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14 मार्च : पहली बोलती फिल्म आलम आरा के बरक्स

हर दिन गुजरने के साथ तारीख बदल जाती है. यह क्रम हमारे जीवन में नित्य चलता रहता है किन्तु कुछ तारीखें बेमिसाल होती हैं. बेमिसाल होने के कारण इन तारीखों को हम शिद्दत से याद करते हैं. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी कई तारीखें हैं जो हमें रोमांचित करती हैं तो आपातकाल की वह तारीख भी हमें भूलने नहीं देती कि किस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकेल डाला गया था. इन सबसे इतर यहां पर हम उन बेमिसाल तारीखों का जिक्र कर रहे हैं जिन तारीखों ने हमारे सांस्कृतिक वैभव को लगातार उन्नत किया है. दादा साहेब फाल्के ने भारत में सिनेमा की शुरूआत कर एक नई विधा को जन्म दिया. आरंभिक दिनों में सिनेमा में काम करना बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था किन्तु सौ साल से अधिक समय गुजर जाने के बाद सिनेमा की समाज में स्वीकार्यता न केवल कला विधा के रूप में हुई बल्कि रोजगार की दृष्टि से भी इसे मंजूर किया गया.

<p>हर दिन गुजरने के साथ तारीख बदल जाती है. यह क्रम हमारे जीवन में नित्य चलता रहता है किन्तु कुछ तारीखें बेमिसाल होती हैं. बेमिसाल होने के कारण इन तारीखों को हम शिद्दत से याद करते हैं. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी कई तारीखें हैं जो हमें रोमांचित करती हैं तो आपातकाल की वह तारीख भी हमें भूलने नहीं देती कि किस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकेल डाला गया था. इन सबसे इतर यहां पर हम उन बेमिसाल तारीखों का जिक्र कर रहे हैं जिन तारीखों ने हमारे सांस्कृतिक वैभव को लगातार उन्नत किया है. दादा साहेब फाल्के ने भारत में सिनेमा की शुरूआत कर एक नई विधा को जन्म दिया. आरंभिक दिनों में सिनेमा में काम करना बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था किन्तु सौ साल से अधिक समय गुजर जाने के बाद सिनेमा की समाज में स्वीकार्यता न केवल कला विधा के रूप में हुई बल्कि रोजगार की दृष्टि से भी इसे मंजूर किया गया.</p>

हर दिन गुजरने के साथ तारीख बदल जाती है. यह क्रम हमारे जीवन में नित्य चलता रहता है किन्तु कुछ तारीखें बेमिसाल होती हैं. बेमिसाल होने के कारण इन तारीखों को हम शिद्दत से याद करते हैं. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी कई तारीखें हैं जो हमें रोमांचित करती हैं तो आपातकाल की वह तारीख भी हमें भूलने नहीं देती कि किस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकेल डाला गया था. इन सबसे इतर यहां पर हम उन बेमिसाल तारीखों का जिक्र कर रहे हैं जिन तारीखों ने हमारे सांस्कृतिक वैभव को लगातार उन्नत किया है. दादा साहेब फाल्के ने भारत में सिनेमा की शुरूआत कर एक नई विधा को जन्म दिया. आरंभिक दिनों में सिनेमा में काम करना बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था किन्तु सौ साल से अधिक समय गुजर जाने के बाद सिनेमा की समाज में स्वीकार्यता न केवल कला विधा के रूप में हुई बल्कि रोजगार की दृष्टि से भी इसे मंजूर किया गया.

दादा साहेब फाल्के ने सफर मूक सिनेमा से भारत में इसकी शुरुआत की थी लेकिन थोड़े समय में ही मूक सिनेमा को आवाज मिल गई. इस कड़ी में पहली बोलती फिल्म के रूप में भारतीय सिनेमा के इतिहास में ‘आलमआरा’ का नाम दर्ज हो गया. भारतीय सिनेमा के इतिहास में तारीख 14 मार्च बेमिसाल तारीख के रूप में दर्ज हो गई. साल कोई भी हो किन्तु 14 मार्च को हम कभी भूल नहीं पाएंगे. यह तारीख सिनेमा से वास्ता रखने वालों, सिनेमा के विद्यार्थियों और सिनेमा के शोधार्थियों के लिए खास मायने रखता है. सौ साल पहले जब भारत में सिनेमा का आरंभ हुआ था, तब किसी को इस बात का इल्म भी नहीं था कि समूचे संसार में सबसे ज्यादा फिल्म निर्माण करने वालों में भारत गिना जाएगा. आज फिल्म निर्माण की दृष्टि से सबसे आगे हैं. यह हमारे लिये गौरव की बात है.

सौ साल से ज्यादा का सफर तय कर चुके भारतीय सिनेमा के विविध रंग हैं. विषयों को लेकर उसके पास अपार संभावनाएं हैं क्योंकि भारत की छवि अनेकता में एकता की है. बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले भारतीय फिल्मकार समय-काल के अनुरूप फिल्मों का निर्माण करते रहे हैं. भारत में सिनेमा आरंभिक दिनों में धार्मिक विषयों पर केन्द्रित रहा. विविधता भारतीय सिनेमा की खासियत है. लगभग हर दस साल में सिनेमा के विषयों में परिवर्तन होता रहा है. समय-काल के अनुरूप विषयों का चयन करना और समाज को सचेत करने का काम सिनेमा करता रहा है.

भारतीय सिनेमा के सामाजिक सरोकार का केनवास बहुत विस्तार लिए हुए है. इस बात से इंकार नहीं कि दिन प्रति दिन विकसित होते भारत में शिक्षा, गरीबी और बेरोजगारी जड़मूल समस्या के रूप में विद्यमान है. जैसा कि हम पत्रकारिता में पढ़ते हैं कि पत्रकारिता के तीन मूल ध्येय हैं-1. शिक्षा, 2. सूचना तथा 3. मनोरंजन. सिनेमा भी इन तीन ध्येय को अपने समक्ष रखकर फिल्म का निर्माण करता है. स्मरण करना होगा कि पहले की फिल्मों में भारत की गरीबी और अशिक्षा के साथ बेरोजगारी का चित्रण हुआ करता था. भारतीय सिनेमा की माइलस्टोन फिल्म ‘मदर इंडिया’ में गरीबी का जितना मार्मिक ढंग से चित्रण हुआ है, वह अविस्मरणीय है. साथ ही गरीबी के साथ आत्मसम्मान के साथ जीना भारत की मिट्टी की खासियत है, इस बात का भी बखूबी चित्रण किया गया है. सायस या अनायस इस बात का भी चित्रण किया गया है कि अंग्रेज शोषकों के भारत से विदा हो जाने के बाद शोषण का सिलसिला खत्म नहीं हुआ बल्कि हमारे अपने लोग, अपनों का शोषण करते रहे.

शोमेन पुकारे जाने वाले राजकपूर की फिल्मों में सामाजिक रूढिय़ों पर आघात किया जाता रहा है किन्तु कई बार राजकपूर विद्रोही भूमिका में भी दिखते हैं. गरीबी उनकी फिल्मों का विषय रहा है और इसी गरीबी के कारण वे विद्रोही भी हो जाते हैं. दृष्टव्य है उनका एक डॉयलाग- ‘जब रोटी मांगने से ना मिले तो छीन लो’. यही राजकपूर दस्यु के आत्मसमर्पण पर फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ का निर्माण करते हैं तो ‘प्रेमरोग’ में वे विधवा विवाह की पैरवी करते हैं. ‘मेरा नाम जोकर’ में वे जीवन के कई रंगों को इतनी सहज ढंग से व्यक्त करते हैं कि बरबस आंखें भीग जाती हैं. उनकी फिल्मों पर चर्चा के लिए पूरे खंड की आवश्यकता होगी किन्तु अभी चर्चा संक्षिप्त में ही.

भारतीय सिनेमा की विषय-वस्तु में साहित्य का पक्ष कभी कमजोर नहीं रहा. मुंशी प्रेमचंद की कहानियों पर फिल्म का निर्माण हुआ किन्तु वह लोकप्रिय नहीं हो सका. कथा सम्राट अपनी कृतियों में हस्तक्षेप नहीं चाहते हैं जबकि सिनेमा बिना हस्तक्षेप कार्य कर नहीं सकता है. प्रेमचंद के बाद के कई नामचीन साहित्यकारों की कृतियों पर फिल्मों का निर्माण हुआ और वे लोकप्रिय भी हुईं. हालांकि जिन साहित्यिक कृतियों पर फिल्मों का निर्माण हुआ, उनमें ज्यादतर बांग्ला साहित्य था. कुछ अंग्रेजी साहित्यकारों, नाट्यकृतियों के साथ ही मराठी, गुजराती और दक्षिण के साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनी किन्तु हिन्दी साहित्यिक कथाओं पर फिल्मों का निर्माण कम ही हुआ.

भारतीय सिनेमा के इतिहास में आलमआरा का उल्लेख पहली बोलती फिल्म को लेकर है तो आहिस्ता आहिस्ता भारतीय सिनेमा तकनीकि दृष्टि से समृद्ध होता चला गया. 70 के दशक तक हम सिनेमास्कोप में फिल्में देखते थे और यह भी हमारे लिए एक सुखद अनुभव था. रंगीन फिल्मों का निर्माण होने लगा था. साल 75 भारतीय सिनेमा के लिए एक और यादगार साल के रूप में जाना जाएगा. इस साल भारतीय सिनेमा ने तकनीक की दृष्टि से बड़ी छलांग लगाकर 70 एमएम स्क्रीन पर फिल्म दिखाने की शुरूआत की थी. साल 75 की अविस्मरणीय फिल्म ‘शोले’ थी. यानि एक तरफ हम 70 एमएम पर्दे पर आनंद ले रहे थे और दूसरी तरफ ड्रामा फिल्म शोले का आनंद.

इसके बाद तकनीक की दृष्टि से हम और मजबूत तथा समृद्ध होते चले गए. संभवत: 80 के दशक में पहली थ्रीडी फिल्म ‘छोटा चेतन’ पर्दे पर उतरी थी. भारतीय दर्शकों लिए यह रोमांच से भरी हुई फिल्म थी.  सिनेमा की टिकट के साथ कुछ अतिरिक्त पैसे लेकर थ्रीडी चश्मे दिये जाते थे और फिल्म देखते हुए हर दृश्य के साथ दर्शक अपने शरीर का मूवमेंट किया करता था.  छोटा चेतन के बाद इस तरह की फिल्मों का दौर ठहर गया. हालांकि तकनीकि दृष्टि से अनेक प्रयोग देखने को मिलते हैं.

नई सदी में भारतीय सिनेमा जब अपने जन्म के सौ साल पूरे कर रहा था, तब नए दौर का नया सिनेमा अपनी नयी पटकथा लिखने में व्यस्त था. सिनेमा की हर विधा मेें नयापन था. ‘दीवार’ फिल्म से एंग्रीमैन के रूप में अमिताभ सरीखा गुस्सैल नायक परदे पर उतर चुका था तो नई सदी में मदर इंडिया को छोडक़र खुद के फ्रिकमंद नायिका फैशन, कम्पनी और डर्टी पिक्चर में नए रूप में मौजूद थी.

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सिनेमा हॉल की सूरत भी बदलने लगी थी. मल्टीप्लेक्स के दौर में लोअर, अपर और बालकनी का कांसेप्ट पीछे छूट गया था. चार आने पैसे की टिकट वाली फिल्में अब दो और पांच सौ में देखने को उपलब्ध थी. अब न तो फिल्में रूकती थी और न दर्शकों को पसीने से सराबोर होना पड़ता था. लाईट बंद हो जाने पर पंखे के लिए शोर मचाने के साथ ही हर दृश्य पर सीटी बजाना और पैसे फेंकने का रिवाज भी लगभग खत्म हो चला था. नए दौर के इन सिनेमाहॉल में कोई दर्शक न तो गरीब था और न ही अमीर. मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल समाजवाद की नयी परिभाषा गढ़ रही थीं. छोटा चेतन की याद दिलाती सिनेमा हॉल अब थ्रीड और फोरडी में बदल चुकी हैं. हालांकि छोटा चेतन का यह कोई मुकाबला नहीं कर सकती हैं क्योंकि वह पूरे समय की फिल्म थी और इनकी अवधि 20-22 मिनट के इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाती हैं.

भारतीय सिनेमा के इस नए दौर में तकनीकि रूप से समृद्ध कई बड़ी फिल्मों का आगाज हुआ. रोबोट, कृश, धूम और इसके बाद बाहुबली जैसी फिल्में आयी. ये फिल्में कथानक के तौर पर शायद कमजोर हों लेकिन तकनीकि दृष्टि से बेहद सम्पन्न थीं. इस दौर में विषय को लेकर एक बड़ा परिवर्तन दिखा और अनिवासी भारतीय लोगों को लेकर फिल्में बनी. इस तरह की फिल्में एक तरह की फ्यूजन फिल्में थी जिसमें यूरोप और भारतीय संस्कृति को मिक्स कर बनायी गयी थी. अपने रिलीज के दौरान बेशक इन फिल्मों ने बिजनेस अच्छा किया लेकिन छाप छोडऩे में कामयाब नहीं हो पायीं. जिस तरह आज के दौर में भी हम मदर इंडिया, दो बीघा जमीन, सुजाता, दो आंखें बारह हाथ, कागज के फूल, बंदिनी, मुगले आजम, शतरंज के खिलाड़ी आदि-इत्यादि फिल्मों को मिसाल के तौर पर स्मरण करते हैं तब यह फिल्में कहीं नहीं ठहरती हैं.

1912-2016 के समय में परिवर्तन को परखते हैं तो पाने की खुशी कम नहीं है तो खोने का अफसोस भी है. बदलाव तो होना था लेकिन विश्व सिनेमा मंच पर हम बार बार बेदखल किए जाते हैं, यह रंज भरा है. यह इसलिए भी कि भारतीय सिनेमा समृद्ध होने के बाद भी ऑस्कर पाने की ललक में बैठा हुआ है. हम विषयगत फिल्मों का निर्माण करते हैं तथा भारतीय सिनेमा सामाजिक सरोकार की विधा है अत: हम अपने समाज की समस्याओं को उकेरते हैं और समाधान तलाशने की कोशिश करते हैं. कला की दृष्टि से यह फिल्में उत्कृष्ट होती हैं और ऑस्कर की लालच में हम जोर लगाते हैं. जिन अंग्रेजों ने सैकड़ों साल हम पर राज किया, उनकी देहरी में हम अपनी कला को सराहने और पुरस्कृत कराने की चाह में पंक्तिबद्ध रहते हैं और वे हैं कि हमारी कला को तो समझने का प्रयास नहीं करते अपितु हमारे देश की गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी को मजाक बनाते हैं. इसके कई उदाहरण हैं और कई बार हमें निराश होना पड़ा है.

लेखक मनोज कुमार भोपाल से प्रकाशित मीडिया एवं सिनेमा की शोध पत्रिका ‘समागम’ के सम्पादक हैं. संपर्क : 9300469918

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