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ये दुनिया

अब तो इस्‍लामिक आतंकवाद को वोट के चश्‍मे से देखना बंद करे कांग्रेसी सरकार

इस्लामिक आतंकवाद पर नयी दृष्टि देखिये। यह नयी दृष्टि देश की कांग्रेसी सरकार कदापि नहीं देख सकती है। अगर कांग्रेस सरकार नयी दृष्टि देखेगी तो उसका तुष्टिकरण का खेल व वोटों की राजनीति का फिर होगा क्या? क्या वह अपने वोट बैंक को बिदकने देगी? आतंकवाद पर नयी दृष्टि है क्या? नयी दृष्टि भारत की आबादी की विभिन्नता है और 22 करोड़ की विशेष वोट शक्ति है। इस दृष्टि के लिए आपको तुष्टिकरण/कथित उदारता/कथित पंथ निरपेक्षता और कथित धर्म निरपेक्षता के दुराग्रह से मुक्त होना होगा और इस्लामिक आतंकवाद की समस्या व उसके जड़ के असली पोषक तत्वों जो उसे न केवल अराजक व रक्तपिपाशु बनने व बनाने के लिए प्रेरणास्त्रोत का काम करते पर कठोर रूख व व्यवहार स्थापित करना होगा। 22 करोड़ की यह विशेष आबादी अब देश को लेबनान/इथोपिया/सोमालिया जैसे संस्करण में तब्दील करने के लिए तैयार बैठी हुई है।

इस्लामिक आतंकवाद पर नयी दृष्टि देखिये। यह नयी दृष्टि देश की कांग्रेसी सरकार कदापि नहीं देख सकती है। अगर कांग्रेस सरकार नयी दृष्टि देखेगी तो उसका तुष्टिकरण का खेल व वोटों की राजनीति का फिर होगा क्या? क्या वह अपने वोट बैंक को बिदकने देगी? आतंकवाद पर नयी दृष्टि है क्या? नयी दृष्टि भारत की आबादी की विभिन्नता है और 22 करोड़ की विशेष वोट शक्ति है। इस दृष्टि के लिए आपको तुष्टिकरण/कथित उदारता/कथित पंथ निरपेक्षता और कथित धर्म निरपेक्षता के दुराग्रह से मुक्त होना होगा और इस्लामिक आतंकवाद की समस्या व उसके जड़ के असली पोषक तत्वों जो उसे न केवल अराजक व रक्तपिपाशु बनने व बनाने के लिए प्रेरणास्त्रोत का काम करते पर कठोर रूख व व्यवहार स्थापित करना होगा। 22 करोड़ की यह विशेष आबादी अब देश को लेबनान/इथोपिया/सोमालिया जैसे संस्करण में तब्दील करने के लिए तैयार बैठी हुई है।

यह कहना सच नहीं है कि पूरी विशेष आबादी समस्या का घोत्तक हो सकती है और उसे जिम्मेदार ठहराना न्यायिक नहीं है। पर प्रश्न यह उठता है कि आखिर यह विशेष आबादी अपने को  आतंकवादियों व रक्तपिशाचुओं से अलगाव क्यों नहीं रखती है? उन्हें छुपने की जगह क्यों देती है? उस विशेष आबादी को हर चीज और हर मुद्दे पर अपना मजहब की संकट में क्यों दिखता है? हर जगह इन्हें जेहाद की पाठशाला चलाने और अलग मजहबी श्रृंखलाएं क्यों चाहिए? आतंकवाद का मीनार ओसामा बिन लादेन मारा जाता है पर उबाल भारत की विशेष आबादी में उठता है। कश्मीर की बात अलग है पर लखनऊ/ कोलकाता/ हैदराबाद/ पटना/ गुवाहाटी आदि शहरों में ओसामा बिन लादेन को शहीद घोषित कर अमेरिका विरोधी प्रदर्शन होते हैं? फिर भी सत्ता चुपचाप तमाशबीन होती है। कोई अरूधंती राय/ महेश भट्ट / तीश्ता सीतलवाड़ आदि के मुंह नहीं खुलते? आखिर क्यों? कठोरतम निष्कर्ष पर जाना ही होगा कि इस्लाम हिटलर के नाजी सेना की तुलना में रक्त बहाने में कई कोस आगे निकल चुका है। नाजियों का निशाना तो सिर्फ यहूदी थे। इस्लाम का निशाना सभी गैर इस्लामिक धर्मावलम्बी हैं। खूनी हिंसा के बल पर दुनिया में एक मात्र इस्लाम का झंडा लहराना एकमेव लक्ष्य है?

एक प्रश्न का उत्तर तर्क-तथ्य संगत है किसके पास? अगर कथित धर्म निरपेक्ष/ पंथ निरपेक्ष और कथित उदारवादियों की यह बात मान भी ली जाये कि भारत में इस्लामिक आबादी के आतंकवादी उबाल के लिए हिन्दुत्ववाद जिम्मेदार हैं? फिर दुनिया के किस हिस्से और किस देश में इस्लाम शांति का पाठ पढ़ा रहा है, यह भी बताने और देखने की जरूरत क्यों नहीं होनी चाहिए।अमेरिका/ फ्रांस/ ब्रिटेन/ जर्मनी/ इटली/ रूस/ चीन/ थाईलैंड/ म्यांमार / चीन/ कनाडा आदि देशों में यह आबादी रक्तपिशाचु क्यों हो गयी है। यूरोपीय देशों ने इस आबादी को अपने यहां फलने-फूलने दिया व मानवाधिकारों से सुसज्जित भी किया पर अब इन्हें यूरोपीय देशों की उदारता नहीं चाहिए? इन्हें इस्लाम की जेहादी मानिसकता को पोषित करने वाली नीतियां चाहिए। बुर्का चाहिए? औरतों को भोगवादी ग्राह बनाने की छूट चाहिए। फ्रांस ने जब बुर्के पर प्रतिबंध लगाया तब पूरी दुनिया की इस्लामिक आबादी विरोध में खड़ी हो गयी और यूरोप पर कथित धार्मिक मानवाधिकार हनन के आरोप लगाये गये हैं। ब्रिटेन दुनिया भर में धार्मिक मानवाधिकार झंडाबरदार हैं पर वह अब मानने से रत्ती भर भी संकोच नहीं कर रहा है कि इस्लाम की अनुदारवाद और रूढ़ियों के पोषण से उनका धार्मिक सदभावना का सार संकट में है। ब्रिटन के प्रधानमंत्री कैमरन खुद ही इस्लामिक आबादी के इस दुराग्रह व खूनी राजनीति का अंतर्राष्‍ट्रीय मंचों पर घेराबंदी कर चुके हैं।

कुतर्को का मकड़जाल देखिये? कुतर्कों का ढाल भी देखिये? कहा जाता है कि यूरोपीय देश लुटेरे हैं और उपनिवेशिक मानसिकता से ग्रसित हैं इसलिए वहां की मुस्लिम आबादी दुराग्रह रखती है। इस कसौटी को अगर हम सही भी मान लें तो भी गैर यूरोपीय देशों में इस्लाम को लेकर चल रहा इस्लामिक आबादी की खूनी राजनीति को किस रूप मे देखा जाना चाहिए? खासकर अफ्रीका महादेश को जिस तरह से इस्लाम के नाम पर निर्दोष जिंदगियां आतंकवाद की कराह में भूंजी जा रही हैं उससे दुनिया को ही नहीं बल्कि भारतीय बुद्धिजीवियों/ उदारवादियों/ पंथनिरपेक्षवादियों को सत्संग क्यों नहीं करना चाहिए? अफ्रीका महादेश के आधे से अधिक देशों में इस्लाम को लेकर गृहयुद्ध चल रहा है। नाइजीरिया/ इथोपिया/ सोमालिया/ सूडान आदि दर्जनों देशों में इस्लाम को लेकर भीषण संघर्ष चल रहा है। सोमालिया में हिंसा फैलाने वाले इस्लामिक जेहादी समुद्री डकैत भी बन गये हैं। सोमालिया के समुद्री डकैतों ने दुनिया को किस प्रकार से भयभीत किया है? यह भी जगजाहिर है। चीन एक कम्युनिस्ट देश है और वहां पर नास्तिक सत्ता कायम है। चीन के जिनजियांग प्रांत में अलग मुस्लिम राष्‍ट्र के लिए इस्लामिक आंतकवादी हिंसा फैला रहे हैं। चीन में सिर्फ एक बच्चा जनने का अधिकार है पर जिनजियांग की मुस्लिम आबादी इस प्रतिबंध से अपने आप को मुक्त रखने का जेहाद कर रहे हैं।

इस्लाम की तुलना हिटलर की नाजी संस्कृति से हो सकती है? नाजियों ने सिर्फ यहूदियों के खिलाफ मूलवादी अभियान चलाया था। पर इस्लाम तो नाजी संस्कृति से कई कदम आगे है। नाजी संस्कृति मूल से जुड़ी हुई थी। धर्म से नहीं? इस्लाम का एक मात्र लक्ष्य दुनिया को अपना एकमेव सागीर्द बनाना है। वह भी खूनी हिंसा के बल पर। इस्लाम के नायकों ने पहले तलवार के बल पर इस्लाम कबूल कराया था। पर अब अलकायदा और अन्य सभी आतंकवादी संवर्ग बम-गोली के बल पर इस्लाम कबूल कराना चाहता है। मुस्लिम बहुल वाली संस्कृतियों और देशों में गैर इस्लामिक समूहों को जबरदस्ती इस्लाम कबूल करने के लिए बाध्य किया गया। अरब देशों और अन्य मुस्लिम देशों में कितने गैर इस्लामिक समूह हैं? अगर मेरी यह बात सच से परे है तो फिर आपको इन तथ्यों को भी याद कराता हूं कि क्या तालिबान-अलकायदा पाकिस्तान सहित अन्य देशों में गैर इस्लामिक समूहों को इस्लाम कबूल करने की धमकी नहीं देता है? क्या इस्लाम कबूल कराने के लिए खूनी हिंसा का अंजाम नहीं दिया जाता है। गैर इस्लामिक समूहों को इस्लाम स्वीकार करने या फिर आतंकवादियों का शिकार बनने का ही एक मात्र विकल्प है। तालिबान और अलकायदा सहित सभी इस्लामिक आतंकवादी यही कहते है कि उनका जेहाद दुनिया को इस्लाम कबूल कराना है। फिर और कोई सोच व दृष्टि से इस्लामिक आतंकवादियों को देखा जाये तो क्यों?

हम नरेन्द्र मोदी या फिर अशोक सिंघल-प्रवीन तोगडिया की भाषा और निष्कर्ष को आत्मसात नहीं कर सकते हैं। पर हमें यूरोप के निष्कर्षों और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरन के विचारों पर गौर क्यों नहीं करना चाहिए? कैमरान अपने देश में मुस्लिम आबादी को लेकर जिस खतरे को देख रहे हैं उस तरह के खतरे को भारत में क्यों नकारा जा रहा है। हूजी हो या फिर सिम्‍मी। सभी इस्लामिक संगठनों का एक ही लक्ष्य है भारत को इस्लामिक देश के रूप में तब्दील करना। अफजल गुरु को मुक्त कराना क्षणिक लक्ष्य है। असली लक्ष्य तो शरीयत की स्थापना है। पाकिस्तान और आईएसआई ने अपना पैंतरा बदला और भारत को आतंकवाद की नर्सरी प्रायोजित कर दी। यह भी झूठ है कि मुस्लिम आबादी आतंकवाद के खिलाफ है। भारत मे देवबंद सहित अनेकों मजहबी संगठन हैं। इन संगठनों ने तभी और वह भी दिखावे के लिए निंदा की जब अमेरिका ने तालिबान को रौंदा और दुनिया भर में मुस्लिम आतंवादियों के खिलाफ अभियान चलाया। इसके पहले इनके आदर्श तालिबान और ओसामा बिन लादेन ही था। तालिबान का अधिकतर दहशगर्त देवबंद के ही पुराने शागीर्द हैं।

फिर इस रक्तरंजित सवाल का समाधान क्या है? सत्ता का चरित्र और बुद्धिजीवियों का खेल देखते हुए समाधान की उम्मीद होती ही नहीं है। आतंकवादी घटनाएं एक पर एक घटती रहेगी। वोट बैंक की राजनीति के कारण ऐसी मानसिकता का संरक्षण मिलता रहेगा। निष्कर्ष के तौर पर यह कहना गलत नहीं होगा कि दुनिया के सामने दो ही विकल्प हैं। एक इस्लाम को स्वीकार करने और इस्लामिक आतंकवादी संगठनों का गुलाम बन जाने का और दूसरा अगर नहीं तो फिर खूनी हिंसा में मौत का ग्राह बनने के लिए तैयार रहने का। कुछ सालों का इंतजार की कीजिये भारत को अफगानिस्तान/ लेबनान/ पाकिस्तान

विष्‍णु गुप्‍त

बनने से कौन रोक सकता है।

लेखक विष्‍णु गुप्‍त हिंदी के वरिष्‍ठ एंव जनपक्षधर पत्रकार हैं. इन्‍होंने समाजवादी और झारखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई है. पत्रकारिता के ढाई दशक के अपने करियर में झारखंड में दैनिक जागरण, रांची, स्‍टेट टाइम्‍स, जम्‍मू और न्‍यूज एजेंसी एनटीआई के संपादक रह चुके हैं. फिलहाल राजनीतिक टिप्‍पणीकार के रूप में अपना योगदान जारी रखे हुए हैं. इनसे संपर्क 09968997060 के जरिए किया जा सकता है.

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