पेरिस हमले के बाद यह विचार करना जरुरी हो गया है कि जिस आतंकवाद के खिलाफ दुनिया के सारे देश एकजुट हो रहे हैं, उसका असली स्वरुप क्या है और उसके फैलने के कारण कौन-कौन से हैं? यह जानना भी बेहतर रहेगा कि क्या ये सब पश्चिमी राष्ट्र इस आतंकवाद को समाप्त कर सकेंगे? 21 वीं सदी के शेष समय का विश्व क्या आतंकवाद रहित रह सकेगा? जिस आतंकवाद से सारी दुनिया पीड़ित है, उसे इस्लामी आतंकवाद कहा जाता है। क्या सचमुच यह आतंकवाद इस्लामी है? इसमें शक नहीं कि इस आतंकवाद की जन्मभूमि और कर्मभूमि इस्लामी देश ही हैं।
इस आतंक का तांडव कुछ गैर-इस्लामी देश में भी देखा जा सकता है। कभी भारत, कभी अमेरिका, कभी ब्रिटेन और कभी फ्रांस-जैसे देश भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। लेकिन मूलतः यह उन्हीं देशों में बड़े पैमाने पर फलता-फूलता है, जहां मुसलमान लोग रहते हैं। इसके अलावा हर आतंकवादी हमला करते समय ‘अल्लाहो-अकबर’ का नारा लगाता है। वह अपने आतंक का समर्थन कुरान-शरीफ की आयतों से करता है। उसके संगठनों का खाद-पानी मस्जिदों और मदरसों से आता है। अब सीरिया और एराक में तो इस्लामी राज्य (दाएश) की स्थापना का नारा खुले-आम दिया गया है। इसी नारे को कभी अफगानिस्तान में ‘निज़ामे-मुस्तफा’ कहा जाता था। अब ‘दाएश’ ने बाक़ायदा अपने इस्लामी राज्य का एक खलीफा घोषित कर दिया है। उसका नाम है- अबू बकर अल बगदादी।
सीरिया के एक शहर को उन्होंने अपनी इस्लामी सल्तनत की राजधानी बना लिया है। सीरिया और एराक़ के कई हिस्सों पर ‘दाएश’ ने कब्जा कर लिया है। अरब और अफ्रीका के अनेक देशों में ‘इस्लाम के ये सिपाही’ अपनी जान हथेली पर रखकर लड़ रहे हैं। इनकी मदद के लिए फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, पाकिस्तान, मिस्र आदि देशों के सैकड़ों नौजवान अरब देशों में पहुंच गए हैं। ये सब नौजवान मुसलमान हैं और ये इस्लाम के नाम पर अपनी जान दांव पर लगाए हुए हैं।
तो फिर ‘दाएश’, ‘अल-क़ायदा’, ‘दावा’ और तालिबान जैसे संगठनों को हम पूर्णतः इस्लामी क्यों नहीं मानते? ये इस्लाम के लिए नहीं लड़ रहे हैं तो फिर किसके लिए लड़ रहे हैं? असलियत यह है कि ये सब संगठन और आंदोलन नाम तो इस्लाम का लेते हैं लेकिन ये पैदा हुए हैं अपने आंतरिक, पारस्परिक और अन्तरराष्ट्रीय झगड़ों के कारण! सीरिया में बशर-अल-अस्साद परिवार को हटाना है। उस पर तानाशाही, लूट, भ्रष्टाचार और अत्याचार के आरोप है। शियापरस्त होने के इल्जाम हैं। वह रुस की तरफदारी और अलमबरदारी करता है। इसीलिए वहाबी सउदी अरब उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। सउदी अरब के स्वार्थ अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के साथ नत्थी हैं। इसीलिए इन सारे मुल्कों ने मिलकर ‘दाएश’ के छापामारों के लिए करोड़ों डालर और हथियार दिए ताकि वे अस्साद का तख्ता-पलट कर सकें। अस्साद भी कम खुदा नहीं है। उसने तीन लाख लोग मौत के घाट उतार दिए और लाखों लोग सीरिया से भागकर दूसरे देशों में शरण ले रहे हैं।
अस्साद की तरफ से सीरिया के बागियों पर रुस बम बरसा रहा था। दूसरे शब्दों में लड़ाई अमेरिका और रुस लड़ रहे हैं, जमीन सीरिया की है और नाम इस्लाम का है। मैं पूछता हूं कि अमेरिका और रुस को इस्लाम से क्या लेना-देना है? उनका लक्ष्य तो तेल पर कब्जा करना है। इसी तरह जो नौजवान अपनी जान कुर्बान कर रहे हैं, उन्हें इस्लाम के नाम पर गुमराह किया जा रहा है। ‘दाएश’ और ‘अल-क़ायदा’ के जिन बड़े सरगनाओं को अभी तक पकड़ा गया है, उनके निजी आचरण के कई पहलू ऐसे पाए गए हैं, जो इस्लाम के सर्वथा विरुद्ध हैं। कुरान-शरीफ में तो लिखा है कि किसी एक बेकसूर आदमी की हत्या का मतलब है- पूरी इंसानियत की हत्या!
क्या आपने कभी सोचा कि आतंकियों के हाथों से मरनेवाले हजारों लोगों में से कितने कसूरवार होते हैं और कितने बेकसूर? जिन्हें आतंकी कसूरवार मानते हैं, वे उनकी छाया तक भी नहीं पहुंच सकते? क्या कोई आतंकी आज तक सद्दाम हुसैन या मुअम्मद कज्जाफी या हामिद करजई या बशर-अल-अस्साद तक पहुंच सका? जो बेचारे मारे जाते हैं, वे बेकसूर ही होते हैं और ज्यादातर मुसलमान ही होते हैं? पेरिस में भी 8-10 मुसलमान मारे गए और अफगानिस्तान व पाकिस्तान में कौनसे हिंदू, यहूदी या ईसाई मारे जाते हैं? क्या कोई सच्ची इस्लामी ज़मात कभी मुसलमानों का थोक कत्ले-आम कर सकती है?
जहां तक भारत का सवाल है, यहां भी जो आतंकी कार्रवाइयां होती हैं, वे पाकिस्तानी विदेश नीति के लक्ष्यों को सिद्ध करने के लिए होती हैं, इस्लाम के लक्ष्यों को नहीं। यदि आतंकवाद इस्लामी होता है तो मैं पूछता हूं कि पाकिस्तान के अंदर जो आतंकवाद चल रहा है, वह इस्लामी क्यों नहीं है? पाकिस्तान की फौजें उन आतंकवादियों का समूल-नाश करने पर क्यों उतारु हैं? ये आतंकवादी अच्छे हैं और वे आतंकवादी बुरे हैं, यह भेदभाव चल ही नहीं सकता? यदि वे इस्लामी हैं तो वे सभी अच्छे होने चाहिए। नहीं क्या? लेकिन आप कहते हैं कि उनमें से कुछ अच्छे हैं, कुछ बुरे हैं। अर्थात उनका इस्लाम से कुछ लेना-देना नहीं है।
यही बात इन गोरे मुल्कों पर भी लागू होती है। अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों ने किस-किस देश में छापामारों, आतंकियों और बागियों की पीठ नहीं ठोकी है? रेगन, बुश, क्लिंटन के जमाने में अमेरिका आतंकवाद का सबसे बड़ा गढ़ रहा है। सद्दाम हुसैन, कज्जाफी, नजीबुल्लाह की हत्याएं किसने करवाई? उसामा बिन लादेन को किसने खड़ा किया? मुजाहिदीन, तालिबान, दाएश और अल-क़ायदा को किसने पाला-पोसा? ये सारे हिंसक संगठन पश्चिमी देशों ने खड़े किए थे। अब मियां की जूती मियां के ही सिर बज रही हैं। ये महाशक्तियां भस्मासुर बन गई हैं। जब भारत पर आतंकी हमला होता है तो ये महाशक्तियां जबानी जमा-खर्च करके चुप हो जाती हैं लेकिन पेरिस के हमले ने उन्हें पहली बार एक किया है। वे अपनी आपसी तिकड़मे भूलकर अब उसी तरह एकजुट हो रही हैं जैसी कि 75 साल पहले वे हिटलर के खिलाफ एकजुट हुई थीं।
पेरिस के सवा सौ लोगों की जान भारत के 80 हजार लोगों की जान से कहीं ज्यादा कीमती है। जो भी हो, यह रंगभेदी प्रतिक्रिया दाएश को तो कुचल सकती है लेकिन यह आतंकवाद का स्थायी इलाज नहीं है। जब तक महाशक्तियां अन्य राष्ट्रों के आंतरिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप बंद नहीं करेंगी, किसी न किसी शक्ल में आतंकवाद उभरता रहेगा। महाशक्तियों को पश्चिम एशिया में शिया और सुन्नी की लड़ाई भी नहीं उकसानी चाहिए। जैसे ब्लादिमीर पूतिन और बराक ओबामा तुर्की में गले मिल लिये, वैसे ही ईरान और सउदी अरब भी परस्पर सदभाव क्यों नहीं पैदा कर सकते? इस मामले में फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वे चाहें तो महाशक्ति-राजनीति और इस्लामी राजनीति के टूटे तारों को जोड़ने में सफल हो सकते हैं।
लेखक डा. वेद प्रताप वैदिक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.