यंत कुमार का ये शेर इस वक्त भारत की सच्चाई काफी करीब से बयां करता है.

“कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए
कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए…”

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