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चर्चित घुमक्कड़ संजय शेफ़र्ड की किताब- ‘ज़िंदगी जीरो माइल’

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संजय शेफ़र्ड-

एक लम्बे इन्तजार के बाद आप सभी को यह किताब सौंपते हुए बहुत ही खुशी की अनुभूति हो रही है। जिन दोस्तों ने मुझे और मेरी घुमक्कड़ी को समझा, सराहा और प्यार दिया। उनके प्रति जी भर भरके प्रेम उमड़ रहा है। यह किताब एक संन्यासी और एक ऐसे बच्चे की यात्रा है जो अपनी दो-दो आत्माओं के साथ जिन्दा है।

इस किताब को लिखने में एक लम्बा वक्त लगा। दो साल से भी कहीं ज्यादा। उम्मीद है कि इस किताब को आप सब पढ़ेंगे और अपना भरपूर प्यार देंगे।

किताब हिंदयुग्म से आ रही है जिसकी प्री- बुकिंग शुरू हो चुकी है। किताब का लिंक – https://amzn.to/3YSF9kc


किताब की भूमिका पढ़ें-

कुछ महीने हिमालय में विचरने के बाद एक दिन उस लड़के को सन्यासी की याद आयी। वह दोबारा सन्यासी के पास उसी आश्रम में लौट आया जिसमें कभी रहा करता था। एक तरह से देखा जाए तो अब यह आश्रम ही उस लड़के के लिए विश्राम की एकमात्र जगह थी। सन्यासी से मुलाक़ात की आखिरी रात को उसने अपनी किताब के पहले पन्ने पर दर्ज किया और लिखा कि उस दिन उन्होंने मुझसे सिर्फ दो सवाल किया।

01- घुमक्कड़ी कब से शुरू किया?
02- और गोल चश्मा लगाना?

उसके बाद कुछ नहीं पूछा। कहां गए थे? कितने दिन के लिए आये हो? यहां कब तक रुकना चाहते हो? कुछ भी नहीं। उन्होंने कहा तुम जब तक चाहो यहां रहो। जिस दिन तुम्हें इस जगह से मोह हो जाएगा मैं खुद तुम्हें यहां से जाने के लिए कह दूंगा। मैं उनके पास आश्रम में तकरीबन डेढ़ महीने तक रहा और एक दिन ऐसे ही उन्होंने मुझे अचानक से जाने के लिए कह दिया।

मुझे कुछ समझ में नहीं आया। मैंने अपना ट्रेवल बैग उठाया बिना कोई सवाल किए आश्रम से बाहर निकल आया। निकलते निकलते अंतिम बार उस आश्रम को जी भरके देख लेना चाहता था लेकिन हिम्मत नहीं हुई। अंत में सिर्फ इतना ही पूछ सका कि अब कब मुलाकात होगी?

अब हमारी मुलाकात संभव नहीं।

मैं उन्हें अलविदा कहना चाहता था। लेकिन उनके रूखेपन ने मेरी अंतरात्मा को मार दिया। बिना कुछ बोले वहां से निकल लिया। कुछ दूर जाने पर मुझे याद आया कि मेरी डायरी आश्रम में ही रह गई है। मेरे लिए यह डायरी अति महत्वपूर्ण थी। इसमें वह सबकुछ दर्ज था जिसे मैंने हाल के दिनों में जिया और महसूस किया था। इसलिए ना चाहते हुए भी लौटना पड़ गया।

आश्रम के पिछले गेट से प्रवेश किया ताकि मुलाकात ना हो। परन्तु गेट बंद था। आखिरकार, मुझे आश्रम के मुख्य दरवाजे पर ही आना पड़ा जहां एक मरी हुई भीड़ थी। एक ऐसी भीड़ जिसमें कोई हलचल नहीं थी, कोई चीख नहीं, कोई शोर नहीं। आसपास का माहौल संजीदा जान पड़ा। मैंने यहां भी किसी से कोई सवाल नहीं किया। बस चुपके से भीड़ में शामिल हो चलने लगा।

कुछ देर बाद राम नाम सत्य है कि आवाज़े सुनाई दी। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं किसी के जनाज़े में चल रहा हूं। वह राम नाम सत्य की आवाज़ परस्पर बड़ी होते-होते आसमान से भी बड़ी हो गई। मुझे यह भी याद आया कि उन्होंने कहा था कि इस धरती पर यह हमारी अंतिम मुलाकात है।

.. तो क्या वह अपनी मौत जानते थे? मैंने खुदसे सवाल किया। लोग जनाज़े को लेकर आगे बढ़ गए। मैं शान्त एक जगह पर देर तक खड़ा रहा, मानोकि धरती ने मेरे पैर को जकड़ लिया हो। फिर कुछ देर बाद वहीं पर जाकर बैठ गया जहां वह अक्सर बैठा करते थे।

कुछ देर बाद कुछ लोग आए उनके हाथ में गेरुआ वस्त्र और एक पुस्तिका थी। उन लोगों ने मुझे नहाकर उस कपड़े को धारण करने को कहा। इस बार मेरे मन में कोई सवाल नहीं आया। उन्होंने जो कुछ भी कहा मैं वही करता गया। अंत में मुझे बताया कि गुरु के आदेश के अनुसार इस आश्रम की जिम्मेदारी आप पर है। मैंने उनसे कहा कि मैं तो यायावर हूं। मुझमें संत का कोई गुण नहीं, यह जिम्मेदारी भला वह मुझे कैसे सौंप सकते हैं? जरूर कोई भूल हुई है। उन्होंने तो मुझे आश्रम तक से निकाल दिया था।

निकाला नहीं था उन्होंने, वह बस आपके यहां से जाने का इंतजार कर रहे थे ताकि अपने प्राण त्याग सकें। उन्होंने ही कहा था कि कुछ देर बाद आप आश्रम में लौटेंगे और आश्रम की यह रिक्तता फिर से भर जाएगी। और प्राण त्याग दिया। मरने से पहले उन्होंने यह भी कहा कि मौत एक माया है, इसे कभी गंभीरता से मत लेना; जीवन परम सत्य है, इस सत्यता को बार- बार स्वीकारना। मैंने अपनी आंखें बंद की और अंतिम बार उन्हें याद करते हुए मेरी आंखें डबडबाई।

मैंने उन्हीं की कही हुई बात को अपने मन में एक बार फिर से दोहराया- मौत एक माया है, इसे कभी गंभीरता से मत लेना; जीवन परम सत्य है, इस सत्यता को बार- बार स्वीकारना। और एक आंसू टूटकर उनकी समाधि पर स्थल पर जा गिरा। मैंने अपने आपको टटोलकर देखा, समर्पित करने के लिए मेरे पास उस वक़्त आंसुओं से बड़ी दौलत कोई और नहीं थी। मैंने उस दिन को सिर्फ आंसू बहाने में बिताया। दुख के क्षणों में इंसान के पास आखिर रोने के अलावा विकल्प ही क्या होता है?

[ इस तरह से मेरे जीवन में यात्रा और लेखन की शुरुआत हुई और मैं जान पाया कि वह लड़का कोई और नहीं मैं ही था। वह आगंतुक कोई और नहीं मैं ही था। वह सन्यासी कोई और नहीं मैं ही था। ]

मैं ही सिद्धार्थ था, मैं ही गौतम, मैं ही बुद्ध।
मैं ही जीवन था, मैं ही मृत्यु। और मैं ही ईश्वर।

  • संजय शेफ़र्ड

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