बुद्ध ने कहा है, कि न कोई परमात्मा है, न कोई आकाश में बैठा हुआ नियंता है। तो साधक क्या करें? तो बुद्ध ने कहा है, होश से चले, होश से बैठे, होश से उठे। बुद्ध का एक भिक्षु आनंद पूछने लगा; वह एक यात्रा पर जा रहा था और उसने पूछा कि भगवान, कुछ मुझे पूछना है। स्त्रियों के संबंध में मन में अभी भी काम-वासना उठती है; तो स्त्रियां मिल जाएं तो उनसे कैसा व्यवहार करना?
तो बुद्ध ने कहा, “स्त्रियां अगर मिल जाएं तो बचकर चलना। दूर से निकल जाना।”
आनंद ने कहा, “और अगर ऐसी स्थिति आ जाए कि बचकर न निकल सकें?
तो बुद्ध ने कहा, ”आंख नीची झुकाकर निकल जाना।
आनंद ने कहा, और यह भी हो सकता है कि ऐसी स्थिति आ जाए कि आंख भी झुकाना संभव न हो। समझो, कि कोई स्त्री गिर पड़ी हो और उसे उठाना पड़े। या कोई स्त्री कुएं में गिर पड़ी हो और जाकर उसको सहारा देना पड़े; या कोई स्त्री बीमार हो; ऐसी स्थिति आ जाए कि आंख बचाकर भी चलना मुश्किल हो जाए?
तो बुद्ध ने कहा, “छूना मत।”
और आनंद ने कहा, “अगर ऐसी अवस्था आ जाए कि छूना भी पड़े?तो बुद्ध ने कहा, कि जो मैं इन सारी बातों से कह रहा हूं, उसका सार कहे देता हूं : छूना, देखना, जो करना हो करना–होश रखना।
इन सारी बातों में मतलब वही है। स्त्री से बचकर निकल जाना, तो भी होश रखना पड़ेगा। स्त्री को बिना देखे निकल जाना, तो भी होश रखना पड़ेगा। बेहोशी में तो आंख स्त्री की तरफ अपने आप चली जाती है। बेहोशी में तो पैर स्त्री की तरफ चलने लगते हैं, विपरीत नहीं जाते। बेहोशी में तो भीड़ में स्त्री को धक्का लगाने के लिए शरीर तत्पर हो जाता है। बच कर निकलना तो दूर, अगर स्त्री बच कर निकलना चाहे तो भी उसको बच कर निकलने देना मुश्किल हो जाता है। बेहोशी में तो स्त्री को छूने का मन होता है।
तो बुद्ध ने कहा, फिर मैं तुझे सार की बात कहे देता हूं। ये तो गौण बातें थीं। लेकिन उन सब गौण बातों में वही धागा अनुस्यूत था। जैसे माला के मनकों में धागा अनुस्यूत होता है। मनके दिखाई पड़ते हैं, धागा दिखाई नहीं पड़ता–वह है होश।
कबीर उसको ही सुरति कहते हैं। और जिस व्यक्ति का होश सध जाए, फिर उसे कोई असहज क्रम नहीं करना पड़ता उलटा-सीधा। कबीर कहते हैं, न तो मैं नाक बंद करता, न आंख बंद करता, न उलटी-सीधी सांस लेता, न प्राणायाम करता, न उलटा सिर पर खड़ा होता, न शीर्षासन करता; कुछ भी नहीं करता; सिर्फ होश को सम्हालकर रखता हूं। सिर्फ सुरति को बनाए रखता हूं। बस, सुरित का दीया भीतर जलता रहता है। और जीवन पवित्र हो जाता है।
सुरति का दीया भीतर जलते-जलते एक ऐसी घड़ी आती है, जब निष्कंप हो जाता है। उस घड़ी का नाम समाधि है।
कहे कबीर दीवाना, प्रवचन-१६, ओशो
Pravin Choughule द्वारा एफबी पर ओशो-दर्शन ग्रुप में पोस्ट की गई यह रचना मूलत: ओशो की है.