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कैसे मिले संघ के आरक्षण विरोधी षडयंत्र से निजात

डॉ. हेडगेवार द्वारा 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का सर्वाधिक अनुशासित व समर्पित संगठन है। इसके प्रायः तीन दर्जन से अधिक शिशु संगठन हैं, जिनके साथ लाखों लोग समर्पित भाव से जुड़े हैं, जो हिन्दू-धर्म-संस्कृति के उज्जवल पक्ष और अल्पसंख्यक, विशेषकर   मुस्लिम विद्वेष के निरंतर प्रचार-प्रसार के जरिये इसे विस्तार प्रदान करते रहे हैं। इनमें राजनीति , प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया, कला और संस्कृति, उद्योग-व्यापार व आध्यात्मिक जगत से जुड़ी असंख्य बड़ी-बड़ी हस्तियाँ तक शामिल हैं। इसके हमउम्र दूसरे कई संगठन जहां अतीत की बात बनकर रह गए हैं, वहीँ यह द्रुत गति से विस्तार लाभ करते हुए आज इसने भारत की केन्द्रीय सत्ता की बागडोर को अपने हाथों में ले लिया है। इसी संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत ने बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मियों के मध्य आरक्षण की समीक्षा के लिए गैर-राजनीतिक समिति बनाने की वकालत कर विशाल बहुजन समाज को भयाक्रांत कर दिया है। उनके उस बयान के असर का अनुमान लगाते हुए हुए संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा ने उनसे असहमति जताने तक का दुस्साहस कर डाला। उनके बयान से भाजपा ने भले ही किनारा कर लिया, किन्तु शिवसेना, विश्व हिन्दू परिषद सहित संघ के अन्य कई आनुषांगिक संगठनों ने उसका जोरदार समर्थन किया। बहरहाल भाजपा के ऐसा करने पर लोगों की धारणा थी कि संघ प्रमुख कुछ रक्षात्मक मुद्रा अख्तियार कर लेंगे। किन्तु इसके विपरीत उन्होंने कुछ दिनों बाद पूर्ववत सहजता से फिर कह दिया,’आरक्षण पर चर्चा करना कोई बुरी बात नहीं।’

<p>डॉ. हेडगेवार द्वारा 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का सर्वाधिक अनुशासित व समर्पित संगठन है। इसके प्रायः तीन दर्जन से अधिक शिशु संगठन हैं, जिनके साथ लाखों लोग समर्पित भाव से जुड़े हैं, जो हिन्दू-धर्म-संस्कृति के उज्जवल पक्ष और अल्पसंख्यक, विशेषकर   मुस्लिम विद्वेष के निरंतर प्रचार-प्रसार के जरिये इसे विस्तार प्रदान करते रहे हैं। इनमें राजनीति , प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया, कला और संस्कृति, उद्योग-व्यापार व आध्यात्मिक जगत से जुड़ी असंख्य बड़ी-बड़ी हस्तियाँ तक शामिल हैं। इसके हमउम्र दूसरे कई संगठन जहां अतीत की बात बनकर रह गए हैं, वहीँ यह द्रुत गति से विस्तार लाभ करते हुए आज इसने भारत की केन्द्रीय सत्ता की बागडोर को अपने हाथों में ले लिया है। इसी संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत ने बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मियों के मध्य आरक्षण की समीक्षा के लिए गैर-राजनीतिक समिति बनाने की वकालत कर विशाल बहुजन समाज को भयाक्रांत कर दिया है। उनके उस बयान के असर का अनुमान लगाते हुए हुए संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा ने उनसे असहमति जताने तक का दुस्साहस कर डाला। उनके बयान से भाजपा ने भले ही किनारा कर लिया, किन्तु शिवसेना, विश्व हिन्दू परिषद सहित संघ के अन्य कई आनुषांगिक संगठनों ने उसका जोरदार समर्थन किया। बहरहाल भाजपा के ऐसा करने पर लोगों की धारणा थी कि संघ प्रमुख कुछ रक्षात्मक मुद्रा अख्तियार कर लेंगे। किन्तु इसके विपरीत उन्होंने कुछ दिनों बाद पूर्ववत सहजता से फिर कह दिया,’आरक्षण पर चर्चा करना कोई बुरी बात नहीं।’</p>

डॉ. हेडगेवार द्वारा 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का सर्वाधिक अनुशासित व समर्पित संगठन है। इसके प्रायः तीन दर्जन से अधिक शिशु संगठन हैं, जिनके साथ लाखों लोग समर्पित भाव से जुड़े हैं, जो हिन्दू-धर्म-संस्कृति के उज्जवल पक्ष और अल्पसंख्यक, विशेषकर   मुस्लिम विद्वेष के निरंतर प्रचार-प्रसार के जरिये इसे विस्तार प्रदान करते रहे हैं। इनमें राजनीति , प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया, कला और संस्कृति, उद्योग-व्यापार व आध्यात्मिक जगत से जुड़ी असंख्य बड़ी-बड़ी हस्तियाँ तक शामिल हैं। इसके हमउम्र दूसरे कई संगठन जहां अतीत की बात बनकर रह गए हैं, वहीँ यह द्रुत गति से विस्तार लाभ करते हुए आज इसने भारत की केन्द्रीय सत्ता की बागडोर को अपने हाथों में ले लिया है। इसी संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत ने बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मियों के मध्य आरक्षण की समीक्षा के लिए गैर-राजनीतिक समिति बनाने की वकालत कर विशाल बहुजन समाज को भयाक्रांत कर दिया है। उनके उस बयान के असर का अनुमान लगाते हुए हुए संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा ने उनसे असहमति जताने तक का दुस्साहस कर डाला। उनके बयान से भाजपा ने भले ही किनारा कर लिया, किन्तु शिवसेना, विश्व हिन्दू परिषद सहित संघ के अन्य कई आनुषांगिक संगठनों ने उसका जोरदार समर्थन किया। बहरहाल भाजपा के ऐसा करने पर लोगों की धारणा थी कि संघ प्रमुख कुछ रक्षात्मक मुद्रा अख्तियार कर लेंगे। किन्तु इसके विपरीत उन्होंने कुछ दिनों बाद पूर्ववत सहजता से फिर कह दिया,’आरक्षण पर चर्चा करना कोई बुरी बात नहीं।’

  हालांकि संघ की ओर से आरक्षण की समीक्षा की मांग कोई नयी बात नहीं है। इसके पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ज़माने में जहां खुद वाजपेयी ने संविधान समीक्षा की मांग उठाई थी, वहीँ संघ के तत्कालीन प्रवक्ता राम माधव ने आरक्षण के सम्पूर्ण ढांचे पर समग्रता से विचार करने की मांग उठाते हुए यहां तक कह दिया था कि आरक्षण देने के मामले में केवल राजनीतिक दलों के बीच की सहमति के आधार पर निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए। उन दिनों भी संघ से जुड़ी बड़ी हस्तियों की संविधान और आरक्षण की समीक्षा की मांग से बहुजन समाज में चिंता की लहर दौड़ी गयी थी, पर यह समाज आज की तरह भयाक्रांत नहीं हुआ था। ऐसा इसलिए कि तब केंद्र की सत्ता पर काबिज संघ के राजनीतिक संगठन के पास न तो आज जैसा प्रचंड बहुमत था और न ही सामाजिक न्याय के नायकों और लोकतंत्र के चौथे खम्भे ने आज की तरह उसके समक्ष पूरी तरह घुटने ही टेके थे। ऐसे में बेहद अनुकूल माहौल में संघ प्रमुख ने आरक्षण की समीक्षा की मांग उठा कर बहुजनों की शिराओं में अभूतपूर्व रूप से भय का संचार कर दिया है। हालांकि राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने यह कह कर –‘तुम आरक्षण ख़त्म करने की बात करते हो ,हम इसे आबादी के अनुपात में बढ़ाएंगे- जरुर हौसला बढ़ाया है, पर वंचित बहुजन समाज पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पा रहा है। उसे भय है कि बिहार में यदि संघ के राजनीतिक संगठन को रोका नहीं गया तो वह निकट भविष्य में आरक्षण पर अपनी वाली कर गुजरेगा। बात सिर्फ आरक्षण तक सीमित ही नहीं है,मोदी-राज में संघ के आनुषांगिक संगठन जिस तरह विरुद्ध धर्म-संस्कृति के खिलाफ नए सिरे से हमलावर हुए हैं, उससे विविधतामय भारत समाज का तानाबाना भी संकटग्रस्त हो गया। ऐसे में राज-सत्ता और मीडिया के अपार समर्थन से अप्रतिरोध्य बना संघ परिवार ने बहुजन समाज के नेताओं और बुद्धिजीवियों को उद्भ्रान्त कर दिया है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है इस आफत का मुकाबला कैसे किया जाये। लेकिन संघ जितना भी अप्रतिरोध्य क्यों न हो, उसकी भी कुछ कमजोरियां हैं, जिनका सद्व्यवहार कर उस पर काबू पाया जा सकता है।
  अपनी गतिविधियों से देश की बहुसंख्य वंचित आबादी को आतंकित करने वाला संघ खुद ‘आ’ द्वय सिद्धान्त अर्थात अंग्रेजों द्वारा आविष्कृत ‘आर्य’ तत्व और ‘आरक्षण’ से उसी तरह खौफ खाता है जैसे पागल कुत्ते से आक्रांत व्यक्ति पानी से भयाक्रांत होता है। इनमें आर्य-तत्व का खौफ इतना तीव्रतर रहा कि तिलक और दयानंदों के ‘आर्य-समाज’ के विपरित संघ संस्थापक को अपने सजाति–हित में विशाल हिन्दू समाज बनाने की दिशा में अग्रसर होना। ऐसा इसलिए कि जिन ब्राह्मणों के नेतृत्व में सवर्णों की स्वार्थ-रक्षा के लिए संघ की स्थापना की गयी, वे ब्राह्मण आर्य-सिद्धांत के अनुसार विदेशीमूल के रूप में चिन्हित होते हैं। यही कारण कि  है संघ के बुद्धिजीवी आर्य सिद्धांत को भ्रांत व मुसलमानों और सोनिया गाँधी को विदेशी बताने में सर्वशक्ति लगाते रहते हैं। लेकिन अंग्रेजों द्वारा आविष्कृत और तिलक-नेहरु इत्यादि द्वारा समर्थित आर्य-अनार्य सिद्धांत अगर ब्राह्मणों को विदेशी चिन्हित करने तक ही सीमित रहता तो भी संघ की स्थिति जलातंक के मरीज जैसी नहीं होती। वह तो इसलिए इससे सर्वाधिक खौफ खाता है क्योंकि यह सिद्धान्त शोषित जातियों में व्याप्त उस घृणा व शत्रुता का विलोप करता है, जो सदियों से ब्राह्मणों एवं उनके सहयोगी क्षत्रिय–वैश्यों के शासन-शोषण को अटूट रखने का कारगर हथियार रहा है। इस सिद्धांत के कारण  ही अनार्य रूप में चिन्हित शुद्रातिशूद्रों की कई सहस्र जाति-उपजातियों में मूलनिवासी और सिन्धु घाटी सभ्यता का सृजनकर्ता होने का अहसास पैदा होता है। इससे ब्राह्मणों के शास्त्रों द्वारा मानवेतर बनाये गए मूलनिवासियों में उन प्राचीन विदेशागतों के प्रति एक जबरदस्त आक्रोश पनपता है जिन्होंने छल-बल-कल से सदियों से इस देश के शक्ति के समस्त स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक,धार्मिक-शैक्षिक इत्यादि) पर एकाधिकार कायम किया हुआ है। सवर्ण-सत्ता के विरुद्ध सर्वाधिक प्रभावी हथियार साबित होने के कारण ही संघी विद्वान् यह प्रमाणित करने का असफल प्रयास करते रहते हैं कि आर्य विदेश से नहीं आये थे एवं भारतीयों में फूट डालने के लिए अंग्रेजों ने आर्य-अनार्य सिद्धांत का सृजन किया था।
   यदि स्वयं सेवकों के लिए आर्य-अनार्य फूट डालने वाले षड्यंत्र से प्रेरित सिद्धांत है तो आरक्षण समाज को विभाजित करने वाली एक व्यवस्था का नाम है। इसीलिए संघ पूना-पैक्ट के जमाने से आरक्षण का विरोधी रहा एवं मंडल के माध्यम से आरक्षण को विस्तार लाभ करते देख भारतीय राजनीति की दिशा बदलने पर आमादा हो गया। लेकिन आरक्षण समाज का विभाजन करता है, यह प्रचारित कर खुद ही संघ इसके विरोध के असल कारणों का खुलासा कर देता है। जिन लोगों ने  प्रोपेगंडा पर निर्भर संघ की प्रचार शैली का मनोयोगपूर्वक अध्ययन किया है, उन्हें पता है यह सत्य को विलोम रूप में प्रकट करता है। मसलन यह मूलतः राष्ट्र विरोधी संगठन है,पर खुद को प्रचारित करता है महा-राष्ट्रवादी व देशभक्त। किन्तु जो संगठन परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न अल्पजनों की स्वार्थरक्षा के लिए देश को आर्थिक रूप से विदेशियों का गुलाम बनाने; 18 करोड़ अल्पसंख्यक मानव समूहों को राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग-थलग करने एवं सदियों से शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत किये गए विशाल वंचित समाज का विकास रोकने के षड्यंत्र में सब समय निमग्न रहता है, वह तो विशुद्ध राष्ट्रविरोधी ही कहलायेगा पर संघ है कि निर्लज्जता से खुद को राष्ट्रवादी कहता है। इसी तरह उसके असल निशाने पर तो हैं दलित,आदिवासी और पिछड़े किन्तु हावभाव से मुसलमानों को अपना मुख्य शत्रु प्रदर्शित करता है। इसी तरह आरक्षण चूंकि समाज को जोड़ता है, इसलिए विलोम भाषा में अपने भावों को व्यक्त करने वाला संघ आरक्षण को प्रचारित करता है समाज-विभाजक।
    वास्तव में संघ सवर्णों के हित को दृष्टिगत रखते हुए पूना–पैक्ट के ज़माने से आरक्षण का जो विरोध कर रहा है उसका एक अन्यतम अगोचर कारण यह है कि जिन हिन्दू-शास्त्रों और भगवानों के सौजन्य से सवर्णों का शक्ति के स्रोतों पर सदियों से एकाधिकार रहा, उनको आरक्षण मिथ्या प्रमाणित कर देता है। कैसे! वह ऐसे कि जिन हिन्दू-शास्त्रों और भगवानों ने शुद्रातिशूद्रों को मात्र दासत्व-गुणों से संपन्न करार दिया है, उन्हें आरक्षण सवर्णों की भांति डॉक्टर, इंजीनीयर, प्रोफ़ेसर, सैनिक, मंत्री इत्यादि के रूप में बड़ी आसानी से उतीर्ण कर देता है। इससे लोगों में हिन्दू धर्म-शास्त्रों के प्रति अविश्वास पैदा होता है, जो निश्चय ही हिन्दुइज्म की दीर्घजीविता के लिए ठीक नहीं है। चूंकि संघ की प्राणशक्ति हिन्दू धर्म द्वारा फैलाया गया अंधविश्वास, घृणा-द्वेष, दैविक-गुलामी है और आरक्षण इसके खिलाफ क्रियाशील रहता है, इसलिए भी संघ इसके खात्मे के चक्रांत में सदैव लिप्त रहता है। किन्तु संघी दृष्टिकोण से आरक्षण का सबसे बड़ा अवगुण यह है कि इससे समाज टूटता नहीं, जुड़कर बहुजन समाज बनता है। इससे हजारों भागों में विभाजित समाज जाति से वर्ग में तब्दील होता है अल्पजन-बहुजन, शासक-शासित, शोषक-शोषित समाज। आरक्षण अगर भारतीय समाज का वर्गीकरण न करके जिस रूप में वैदिक मनीषियों के सौजन्य से यह घृणा और शत्रुता की बुनियाद पर विकसित हुआ, उस रूप में अगर अक्षत रखता या उस विभाजन को और विस्तार देता तो सवर्णवादी संघ इससे न तो खौफ खाता और न ही इसके खात्मे का षड्यंत्र करता। बहरहाल आरक्षण भारत के शोषितों और वाचितों को जोड़ता है, यह सत्य देश के सवर्णवादी समाजशास्त्रियों ने इच्छाकृत रूप से छिपाए रखा। किन्तु जब मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, समाज को जोड़ने में आरक्षण की प्रभावकारिता पानी की तरह साफ़ हो गयी। आरक्षण के कारण दलित-पिछड़ों की एकता और उनकी जातीय चेतना का लम्बवत विकास हुआ। इससे आर्यावर्त की राजनीति में काफी हद तक क्रान्तिकारी परिवर्तन आया। आरक्षण के जरिये हुई बहुजन एकता के फलस्वरूप जहां सवर्ण राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील हुए, वहीँ आर्यावर्त में वंचित बहुजनों की सत्ता कायम हो गयी।
    मंडल के माध्यम से दलित-पिछड़ों की अभूतपूर्व एकता का अनुमान लगाने में संघ को देर नहीं हुई। लिहाजा हमेशा ही विलोम भाषा में अपने मनोभावों को प्रकट करने वाले संघ के  महान सेवक लाल कृष्ण आडवाणी ने यह कह कर कि मंडल से समाज टूट रहा है, समाज को जोड़ने के लिए रामजन्म भूमि मुक्ति के नाम पर आजाद भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन (अटल बिहारी वाजपेयी के अनुसार) खड़ा कर दिया। इसके लिए संघ परिवार ने फेंका धर्म का वह चिरपरिचित अमोघ अस्त्र, जिससे घायल होकर सदियों से दलित पिछड़े नर-पशु बने रहे। राम जन्मभूमि-मुक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप कई हजार करोड़ की सम्पदा और असंख्य लोगों की प्राण-हानि हुई। उससे मिले जख्म से राष्ट्र आज भी उबर नहीं पाया है।  बहरहाल मंडल के खिलाफ संगठित संघ परिवार का आन्दोलन रंग लाया। भाजपा राज्यों से होते हुए केंद्र की सत्ता पर कब्ज़ा ज़माने में सफल हुई। किन्तु आरक्षण के खिलाफ अपार घृणा पोषण करने वाले संघ के राजनीतिक संगठन ने उस सत्ता का अधिकतम इस्तेमाल आरक्षण के खात्मे लायक हालात बनाने में किया। इसके लिए उसने उन सरकारी उपक्रमों को औने-पौने दामों में बेचने का तो उपक्रम चलाया ही, साथ ही आरक्षण के खात्मे के जूनून में ऐसी आर्थिक नीतियां ग्रहण की, जिससे देश विदेशियों का गुलाम बन जायेगा।
   आरक्षण को बेअसर करने के लिए उपरोक्त फार्मूलों के अतिरिक्त संघ परिवार ने एक और योजना पर काम करना शुरू किया। वह था जातिगत आधार पर आरक्षण का खात्मा । इसके पीछे उसकी सोच थी कि जातिगत आधार पर आरक्षण का खात्मा होने पर दलित-पिछड़ों इत्यादि को आरक्षित वर्ग के रूप में संगठित होने की सम्भावना कमजोर पड़ जाएगी तथा इस बहाने गरीब सवर्णों को भी अधिक से अधिक आरक्षण दिलाया जा सकेगा। इसीलिए अटल काल में जब राजस्थान मंत्रिमंडल ने सवर्णों के आरक्षण का प्रस्ताव पास किया, संघ ने स्वयंसेवी प्रधानमंत्री पर दबाव बनाया। उसके दबाव के फलस्वरूप जो वाजपेयी वर्षों से बार-बार यह कहते रहे कि आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है, इसलिए सवर्णों के आरक्षण पर उठती मांग का समर्थन करने की कोई युक्ति नहीं है, उसी वाजपेयी ने मौका देखकर सवर्णों के आरक्षण के लिए राष्ट्रीय आयोग गठित करने की घोषणा कर दिया था। उनकी उस घोषणा का आरक्षित वर्गों की ओर से कोई विरोध न होते देख ही संघ प्रवक्ता राम माधव ने तब घोषणा की थी -‘जाति  और धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं होना चाहिए। अब आरक्षण व्यवस्था के सम्पूर्ण ढांचे पर समग्रता से विचार होना चाहिए।’ अटल-राज में राम माधव द्वारा पेश की गयी आरक्षण विरोधी योजना को ही मोदी-राज के अनुकूल माहौल में संघ प्रमुख ने एक बार फिर आगे बढ़ा दिया है जिसे मूर्त रूप देने का काम बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम पर निर्भर करता है। अब जिस लालू यादव पर संघ के मंसूबों पर पानी फेरने की जिम्मेवारी है, वह यदि साहस और बुद्धिमता के साथ संघ प्रमुख के बयान का सद्व्यवहार करें तो बात बन सकती है। लालू यादव ने मोहन भगवत के बयान के प्रत्युत्तर में आबादी के संख्यानुपात में आरक्षण बढ़ाने को कहा है।अगर वह अपने बयान  पर कायम रहते हुए दलित,आदिवासी,पिछड़े और अकलियतों को सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्र की सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग, परिवहन, फिल्म-टीवी, पौरोहित्य सहित विकास की तमाम योजनाओं में संख्यानुपात आरक्षण देने की प्रभावी लड़ाई लड़ें तो आरक्षण के खात्मे की संघी परियोजना ध्वस्त हो जाएगी। इसके साथ ही यदि वह आर्य-अनार्य सिद्धांत का सद्व्यवहार कर दें, सवर्णवादी भाजपा के मंसूबों पर पानी फिरने में कोई संदेह ही नहीं रह जायेगा ।

 (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)             

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