भास्कर गुहा नियोगी-
जहीर भाई नहीं रहे। उनके साथ एक बनारस चला गया। शायर पिता नज़ीर बनारसी ने जिस हिन्दुस्तान की तामीर अपनी शायरी में करते हुए कहा था-
देखने में बूढ़े बरगद से इक इंसान हम
और इरादों में हिमालय की तरह अटल चट्टान हम
हिन्द सागर की है लहरें तन की सारी झुर्रियां
साथ में रखते है अपना हिन्दुस्तान हम”
जहीर भाई ने उस हिन्दुस्तान को खुद में बचाए रखा। मृदुभाषी जहीर भाई के पास बनारस से जुड़ी किस्सागोई की कभी न खत्म होने वाली दास्तान थी जिसे वो बड़े फख्र से हमें सुनाते थे।
गंगा घाट की सीढ़ियों से लेकर गंगा की लहरों पर नावों की सैर, अल सुबह उनके घर मदनपुरा के सामने की सड़क पर से मंगलगीत गाकर गंगा स्नान को जाती महिलाएं, तुलसी मानस मंदिर में परिवार के संग बैठना, होली-ईद, दशहरा-दीपावली की सांझी खुशियां उस दौर के बड़े किरदार वाले अनगिनत शख्सियत जिन्हें कभी हमने देखा नहीं लेकिन जहीर भाई के बातों के जरिए हम उनसे भी रुबरु होते रहे।
वो अपनी स्मृतियों के हवाले से उनसे हमें मिलवाते रहे। हमेशा कहते रहे- ऐसा था वो दौर और ऐसा था मेरा बनारस। नज़ीर साहब की शायरी के हवाले से कहते रहे-
जो इक जहान के टूटे दिलों की ढारस है
हमें है नाज कि अपना ही वह बनारस है
वो अपने पिता नज़ीर बनारसी की तरह शायर नहीं थे लेकिन पिता की शायरी और सोच की बुनियादी उसूलों की डोर को जहीर भाई ने जिंदगी भर थामे रखा। वो रहते तो थे बृज इनक्लेव कालोनी में लेकिन मदनपुरा स्थित उनके पुश्तैनी मकान में नज़ीर बनारसी इन्टर प्राइजेस नाम की दुकान वो संभालते थे। शहर में तमाम दुकानें होने के वावजूद हम मसाला और घर की दूसरी सामग्रियों को खरीदने के लिए महीने में एक चक्कर उनकी दुकान का जरूर लगाया करते थे। वजह साफ थी। उनसे बातचीत और बातचीत के जरिए गुजरे जमाने से रूबरू होने के साथ ही अदब की दुनियां के नामचीन हस्तियों के बारे में मालूमात हासिल करना।
कैसे नज़ीर साहब के दौर में घर पर महफिलें सजती थी, उस दौर के नामचीन शायर मजरुह सुलतानपुरी, कैफ़ी आज़मी, शकील बदायूंनी फेहरिस्त बेहद लम्बी है और संस्मरण बड़े मजेदार, जो वो हमें सुनाते थे। कहते थे अब्बा हुजूर की शायरी में हिन्दुस्तान की तस्वीर है। दुःख इस बात का है कि नई पीढ़ी उस हिन्दुस्तान को नहीं जानती।
बृज इनक्लेव कालोनी स्थित उनके घर के कमरे में रखे बक्से में उन्होंने नज़ीर साहब की धरोहर को संभाल कर रखा था। वो इसे राष्ट्र की संपत्ति मानते थे। वो हमें कहते घर आइए मैं आपको नज़ीर साहब की धरोहर दिखाऊंगा। फरवरी 2020 रविवार की एक शाम उनके साथ गुजरी थी। वो नज़ीर साहब के बारे में ही बताते रहे।
उन्होंने डॉ सम्पूर्णानंद और राष्ट्र रत्न शिवप्रसाद गुप्त से नज़ीर साहब के ताल्लुकात का भी जिक्र किया। उन्होंने डॉ सम्पूर्णानंद की हाथों की लिखी ग़ज़लें भी हमें दिखाया था जो सम्पूर्णानंद ने नज़ीर साहब को भेंट की थी।
बातचीत के दौरान नज़ीर साहब पर बोलते हुए उनकी आंखों में आंसू थे। फिक्र थी मेरे बाद राष्ट्र की इस अमानत का क्या होगा?
वो चाहते थे सरकार इस धरोहर को संभाले। नई पीढ़ी बाजरिए नज़ीर साहब हिन्दुस्तान के कल्चर को समझे। उस हिन्दुस्तान से मिले जो तरह-तरह के लोगों से मिलकर बनता है। उन्होंने हमें भारत के राष्ट्रपति रहे डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के 1966 में नज़ीर साहब को लिखे उस खत को भी दिखाया था जिसमें उन्होंने लिखा था- इसमें कोई शक नहीं कि आपका योगदान अत्यंत सराहनीय है।
जहीर साहब भले अपने उम्र के नब्बे के पड़ाव की तरफ थे लेकिन उनके पास यादों की लम्बी धरोहर थी जिसे वो किस्सागोई के जरिए सुनाया करते थे। उनके जाने से ये सिलसिला थम गया है। रेवड़ी तालाब नगीने वाली मस्जिद के पास कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक हुए जहीर साहब यही सोच रहे होंगे-
मेरे बाद ऐ बुताने-शहर-काशी
मुझे ऐसा अहले ईमां कौन होगा
करें है सजदा-ए-हक बुतकदे में
नज़ीर ऐसा मुसलमां कौन होगा।
बनारस से भास्कर गुहा नियोगी की रिपोर्ट.