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इलाहाबाद कमिश्‍नरी कांड : धत्त तेरी बाभन की तो ऐसी की तैसी…

Kumar Sauvir : आक्क् थू… यह है हमारे यूपी की ब्यूरोक्रेसी। बताने वाले बताते हैं कि किस्सा इस तरह है कि:- कुम्भ-नगरी इलाहाबाद के मंडल आयुक्त ने अपने अधीनस्थ अपर आयुक्त से कुछ फाइलें मांगी थीं।
अपर आयुक्त ने फाइलें देने में आनाकानी की। वे ब्यूरोक्रेसी के दबंग खानदान के बचे-खुचे दरवज्जा-खिड़की की तरह अवशेष हैं और हमेशा किसी न किसी मामले में भड़भड़ाती रहती ही हैं। आयुक्त ने अपर आयुक्त को दफ्तर में तलब किया। जब अपर आयुक्त आफिस पहुंचीं तो दोनों के बीच हॉट-टाक हो गई। 

<p>Kumar Sauvir : आक्क् थू... यह है हमारे यूपी की ब्यूरोक्रेसी। बताने वाले बताते हैं कि किस्सा इस तरह है कि:- कुम्भ-नगरी इलाहाबाद के मंडल आयुक्त ने अपने अधीनस्थ अपर आयुक्त से कुछ फाइलें मांगी थीं।<br />अपर आयुक्त ने फाइलें देने में आनाकानी की। वे ब्यूरोक्रेसी के दबंग खानदान के बचे-खुचे दरवज्जा-खिड़की की तरह अवशेष हैं और हमेशा किसी न किसी मामले में भड़भड़ाती रहती ही हैं। आयुक्त ने अपर आयुक्त को दफ्तर में तलब किया। जब अपर आयुक्त आफिस पहुंचीं तो दोनों के बीच हॉट-टाक हो गई। </p>

Kumar Sauvir : आक्क् थू… यह है हमारे यूपी की ब्यूरोक्रेसी। बताने वाले बताते हैं कि किस्सा इस तरह है कि:- कुम्भ-नगरी इलाहाबाद के मंडल आयुक्त ने अपने अधीनस्थ अपर आयुक्त से कुछ फाइलें मांगी थीं।
अपर आयुक्त ने फाइलें देने में आनाकानी की। वे ब्यूरोक्रेसी के दबंग खानदान के बचे-खुचे दरवज्जा-खिड़की की तरह अवशेष हैं और हमेशा किसी न किसी मामले में भड़भड़ाती रहती ही हैं। आयुक्त ने अपर आयुक्त को दफ्तर में तलब किया। जब अपर आयुक्त आफिस पहुंचीं तो दोनों के बीच हॉट-टाक हो गई। 

आयुक्त ने डांट दिया तो अपनी चप्पल निकाल कर अपर आयुक्त ने आयुक्त को दौड़ा लिया। आयुक्त ने भी तेवर दिखाए तो अपर आयुक्त ने हार कर अपना त्रिया-चरित्तर दिखाना शुरू कर दिया। नतीजा यह कि अपर आयुक्त ने भरे दफ्तर धड़ाम से खुद को जमीन पर फेंक दिया। दिखा कि मानो वो बेहोश हो गयीं। फोन गया जिला अस्पताल में। डाक्टर आया कमिश्नरी में। अपर आयुक्त को एम्बुलेंस में लाद दिया गया। रस्मी अंदाज़ वाले गंदे बेड पर अपर आयुक्त लिटाई गयीं। 2 घंटे तक। अब अपर आयुक्त लगा रही हैं सरेआम अश्लील शब्दों का आरोप। अपने ही आयुक्त पर। पूरा दफ्तर सन्न है। अभी और भी लग सकते हैं गंदे आरोप। अपर आयुक्त के भाई मौके पर मौजूद। संकल्प ले रहे है सरेआम दफ्तर में अपनी बहन के बेइज्ज़ती का बदला। मसलन जूतों से पिटाई जैसी आक्रामक कार्रवाई।

यह ब्राह्मण की जात होती है ना‚ छोडिये‚ अब मुझसे मत कहलाइये। मुझसे बोलवायेंगे तो मैं सबसे पहले इस जाति की तारीफ ही करूंगा। और फिर उसकी लानत-मलामत। लेकिन आज मैं तारीफ वाला हाशिया छोड़े दे रहा हूं। अब सिर्फ गरियाऊंगा बाभनों को। साफ–साफ कहूंगा कि यह बाभन जात ससुरी बहुत बवाली होती है। बकवादी‚ बवाली और दिमाग से खाली। मैं जब बोलूंगा तो खरा–खरा बोलूंगा और खासखास कर उन बाभनों पर तान–तान पर ढेले–गुम्मा मारूंगा‚ जो बिलकुल अपनी नंगई पर आमादा रहते रहे हैं या कर रहे हैं। ख्रासकर उन पंडितों पर गरियाऊंगा जो सरकारी तनख्वाह भी हासिल करते हैं और सरकारी खजाना भी खाली करते हैं। इतने से भी मन नहीं भरता है तो जनता की जेब टटोलना शुरू कर देते हैं। यह भी होता तो भी बर्दाश्त हो जाता। अब तो यह लोग आम आदमी के साथ बदतमीजी की भी पराकाष्ठाओं तक कूद चुके हैं। तमीज का पाजामा पहनना तो यह लोग बहुत पहले ही छोड़ चुके हैं। लेकिन आज कल तो यह अपने ही खानदान के शरीफ लोगों की भी छीछालेदर करने के लिए साम–दाम–दण्ड–और भेद पर आमादा हैं।

जी हां‚ मैं सरकारी अफसरों पर बात कर रहा हूं। मैं यह भी खूब जानता हूं कि पंडित जात के बहुत कम ही लोग इस फ्रेम में आते हैं‚ जिन पर बेईमानी का खुला कींचड़ सना हुआ है। कम ही अफसर हैं‚ जो बेईमान हैं। लेकिन साहब‚ जो वाकई हैं‚ वे इतने बेईमान हैं‚ कि यमराज तक आजिज आ जाएं। बाकी सब की ईमानदारी पर भी उनकी बेईमानी का पलड़ा भारी हो जाता हैǃ उनमें भी वो‚ जो नौकरी तो सरकार की करते हैं‚ लेकिन खुद को खुदा साबित करने में जुटे रहते हैं। जनता को अपनी जूती के नोक पर। पूरी बेशर्मी से। तो आज बात शुरूआत करते हैं इलाहाबाद में हुई ताजा नौटंकी से। काव्य में शब्दों के पुनरावृत्ति वाली तारतम्यता में एक तुकबंदी बन गयी‚ जिसके बोल हैंः– कनक कनक ते बहु गुनी‚ मादकता अधिकाय। वो खाये बौराय‚ या खावै बौराय।

कनक का प्रयोग इसमें एक नयी नायिका को लेकर है‚ जो है तो आईएएस अफसर‚ लेकिन चूंकि उनका पूरा खानदान आईएएस‚ पीसीएस और ज्यूडिसिरी तक में जमा बैठा है। जड़े जमाये हुए। इसलिए इन कनक यानी कनकलता त्रिपाठी नामक इस नायिका पर मादकाये कनक का ज्वर कुछ ज्यादा ही चढ गया। बोलीं कि हमारा भइया हेन है‚ हमारा आदमी तेन है‚ हमारा एक भाई सेन है और हमारा एक भाई ठेन है। वगैरह-वगैरह। लेकिन कुछ नहीं चला। बड़कवा को तो सेंटर में जाने की अरजेंसी थी, मगर यूपी सरकार ने लत्‍ती मार रखी थी। फिर लाखों की फीस-भागदौड करने के बाद अब किसी तरह दिल्‍ली जाने की इजाजत मिली, तो अब दिक्‍कत है कि बड़कऊ दिल्‍ली के लिए अपना होल्‍डाल सम्‍भालें या फिर अपना बहन का सहारा दे पायें। मजेदार यह है कि यह बहना जी हमेशा इलाहाबाद में ही जमी रही हैं। सरकार चाहे कोई भी रही हो, उनका बालबांका तक नहीं हुआ। कभी दिक्‍कत आयी तो बडका भइया ने राखी की लाज बचायी। आखिरकार वह अपर कैबिनेट सचिव जैसे अहम पद पर था। बताते हैं कि इसी भइया ने ही पूरे खानदान की सेटिंग-गेटिंग खूब की ताकि सब को मनमाफिक कुर्सियां हमेशा मुहैया होती रहे। बड़कऊ के खेमे का तर्क है कि ईमानदारी अपनी जगह है, और परिवार को सम्‍भाले रखना और बात।

अब मण्डलायुक्त को रिश्तेदारी की छानबीन तो लेनी नहीं थी‚ वह तो काम पर जोर देता था‚ सो उसने कहा कि मैडम यह अपनी खानदानी रूदलावली जब खत्म हो जाए तो जरा काम भी कर लेना। बस बमक गयी। बताते हैं कि जितने भी करम हो सकते थे आयुक्त महोदय के‚ उतार दिये इस कनक ने। उसके बाद केस बनाने के लिए जितने भी पात्र नौटंकी में हो सकते हैं‚ सब बुन डाले। लेकिन यह कोई अनोखा किस्सा नहीं है ब्राहमणों का। आईपीएस सुब्रत त्रिपाठी तो ऐसे पाण्डित्य–श्रेष्ठ रह चुके हैं कि बाकी सब शर्मिदा हो जाएं। वे पुलिस विभाग के एक मुखिया रह चुके हैं। लेकिन उनका नाम पूरे महकमे में तीन–टंगा के तौर पर मशहूर है। आज भी उनका नाम सुन कर आम पुलिसवाला सहम जाता है। बताता है कि जो भी उनके शिकंजे में फंसा‚ उसे उन्हें इन्द्र जैसी सेवाएं हासिल कर लीं।

इलाहाबाद के मण्डलायुक्त राजन शुक्ल तो खैर पूरे महकमे में अपनी ईमानदार छवि को लेकर मशहूर हैं। मगर वाराणसी के मण्डलायुक्त सीएन दुबे ऐसे नहीं थे। पूरी नौकरी उन्होंने वाराणसी में की। नगर निगम से लेकर वीडीए और फिर कमिश्नरी जैसे सारे ओहदे शायद अल्लाह ने केवल उन्हें ही अता किया था। कमिश्नर बन गये‚ लेकिन अक्सर नगर निगम पहुंच जाते थे। वहां उनकी एक कर्म-माशूका से नैसर्गिक रिश्ता था। एक नगर आयुक्त ने ऐतराज किया तो‚ नगर निगम का यह पूरा सेक्शन में हफ्ते में पांच दिन कमिश्नरी में आने लगा। वह भी नहीं हुआ तो वाराणसी क्लब में ही डेरा डाल लिया गया। अरे आला हाकिम है‚ उसे किसकी क्या दिक्कत।

दूर क्‍यों जाते हैं। भोलानाथ तिवारी को देखिये ना। मुख्‍य सचिव रहे। लेकिन उन पर विवाद ऐसे लिथड़े रहे, मानो किसी ग्रामीण महिला की धोती पर छींटदार छापे। पीएन तिवारी तो धन की खान माने जाते थे। जहां भी गये, माल उगाह लिया। हथेली पर पौधा और रेत से तेल चुचुहायने के महा-पंडित थे पीएन मिश्र। एक है नवीन चंद्र बाजपेई। बाजपेई जी जब मुख्‍य सचिव थे, तो पार्टी मुख्‍यालय में आयोजित पार्टी की बैठक में विराजमान थे। जैसे दारू-ठर्रा वाला सचिन महामंडलेश्‍वर की जयजयकार वाले सम्‍मेलन में शिवपाल के साथ जस्टिस रवींद सिंह मंच पर पाल्‍थी मारे बैठे थे कि अब अगला लोकायुक्‍त पद की राह केवल इसी मंच से निकलेगी। मगर राम नाइक ने लंगड़ी मार दी, उधर चंद्रचूड़ ने कागजों पर उनके खिलाफ खूब लीपा-पोती कर दी। अब तक तो ताजा खबर यही है कि फिलहाल रवींद्र सिंह यादव चारों चित्‍त।

लेकिन हम तो बाभनों पर बात कर रहे हैं ना। तो अब उनका भी हवाल सुन लीजिए। प्रदेश के प्रमुख गृह सचिव हैं देवाशीष पाण्‍डा। बेहद ईमानदार छवि के। लेकिन एक दिन मामला खुल गया। 17 जुलाई-14 को मोहनलालगंज में नंगी मिली एक युवती की लाश के राज पर प्रशासनिक चादर डालने के लिए उन्‍होंने पुलिस की तब अपर पुलिस महानिदेशक सुतापा सान्‍याल को अस्‍त्र के तौर पर इस्‍तेमाल किया। यह जानते हुए भी कि प्रमुख सचिव का आदेश पूरी तरह अवैध और अनैतिक है, सुतापा सान्‍याल उस साजिश में फंसा दी गयी। वह तो गनीमत रही कि सुतापा ने बाद में ,खुद को इस मामले से अलग कर दिया, लेकिन छींटें तो पड़ ही गये। हैरत की बात है कि मेरे आरटीआई के बाद सुतापा सान्‍याल ने हकीकत उगल दी है, लेकिन देवाशीष पाण्‍डा ने अभी तक ने मेरे आरटीआई का जवाब दिया और न हीं उसकी प्रथम अपील पर कोई कार्रवाई। जाहिर है कि मामला पाण्‍डा के गले में फंस चुका है। देखो, कितने दिन फंसाये रखते हैं पाण्‍डा इस मामले के कांटे को अपने गले में। मायावती सरकार में खासमखास फर्माबरदार हुआ करते थे प्रदीप शुक्‍ला। अरबों का घोटाला हो गया तो बाबू सिंह कुशवाहा के साथ प्रदीप शुक्‍ला भी नत्‍थी हो गये। साथ ही ले गये सीएमओ एके शुक्‍ला को और एक आईएएस बाजपेई को भी। शुक्‍ला-द्वय अब बाहर हैं। बाकी अब अपने दिन गिन रहे हैं।

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लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार कुमार सौवीर की रिपोर्ट.

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