Vyalok Pathak : मांझी- द माउंटेन मैन, फिल्म पर बहुत ने काफी कुछ लिखा है। अब, इस पर और कुछ लिखना दोहराव ही होता, इसलिए चुप भी था। बहरहाल, नवाजुद्दीन तो खैर शानदार हैं ही, लेकिन अपनी छोटी सी भूमिका में मैदान लूट जाते हैं तिग्मांशु। इसलिए, कि मुखिया के तौर पर उन्होंने जितनी गालियां खायी हैं, दर्शकों से…वह उनके मंझे हुए अभिनेता की ताईद करता है। (इसी पर, एक कथा याद आती है….मदनमोहन मालवीय एक नाटक देख रहे थे। उसमें विलेन की भूमिका कर रहे व्यक्ति (अभी नाम नहीं याद है) का अभिनय इतना ज़बर्दस्त था कि मालवीयजी ने अपना जूता निकाल कर उस पर फेंक दिया। अभिनेता ने ताउम्र उस जूते को अपने पास रखा। उनके मुताबिक, वह सभी पदकों से बड़ा सम्मान था)।
तिग्मांशु ने अपनी भूमिका से सभी संवेदनशील लोगों की आंख में खून ला दिया है, जो भी जाति-व्यवस्था के सड़े हुए घाव से हिंदू धर्म को आज़ाद देखना चाहते हैं। हमारे धर्म के तथाकथित ठेकेदारों ने इसमे जाति का घुन लगाकर किस तरह इसका सर्वनाश किया है, मांझी एक बार फिर उसकी ही मिसाल देता है। मांझी हमारे देश में आलस्य, अंधविश्वास और झूठी शान की भी आंखें खोल देनेवाली कहानियां कहता है। साथ ही, मांझी इस देश के तमाम हरामखोर नेताओं के लिए भी उत्कट घिन पैदा करता है, जिन्होने गोरों के जाने के बाद से ही कफन तक की चोरी कर ली, गरीबों का खून तो चूसा ही, उनकी हड्डी तक का चूरा बना कर घोल कर पी गए हैं। बहुत अर्से बाद ऐसी अवसाद देनेवाली फिल्म देखी, गोकि मांझी का Triumph आपको याद रह जाता है…
पत्रकार व्यालोक पाठक के फेसबुक वॉल से.