Jaishankar Gupta : दुखद सूचनाओं का सिलसिला है कि टूटने का नाम ही नहीं ले रहा। अभी अपने से बड़े लेकिन इलाहाबाद के दिनों से ही मित्र नीलाभ अश्क के निधन से उबर भी नहीं सके थे कि लल्ला जी- योगेंद्र कुमार लल्ला उर्फ योकुल के निधन के समाचार ने भीतर से हिलाकर रख दिया। लल्ला जी को जानता तो था मैं उनके धर्मयुग के जमाने से ही, लेकिन उन्हें करीब से जानने- समझने का अवसर कलकत्ता, आज के कोलकाता में आनंद बाजार पत्रिका के हिंदी साप्ताहिक रविवार के साथ जुड़ने के बाद मिला।
योगेंद्र कुमार लल्ला
लल्ला जी, बच्चों की बांग्ला भाषी लोकप्रिय पत्रिका आनंदमेला के हिंदी संस्करण मेला के संपादक के रूप में आनंद बाजार पत्रिका के साथ जुड़े थे। मेला के असामयिक अवसान के बाद वह रविवार के संयुक्त संपादक बन गए थे। उस समय रविवार के संपादक थे, हमारे एसपी यानी सुरेंद्र प्रताप सिंह। बाद में, एसपी सिंह के नवभारत टाइम्स के साथ जुड़ने के बाद उदयन (शर्मा) जी रविवार के संपादक बने तब भी या कहें रविवार के भी असमय अवसान तक लल्ला जी रविवार के साथ उसी पद पर बने रहे।
हम 1982 के शुरुआती महीनों में रविवार की संपादकीय टीम के साथ बतौर उपसंपादक जुड़े थे। उससे पहले रिटेनर के रूप में रिपोर्टिंग करते थे। रविवार के संपादकीय कार्यालय में मुझे लल्ला जी के पास ही बैठने और उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। हमारा निवास, उत्तर कोलकाता में सिंथी मोड़ के पास आटापारा लेन, लल्ला जी के बांगुर एवेन्यू के मकान के करीब ही था। उनके घर हमारा अक्सर, खासतौर से साप्ताहिक अवकाश के दिन, आना जाना लगा रहता था। वह हमारे, बड़े, संरक्षक भाई की तरह थे। भाभी भी बहुत स्नेहिल थीं।
रविवार के बंद होने के बाद भी कुछ महीनों तक हम लोग आनंदबाजार पत्रिका के साथ रहे। तब हम पटना में थे।
दिल्ली में हम नवभारत टाइम्स के साथ हो लिए। कुछ समय बाद लल्ला जी मेरठ में अमर उजाला के साथ फीचर संपादक के रूप में जुड़ गए थे। एक बार हम सपरिवार मेरठ उनके निवास पर गए थे। भाभी बच्चों को देख बेतरह खुश हुई थीं क्योंकि कोलकाता प्रवास के समय हमारे बच्चे नहीं थे।
कुछ वर्ष पहले उनसे वैशाली के उनके निवास पर मुलाकात हुई थी, लंबी। खूब सारी बातें हुई थीं, नई पुरानी। धर्मयुग से लेकर रविवार और इन कालजयी पत्रिकाओं के साथ जुड़े लोगों, राजनीति आदि के बारे में भी। उसके बाद से हमारा मिलना नहीं हुआ। वह क्रासिंग रिपब्लिक, गाजियाबाद में रहने चले गए थे। आज जब अकस्मात उनके निधन का समाचार मिला तो सहम सा गया। एसपी, उदयन जी के बाद लल्ला जी भी चले गए। लेकिन इन तीनों के साथ बिताए पल और उनसे जुड़ी समृतियां झकझोर रही हैं। नियति पर किसी का जोर नहीं, इस यथार्थ को स्वीकार कर पाना भी भारी पड़ रहा है। उनके साथ जुड़ी स्मृतियों को प्रणाम।
अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त की एफबी वॉल से. इस पोस्ट पर आए कई कमेंट्स में से प्रमुख दो कमेंट्स इस प्रकार हैं…
Satyendra Pratap Singh प्रशिक्षु पत्रकार से उप संपादक व संवाददाता बनाने में योगेंद्र कुमार लल्ला जी का बहुत बड़ा योगदान था।रविवार बंद होने के बाद मैं उनसे जब मिलकर कहा कि आप कल दिल्ली जाकर घनश्याम पंकज जी मिल लीजिये।उन्होंने आपको दिनमान टाइम्स ज्वाइन करने के लिए बुलाया है तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ था।फिर उनके सामने मैं पंकज जी को फोन करके उनसे बात करवाया था।बाद में वह पंकज जी के साथ ‘स्वतंत्र भारत’ के लिए लखनऊ भी गए थे।लल्ला जी से मेरी आखिरी मुलाक़ात एस पी सिंह जी की अंतिम यात्रा में 19 साल पहले हुई थी। भावभीनी श्रद्धांजलि।
Satish Misra अपने जर्मनी प्रवास के दौरान धर्मयुग में लिखने का अवसर मिला। धर्मवीर भारती जी से खितोकिताबत होती थी पर उतर या तो सरल जी का या लल्ला जी का आता था। एक बार मुलाकात मुम्ब्बई में धर्मयुग के दफ्तर में हुई। उनसे फिर मुलाकात नहीं हुई। दुःख हुआ। श्रधांजलि
Kuldeep Panwar
July 24, 2016 at 7:52 pm
लल्ला सर से कभी सीधे बात करने का मौका नहीं मिला, लेकिन अमर उजाला मेरठ में ट्रेनी के तौर पर जुड़ते ही सबसे पहली बात जो वरिष्ठों ने समझाई, वो थी कि लल्ला जी वर्तनी फलां जगह सेव है, उसे पढो और रट लो। अमर उजाला में आने वाले हर ट्रेनी के लिए वह वर्तनी भगवद् गीता का स्वरूप होती थी। तब लल्ला सर का फीचर सेक्शन शशि जी के केबिन के पीछे की तरफ होता था और जितना डर हमें शशि जी की डांट से लगता था, उतना ही लल्ला सर के सेक्शन की तरफ जाने से। लगता था कि चेहरे से धीर-गंभीर दिखने वाले लल्ला जी शायद अभी डांट देंगे। हालांकि कभी ऐसा हुआ नहीं। मैं मानता हूं कि आज जितना भी शब्दों का जाल बुनना हमने सीखा है, उसमें लल्ला सर की वर्तनी को रटने का बड़ा योगदान है।
उनका जाना हिन्दी पत्रकारिता के लिए बड़ी क्षति है। विनम्र श्रद्धांजलि