एक खबर है – “गया जिले में लैंड माइंस बम के विस्फ़ोट से 6 जवान मरे”। मूल खबर यही है लेकिन अखबारों में जो लिखा गया है या फ़िर लिखने की परंपरा है उसके अनुसार यह वाक्य गलत है। मतलब यह कि इस वाक्य के स्थान पर “गया जिले में लैंड माइंस बम विस्फ़ोट में 6 जवान शहीद” ही चल सकता है। एक बार मैंने अपनी रिपोर्ट का शीर्षक दिया था – कांबिंग आपरेशन में 4 नक्सली शहीद। जब खबर छपकर अगले दिन बाजार में आयी तब मुझे जानकारी मिली कि मैंने परंपरा को तोड़ा है। संपादक ने एक लंबा लेक्चर दिया और बात आयी-गयी हो गयी।
कल जब गया जिले में लैंड माइन्स बम के विस्फ़ोट होने की जानकारी मिली तब मेरी दिलचस्पी यह जानकारी हासिल करने में थी कि इस घटना से पहले गया जिले में जो कांबिंग आपरेशन चलाया जा रहा था, उसमें कितने लोग शहीद हुए। मैं यह जानने की कोशिश में भी जुटा रहा कि जिस इलाके से बम विस्फ़ोट की खबर आयी है, वह दलितों और पिछड़ों का इलाका है। खासकर उस गांव में जहां पुलिस पिछले 4 दिनों से कहर बरपा रही थी। इस दौरान कितने लोग मारे गये, कितनों को पुलिस ने गिरफ़्तार किया या फ़िर कितने देखते ही देखते गायब हो गये। सारी जानकारी निश्चित तौर पर पुलिस के पास होनी चाहिए।
मुझे आश्चर्य उस समय भी हुआ जब यह खबर मिली कि नक्सलियों के बम विस्फ़ोट में घायल हुए सीआरपीएफ़ के जवानों को विशेष हेलीकाप्टर से पटना लाया गया है। इससे भी अधिक आश्चर्य की वजह यह कि इन जवानों को एक निजी नार्सिंग होम में भर्ती कराया गया। जबकि गया में बिहार सरकार के कथनानुसार अत्याधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त मगध मेडिकल कालेज अस्पताल है। सरकार चाहती तो अपने वीर जवानों का इलाज वहां करवा सकती थी। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। जवानों को पीएमसीएच में भी भर्ती नहीं कराया गया और न ही दानापुर सैन्य छावनी स्थित सैन्य अस्पताल को ही इलाज के लायक माना गया।
जाहिर तौर पर परंपरावादी मीडिया इस बात की इजाजत नहीं देता कि इन मामलों में कोई खोज खबर ली जाये और फ़िर कुछ लिखने का दुस्साहस किया जाये। मुझे सबसे अधिक हैरानी उस दिन हुई जब बिहार के अखबारों ने मधुबनी की घटनाओं को लेकर गिरगिट की तरह अपना रंग बदला। जैसे ही प्रशांत और प्रीति के बरामद होने का ऐलान सूबे के पुलिस प्रमुख ने किया, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सहित अखबारों के चेहरे खिल गये। अगले दिन लंबे-लंबे आलेख लिखे गये कि किस प्रकार विपक्ष इस पूरे मामले में दोषी था। सबसे अधिक निशाने पर रहा राजद। अखबारों में कहा गया कि राजद का बंद असल में गलतफ़हमी का बंद था। जो हुआ वह इसी दल के कारण हुआ, यह संदेश देने का प्रयास किया गया। जबकि बंद का आह्वान वामदलों ने किया था और राजद सहित अन्य विपक्षी दलों ने बंद को समर्थन दिया था।
बिहार में अजब मीडिया की गजब कहानी है और यह इसकी नियति बन चुकी है। सच छुपाया जाता है और झुठ को बढ़ा चढ़ा कर दिखाये जाने को पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्टता का पर्याय माना जाता है। कल सूचना एवं जनसंपर्क विभाग वालों ने एक प्रेस विज्ञप्ति भेजा। उसके अनुसार सूबे के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने तम्बाकू को लेकर न्यूयार्क में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में बिहार के विकास की कहानी और सूबे को तम्बाकू रहित बनाने हेतु चलायी जा रही योजनाओं के बारे में तमाम तरह के दावे किये। यह खबर आज हर अखबार में छपा है। लेकिन यह खबर कहीं भी नहीं है कि किस प्रकार स्कूल, मंदिरों और अस्पतालों के किनारे शराब के वैध-अवैध अड्डे हैं और हर दूसरा व्यक्ति तम्बाकू का सेवन करता है।
बहरहाल, गया जिले में मारे गये जवानों को अपना बिहार की ओर से लाल सलाम। लाल सलाम शब्द से याद आया। यह तो नक्सलियों द्वारा उपयोग किया जाने वाला शब्द है। उनका एकाधिकार है और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था इस शब्द से मदमस्त सांढ़ की तरह भड़कता है। जबकि अक्सर मारे गये जवानों को अंत्येष्टि के समय शस्त्रों की सलामी देने की परंपरा है, फ़िर लाल सलाम कहने पर आपत्ति क्यों?
लेखक नवल किशोर बिहार के जानेमाने पत्रकार हैं.