कानपुर वाले विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद ब्रह्मदेव मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से बेहद नाराज हैं। नाराजगी इतनी है कि उनके श्राप से योगी का इन्द्रासन डोलता नजर आने लगा है। कोरोना संकट के प्रबंधन की ब्राडिंग से योगी ने जो साख और प्रसिद्धि कमाई थी उस पर फिलहाल पानी फिर चुका है। खबर है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने आधा सैकड़ा से अधिक ब्राह्मण विधायकों से इस मुद्दे पर उनका मन टटोलने के लिए बात की है। उधर योगी ने मंत्रिमंडल के विश्वसनीय ब्राह्मण सहयोगियों को अपनी बिरादरी को मनाने के लिए लगाया है।
योगी आदित्यनाथ को किसी और ने नहीं खुद उन्होंने जातिवादी छवि के दायरे में कैद किया है। पदभार संभालने के बाद योगी ने जाति प्रेम का कुछ ज्यादा ही उत्साह दिखाया। पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर से उनकी पार्टी का कोई संबंध नहीं था लेकिन फिर भी उनके भक्त पूर्व एमएलसी यशवंत सिंह के द्वारा उनके नाम पर किये जाने वाले आयोजनों को उन्होंने जमकर तवज्जो दी। बुद्धिजीवी चन्द्रशेखर का कैसा भी महिमा मंडन करें लेकिन असलियत यह है कि उनकी छवि ठाकुर बिरादरी के माफिया राजनीतिज्ञ की रही है। इसलिए उनकी चन्द्रशेखर भक्ति से लोगों का शुरू में ही सशंकित हो जाना स्वाभाविक था। यशवंत सिंह की भी उन्होंने पार्टी में न होते हुए भी बड़ी मदद की। आज उन पर सबसे ज्यादा निशाना राजा भैया का नाम लेकर साधा जा रहा है। राजा भैया भी समाजवादी पार्टी में सत्ता सुख भोगते रहे। उनके कार्यकाल में भाजपाइयों का दमन हुआ यहां तक कि योगी आदित्यनाथ का भी। फिर भी योगी ने उन्हें जरूरत से ज्यादा वरीयता दी। यहां तक कि उनके कहने से अपने सचिवालय में कुछ सजातीय अधिकारी नियुक्त किये ताकि राजा भैया सीधे शासन से अपने काम करवा सकें। वैसे भी योगी पार्टी के समानांतर संगठन चलाने के लिए बदनाम रहे हैं। भाजपा में रहते हुए भी उन्होंने पार्टी के उन प्रत्याशियों को हरवाने के लिए जिनसे वे नाराज होते थे हिन्दु युवा वाहिनी बनाई थी। उनके मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी पार्टी के आपत्ति करने के बावजूद यह वाहिनी सक्रिय रही। गोरखपुर की मठ की राजनीति ब्राह्मण विरोधी मानी जाती रही है। जब योगी ने अपने जेबी संगठन की बदौलत शिवप्रताप शुक्ला को चुनाव हरवाया था तब उनकी छवि और ज्यादा ब्राह्मण विरोधी बना दी गई थी। इसके बावजूद उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद अधीरता दिखाई। हरिशंकर तिवारी के घर पुलिस की दबिश डलवाकर उन्होंने ब्राह्मणों के जख्म हरे कर दिये। इसके बाद जब उनकी पार्टी के ब्राह्मण विधायक तक उनके खिलाफ लामबंद हो गये तो योगी को बैकफुट पर आना पड़ा।
इसी तरह डीजीपी की नियुक्ति के मामले में भी योगी की छवि जातिवादी के तौर पर और गाढ़ी हुई। बहुत से लोग शुरू में नहीं चाहते थे कि ओपी सिंह को डीजीपी बनाया जाये लेकिन उनसे आगे चल रहे सूर्य कुमार शुक्ला आदि को दरकिनार कर योगी ने ओपी सिंह को ही चुना। हालांकि इसके पीछे ब्राह्मण विरोध का कारण कम था। उन पर हाथ रखकर राजनाथ सिंह के खिलाफ पार्टी में जो पाॅलिटिक्स हो रही थी उसमें योगी इस्तेमाल हो गये। उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह से बड़े ठाकुर नेता के रूप में अपने को स्थापित करने के लिए उन्होंने दूसरों की शह पर उतावलापन दिखाया जिसकी प्रतिक्रिया ब्राह्मणों में विपरीत हुई जबकि सही बात यह है कि योगी ब्राह्मणों से डरते हैं। उन पर प्रशासनिक नियुक्तियों में बैकवर्ड और दलितों की उपेक्षा का आरोप लगा लेकिन वे इससे कभी विचलित नहीं हुए लेकिन जब एक ब्राह्मण पत्रकार ने डायरेक्ट टीवी टेलीकास्ट में उन पर यह आरोप लगा दिया कि वे प्रशासन में ब्राह्मणों के साथ भेदभाव कर रहे हैं तो योगी निस्तेज से हो गये। हितेश चन्द्र अवस्थी को वे मुख्य सचिव और अपर मुख्य सचिव गृह के ब्राह्मण होते हुए वैसे कभी डीजीपी न बनाते लेकिन यह इसी का नतीजा था।
योगी जी अपने क्रियाकलापों में कहीं न कहीं हीन भावना का शिकार नजर आते हैं। उन्हें यह भान है कि वे थोपे हुए मुख्यमंत्री हैं जिनकी सहज स्वीकृति अभी विभिन्न हलकों में नहीं बन पाई है इसलिए वे ब्राह्मणों से नहीं सभी से डरते हैं। उनके शपथ ग्रहण के कुछ ही महीनों बाद वृन्दावन में संघ की समन्वय समिति की बैठक हुई थी जिसमें नये नवेले विधायकों के बदतर आचरण पर अंकुश लगाने की आवाज उठाई गई थी। योगी ने आश्वासन दिया था कि इस मामले में प्रभावी कदम उठाये जायेंगे। पर उन्हें लगा कि विधायकों में अगर उनकी सख्ती से नाराजगी फूटी तो उनकी कुर्सी के लिए खतरा हो सकता है। इसलिए उन्होंने चुप्पी साध ली। विधायक भी पहले अपने खिलाफ कोई शिकायतों से डर गये थे क्योंकि योगी के तेवरों को लेकर उन्हें अंदेशा था कि योगी बर्दास्त करने वालों में से नहीं हैं लेकिन बाद में जब उन्होंने योगी को व्यवहार में ढ़ीला देखा तो उनका संकोच जाता रहा। यही हालत नौकरशाही को लेकर हुई। योगी ने आते ही फरमान जारी किया कि अफसरों को हर साल अपनी इनकम और परिसंपत्तियों की जानकारी शपथ पत्र के रूप में शासन को दाखिल करनी पड़ेगी पर आईएएस अफसरों ने उनकी नहीं मानी। जब उनका मूड बिगड़ता दिखाई दिया तो योगी को बताया गया कि आईएएस अधिकारियों को नाराज करने से सरकार नहीं चल पायेगी। जिससे वे सहम गये और उनका फरमान दफा हो गया।
योगी सुलझे हुए नेता की बजाय अपने को दबंग के रूप में दिखाना चाहते हैं। मुख्यमंत्री के रूप में उनका यह व्यवहार उन पर भारी पड़ रहा है क्योंकि इसमें आवेश विवेक पर हावी हो जाता है। हालांकि विकास दुबे के मामले में जो प्रतिक्रियायें सामने आयी वे बाजिव नहीं हैं। लेकिन कहीं न कहीं इसके पीछे प्रशासन में उनकी जातिगत दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि जिम्मेदार है जिसकी कीमत भले ही ब्राह्मणों की बजाय पिछड़ों और दलितों को चुकानी पड़ी हो। सही बात यह है कि प्रशासनिक क्षमता के मामले में वे संकीर्ण नजरिये की वजह से ही अपनी ही पार्टी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह तक की लाइन को क्रास नहीं कर सके हैं। विकास दुबे ही नहीं प्रदेश के हर जिले में ऐसे दुर्दांत अपराधी अभी भी छुट्टा घूम रहे हैं जिन्हें या तो जेल में होना चाहिए था या जिनका पहले ही एनकाउंटर हो जाना चाहिए था। पर अधिकारियों पर उनका कोई जोर नहीं है और सीधे पब्लिक में उनके सूत्र नहीं हैं जिससे अंधे पीसे कुत्ते खांय का माहौल बना हुआ है। विकास दुबे के एनकाउंटर को लेकर उनकी छीछालेदर पर छीछालेदर हो रही है पर फिर भी इसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों पर वे कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं। शहीद सीओ द्वारा तत्कालीन एसएसपी को लिखे गये पत्र की लीपापोती होने पर उन्हें लखनऊ रेंज की आईजी लक्ष्मी सिंह को जांच के लिए भेजना पड़ा। फिर भी उस वरिष्ठ अधिकारी को उन्होंने सुरक्षित रखा है जिन पर लीपापोती के लिए उंगलियां उठी थी। इसी तरह तत्कालीन एसएसपी के खिलाफ विकास दुबे के प्रति साॅफ्ट कार्नर की गवाही देने वाले साक्ष्य बढ़ते जा रहे हैं फिर भी उनके खिलाफ पर्याप्त एक्शन नहीं लिया जा रहा है। उन्हें डीआईजी पीएसी की पोस्टिंग दी गई जो बेहतर है। जबकि उन्हें या तो डीजीपी दफ्तर से अटैच कर दिया जाना चाहिए था या पीटीसी में फेक दिया जाना चाहिए था। इस कांड से सबक लेकर कदम उठाने के नाम पर जो कवायद की गई है वह भी घिसीपिटी है। पूर्व डीजीपी ओपी सिंह के बहकावे में ऐसे तुगलकी कदम अख्तियार किये गये थे जो कामयाब नहीं रहे थे। उनका एक कदम हर थाने में चार इंस्पेक्टरों की तैनाती का था जिसे बाद में वापस लेना पड़ गया था। इसी तरह हर जिले में पुलिसिंग को सख्त करने के लिए एक सीनियर अधिकारी को नोडल बनाने का कदम न तो पहले मुफीद रहा था और न ही अब मुफीद होगा इसकी कोई आशा है।
बोहरा कमेटी का चिराग कितना कारगर
कानपुर के बिकरू कांड के बाद 1993 में राजनीति, अपराध और पुलिस तिगड्डे की पड़ताल के लिए गठित बोहरा कमेटी की चर्चा नये सिरे से सतह पर आ गई है। ऐसा संदर्भ जब भी आया है बोहरा कमेटी की रिपोर्ट को अलादीन के चिराग की तरह पेश किया जाता रहा है जो कि मर्ज को लेकर अधूरी समझ का परिणाम है। चाहे समाज हो या विधि व्यवस्था इसमें जो विकृतियां आती है उनके पीछे कई कारक काम करते हैं जिनको देखा जाना सम्पूर्ण दृष्टि होने पर ही संभव है।
अपराधीकरण को रोकने के लिए बोहरा कमेटी जैसे ठटकर्म समय-समय पर होते रहते हैं लेकिन इसका नतीजा मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की, जैसा रहता है। उदाहरण के तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि हर चुनाव में उम्मीदवारों को अपने ऊपर दर्ज मुकद्दमों की जानकारी शपथ पत्र के रूप में नामांकन पत्र के साथ देनी होगी। अब तो यह भी तय कर दिया गया है कि उम्मीदवार अपने बारे में इस जानकारी को खुद खर्चा करके व्यापक रूप से प्रकाशित प्रचारित करायेगा। उम्मीद की गई थी कि समाज की मानसिकता पर यह जानकारी झन्नाटेदार असर करेगी जिससे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार के नाम पर उसका जमीर विद्रोह कर जायेगा। लेकिन एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि यह कवायद वेमतलब की साबित हो रही है। समाज में ऐसे ही महारथियों पर निसार हो जाने की प्रवृत्ति है जिससे राजनीतिक दल उम्मीदवारी तय करने में बाहुबलियों को प्राथमिकता देने के लिए मजबूर रहते हैं।
33 करोड़ देवी देवताओं को मानने वाले भारतीय समाज की स्थितियां विचित्र हैं। हिंसा के गुण को इस सांस्कृतिक परिवेश में प्रचुर मान्यता दी गई है। ज्यादातर देवता हैं जो इसी आधार पर जिसे दुष्टदलन का नाम दिया जाता है पूज्य ठहराये गये हैं। इस प्रवृत्ति का सूत्रीकरण समरथ को नहीं दोष गुसाई में निहित किया जाता है। ऐसे में बाहुबली को कानून परित्यक्त या बहिष्कृत ठहराना चाहता है तो उसका कोई सार नहीं है। समस्या की जड़ हमारे सांस्कृतिक डीएनए में है जिसे कैसे दुरूस्त किया जाये यह एक चुनौती है।
हालांकि एक समय ऐसा था जब समरथ को नहीं दोष गुसाई के विश्वास के बावजूद व्यक्तियों को लेकर समाज के सोचने का नजरिया अलग था। उस समय समाज में अपराधी और मसीहा के बीच अंतर करने की तमीज थी। कौन सी हिंसा धर्म की हानि बचाने के लिए मजबूरी में की गई और किस हिंसा का औचित्य आपराधिक मानसिकता के अलावा कुछ नहीं है इसका पहचान करने का नीरक्षीर विवेक समाज में पर्याप्त रूप से था। विडंबना यह है कि जब लोकतंत्र एक अंग के रूप में रूल आफ ला यानि कानून का शासन स्थापित किया गया तो उसकी अग्रसरता के लिए परंपरागत सामाजिक संस्थाओं की बलि चढ़ाना समानांतर व्यवस्था खत्म करने की दृष्टि से अपरिहार्य हो गया। दूसरी ओर कानून का शासन कारगर तरीके से संचालित भी किया जा सका जिससे समाज शून्य में चला गया और अराजकता के गर्त में धस जाना उसकी नियति साबित हुआ।
आज यक्ष प्रश्न यह है कि कानून के शासन की विकलांगता की स्थिति क्यों है। अमेरिका में जब क्राइम बढ़ जाता है तो जीरो टोलरेंस की मुहिम छेड़ी जाती है। इसमें छोटे से छोटे कोताही को भी नहीं बख्शा जाता। अगर सार्वजनिक स्थान पर सिगरेट पीने को मना किया गया है तो चाहे राष्ट्रपति के बेटे, बेटी ऐसा करते पकड़े जायें तो उन्हें भी बख्शने का सवाल नहीं है। भारत में ऐसी कल्पना भी नहीं की जाती। पहले सरकार तक को कानून व्यवस्था की मशीनरी पर आस्था नहीं है। सपा के शासन में तो सत्तारूढ़ पार्टी के लम्पट कार्यकर्ताओं की समानांतर सरकार कानून की मशीनरी पर हावी कर दी गई थी। तो वर्तमान सरकार में भी इसका पुरसाहाल नहीं है। गौ रक्षा का काम सरकार को कानूनी मशीनरी से कराना चाहिए लेकिन बाहरी लोगों को इसके नाम पर कानून हाथ में लेने की छूट दी जाने का परिणाम बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या के रूप में सामने आना। फिर भी सरकार ने इसकी चिंता ज्यादा की कि पुलिस का मनोबल गिरे तो गिरे पर तथाकथित गौ भक्तों को मनोबल नहीं गिरना चाहिए। विकास दुबे के एनकाउंटर के जातिगत रंग लेने के बाद यही दृष्टांत सरकार को भारी पड़ रहा है। उससे पूछा जा रहा है कि सुबोध कुमार सिंह की हत्या करने वाला एनकाउंटर कराने की वजाय उन्हें फूल मालायें क्यों पहनाई गई। सरकार को गर्दन नीचे करके यह ताने सुनने पड़ रहे हैं।
बोहरा कमेटी की रिपोर्ट का राग अलापने की वजाय यदि सरकार पर कानूनी मशीनरी को चुस्त दुरूस्त करने के लिए दबाव बनाया जाये तो नतीजे ज्यादा बेहतर हो सकते हैं। अभी हालत यह है कि प्रशासन हो या पुलिस केवल उन लोगों की ही सुनती है जो अधिकारियों की कुर्सी के लिए खतरा बन सकते हैं। कानून की मशीनरी का पुंसत्व क्षीण हो चुका है क्योंकि उसमें माफियाओं से टकराने की जुर्रत नहीं बची है। विकास दुबे के बारे में सामने आ रहा है कि जब वह जिंदा था जबरदस्ती जमीनों पर कब्जा करता जा रहा था फिर भी उसके खिलाफ एक्शन नहीं लिया जा रहा था। इस बीच भूमाफियाओं के खिलाफ चल रहे अभियान में शासन स्तर से निगरानी में भी इसे संज्ञान में नहीं लिया जा सका था। इस मामले में इतना बड़ा कांड हो जाने के बावजूद भी कोई सार्वभौमिक परिवर्तन आया हो यह नहीं दिखाई दे रहा है। सोनभद्र में जब भूमाफियाओं ने लगभग एक दर्जन आदिवासियों की सामूहिक हत्या कर दी थी उस समय भी सरकार के लोगों ने काफी बाजू फड़फड़ाई थी पर कुछ दिनों बाद उनका खून ठंडा पड़ गया और प्रदेश भर में नजूल की जमीन से लेकर गरीब की जमीन तक पर कागजी हेराफेरी करके कब्जा जमाने का नाच बदस्तूर चलता रहा और अभी भी जारी है।
सरकार अगर ढंग से काम करना चाहती है तो उसे निहित स्वार्थो की नाराजगी का जोखिम उठाना ही पड़ेगा। पर दिक्कत यह है कि सरकार नौकरशाही को नाराज नहीं करना चाहती। वह कोई हुकुम जारी करती है और नौकरशाही बिफर जाती है तो भींगी बिल्ली बन जाती है। ऐसे में अधिकारियों के प्रति प्रतिशोध की भावना की शिकार जनता के लिए माफिया देवदूत बन जाते है जिनके सामने वे अधिकारियों को मिमियाता देख सकें। विधि व्यवस्था के लचर होने के चलते ही माफियाओं की मान्यता बढ़ी है क्योंकि उनके दरबार में पहुंचकर पीड़ित कुछ तो निदान पा लेता है। जब तक यह नहीं हुआ कि कानूनी तंत्र इतना सक्रिय और प्रभावी हो कि लोगों को माफियाओं की शरण में जाने की जरूरत ही नहीं पड़े तब तक स्थिति नहीं सुधरेगी यह तब होगा जब भ्रष्टाचार रोकने और जबावदेही तय करने में सरकार सख्त बने। पर क्या वर्तमान सरकार में ऐसा करने की कोई इच्छाशक्ति है।
लेखक केपी सिंह यूपी के जालौन जिले के वरिष्ठ पत्रकार हैं. संपर्क- Mob.No. 9415187850
शक्ति नाथ
July 24, 2020 at 10:32 am
बैकवर्ड मानसिकता वाले के.पी.सिंह तुमको कुछ पता नहीं. जातीय कुंठा से लबरेज सी ग्रेड का लेख तुमको मुबारक.
यह भी जान लो योगी जी ने ओपी सिंह को डीजीपी बनाने के लिये पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने सिफारिश किया था जिस पर बाद में योगी जी को पछतावा भी हुआ.
अपराधी विकास दुबे का कौन सपोर्ट कर रहा है. उसकी पत्नी तक तो सपोर्ट नहीं कर रही. लेकिन पत्रकार होने के नाते यह प्रश्न उठाना क्या गलत है कि बृजेश सिंह या धनंनजय सिंह या फिर कसाब से बड़ा आतंकी तो नहीं था विकास व उसके साथी.
शक्ति नाथ
Rajmohan singh 12 1
July 28, 2020 at 7:13 pm
ठाकुर विरोधी मानसिकता।भारत के पूवं प्रधानमंत्री के खिलाफ अशोभनीय बाते,आपकी छोटी मानसिकता को दिखाता है।