Zaigham Murtaza
आख़िर 7 साल कम नहीं होते लेकिन गुज़रने थे सो गुज़र गए और अच्छे से गुज़रे। किसी भी संस्थान में थोड़ी बहुत खींचतान और राजनीति लाज़िमी है मगर आख़िर के कुछ महीनों में काम से ज़्यादा राजनीति से सामना हुआ। इसे राजनीति भी कहना सही नहीं होगा। ये विचारधारा का द्वंद था। उन्हे सावरकर के गाय और धर्म पर विचार रास नहीं आए और हम लिखने से बाज़ नहीं आए।
हमें जनता के पैसे से चलने वाले संसदीय टीवी के स्क्रीन पर किसी ऐसी संस्था के प्रमुख को परम पूजनीय लिखने ऐतराज़ था जो संसद का हिस्सा नहीं, वो भी तब जब माननीय राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को भी हम स्क्रीन पर माननीय लिख कर संबोधित नहीं करते।
उन्हें मेरी स्क्रिप्ट में उर्दू नज़र आती थी मगर ख़ुद कुर्सी मेज़, ख़रीद फरोख़्त और साज़ो-सामान जैसे शब्दों के हिंदी विकल्प नहीं सुझा पाते थे। उन्हें मेरी सोच से परेशानी थी मुझे विचारधारा और ऐजेंडा थोपने के उनके तरीक़े से। यहां तक भी सही रहता मगर उन्हें उन आवाज़ों से भी दिक़्क़त थी जो उनकी राजनीतिक विचारधारा से मेल नहीं खातीं। न संस्थान के भीतर और न बाहर।
शरद यादव, अखिलेश यादव और मायावती जाने दीजिए उन्हे गौहर रज़ा, दिलीप मंडल और चंद्रभान से परेशानी थी चाहे वो विज्ञान और सामाजिक मुद्दे पर ही क्यों न बुलाए जाएं। पिछले 6 महीने में वहां छांट-छांट कर गेस्ट लिस्ट से वो तमाम नाम निकाल दिए गए जो जी हुज़ूर न कह पाएं और हां में हां न मिलाए।
वही बचे जो एक ख़ास विचारधारा से संबंधित हों या फिर विपक्ष में उनकी ही आवाज़ हों। डेली मीटिंग का ऐजेंडा ही सरकार का गुणगान और विपक्ष का निपटान हो गया। हमने आधा घंटा इस बात पर विशेष बनाया कि शरद यादव की सदस्यता जाना कैसे ऐतिहासिक क़दम है। हम बता रहे थे कि विपक्ष कैसे बिखर रहा है। न भी बिखर रहा हो तो कैसे बिखेरा जाए।
हम योगी जी की सरकार की वर्षगांठ का जश्न मना रहे थे। इस बीच हर वो विषय प्रतिबंधित हो गया जो पत्रकारिता के न्यूनतम मापदंड को पूरा कर जाए। निजी चैनल जो विज्ञापन शर्तों से बंधे हैं वहां तक ठीक है लेकिन हम सरकार से भी आगे निकलकर संघ के वैचारिक भौंपू बन गए। ये सब इसलिए नहीं हुआ कि संघ या सरकार इसके लिए दबाव बना रही थी या फिर माननीय उपराष्ट्रपति कोई निर्देश भेज रहे थे।
ये सब इसलिए हुआ कि संगठन की कमान चापलूस और सत्ता के सामने बिछने वालों के हाथ आ गयी। जिन लोगों का बीजेपी संगठन, सरकार, संघ या उपराष्ट्रपति से कोई संबंध न था वो नज़दीक़ियां हासिल करने और अपने नंबर बढ़ाने के लिये बिछते चले गए। ज़ाहिर है योग्यता होती तो ये सब न करना पड़ता। एक एंकर विज़ुअल की सही से स्क्रिप्ट न लिख पाने वाले और तमाम जीवन जुगाड़ से पद पाने वाले और करें भी तो क्या?
इधर जिसे ये सब रोकने की ज़िम्मेदारी मिली है वो डरा सहमा है। वैसे भी एक बाबू पत्रकार और नेताओं के झुंड में कर भी क्या सकता है? हालांकि बातें बहुत हैं लेकिन इन पर छः साल की अच्छी बातें हावी हैं और हमेशा रहेंगी। ये मेरे जीवन का स्वर्णकाल है। वैसे भी हमेशा नकारात्मक नहीं लिखना चाहिए। बहरहाल राज्य सभा टीवी में अपने तमाम साथियों के लिए शुभकामनायें। उन साथियों का बेहद आभार जो वैचारिक मतभेद और विपरीत विचारधारा के बावजूद तमाम मुद्दों पर मेरे साथ रहे। हालांकि मेरा वैचारिक संघर्ष अभी जारी रहेगा। क्योंकि मैंने तो ख़ुद को न बदलने की क़सम खाई है।
पत्रकार ज़ैग़म मुर्तज़ा की एफबी वॉल से.
Aditya bhardwaj
July 5, 2018 at 5:21 pm
भाई साहब बुरा मत मानना पर ये मेरा भाई तब क्या कर रहा था जब कांग्रेस का भोपूं बजाया जा रहा था. 1000 से ज्यादा क्लिपिंग दूंगा इस संबंध में अगर आप कहो
Rakesh Shukla
July 14, 2018 at 3:08 pm
नेताओं की तरह कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों की अंतरआत्मा नौकरी से हटाए जाने के बाद ही जागती है। इसके पहले राज्यसभा चैनल निरपेक्ष भाव से चल रहा था, श्रीमानजी इसका प्रमाण-पत्र दें रहे हैं। लोकसभा हो या राज्यसभा चैनल यहां योग्यता से नौकरी नहीं मिलती। यह परिपाटी उस समय से है, जब से वह नौकरी कर रहे हैं। आज पत्रकारिता का क्रांतिदूत बनना उचित नहीं है। आवाज उठानी थी तो उसी समय उठाते जब उन पर (जैसा वह कह रहे हैं) एजेंडे पर चलने के लिए दबाव बनाया गया था। नैतिकता वह होती जब वह उसी वक्त नौकरी को ठोकर मारकर इसके खिलाफ आवाज बुलंद करते। मुझे लगता है कि भाई साहब ने नौकरी बचाने की सारी कोशिश विफल होने के बाद धर्मनिरपेक्षता का झंडावदार बन गए।