रुद्रपुर, उत्तराखण्ड: ‘वीरेनदा की सहजता में ही गहराई थी, आमजन से जुड़ाव उनकी रचनात्मकता की बुनियाद थी। आशावाद उनके भीतर इतना रचा-बसा था कि लंबे समय से कैंसर से जूझते रहने के बावजूद उनकी जीवंतता और रचनाशीलता बनी रही।
कन्या पूर्व माध्यमिक विद्यालय में कला, साहित्य, संस्कृति की संस्था ‘उजास’ द्वारा आयोजित वरिष्ठ साहित्यकार व जनकवि वीरेन डंगवाल की श्रद्धांजलि सभा में वक्ताओं द्वारा उक्त उद्गार व्यक्त किए गये। ‘अलविदा वीरेन दा’ कार्यक्रम में वक्ताओं ने कहा कि सजग सर्जक हमें समय की हकीकतों से परिचित कराते हैं जिससे हमारा मार्गदर्शन ही नहीं होता बल्कि हमें उनसे आत्मिक बल भी मिलता है। वीरेनदा अपनी रचनाओं के माध्यम के अतिरिक्त व्यक्तिगत रूप से भी जनसरोकारों से लगातार जुड़े रहे। हमें उनसे प्रेरणा लेते हुए न केवल खत्म होती इन्सानियत को बचाना है बल्कि हमारे संवैधानिक अधिकारों में कटौती कर रही शक्तियों के खिलाफ एकजुट हो संघर्ष भी करना है।
श्रद्धांजलि सभा की शुरुआत में कमला बिष्ट ने वीरेनदा की कविता ‘आएंगे, उजले दिन जरूर आएंगे’ का पाठ किया। वरिष्ठ कवि-कथाकार शम्भू दत्त पाण्डेय शैलेय ने वीरेनदा के साथ लंबे संबंधों के विविध पहलुओं की चर्चा की। उन्होंने वीरेन दा की वापसी, रॉकलैण्ड, मसला, क्या करूं व फ्यूली आदि कविताओं के पाठ के साथ उनके सकर्मक रचनात्मकता की चर्चा की। साथ ही कहा कि वीरेन दा जिस आम आदमी के लिए लिखते थे, उसके लिए खड़े भी होते थे। यही उनकी पक्षधरता थी। पंत विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भूपेश कुमार सिंह ने वीरेनदा को याद करते हुए उनकी इंजन कविता के माध्यम से बताया कि वे कैसे टेढ़े-मेढ़े शब्दों से सुन्दर, सहज व सरल कविता की रचना करते थे।
कवि प्रियंवद ने वीरेन दा की कविताओं में भूख के सौंदर्यबोध की चर्चा की। ऐसे भले नहीं बनना साथी जैसे होते हैं सर्कस के हाथी के बहाने बताया कि हमे दूसरों के इशारों पर नाचने के बजाय अपने विवेक का इस्तेमाल कर सही और गलत का चुनाव करना चाहिए। युवा आलोचक सुबोध शुक्ला ने कहा कि एक सार्थक कवि होना ज्यादा मनुष्य का होना है। युवा पत्रकार रूपेश कुमार सिंह ने वीरेनदा के साथ व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए उनकी पत्रकारीय प्रतिबद्धता रेखांकित की। इंकलाबी मज़दूर केन्द्र के सुरेन्द्र ने उनकी जनपक्षधरता को रेखांकित किया। इसके अतिरिक्त वरिष्ठ पत्रकार बीसी सिंघल, कवि पद्दोलोचन विश्वास, खेमकरण सोमन, आदि ने कवि वीरेन और कविता के विविध आयामों पर चर्चा की। सभा का संचालन मजदूर सहयोग केन्द्र के मुकुल ने किया।
सभा में अविनाश गुप्ता, प्रभुनाथ वर्मा, अमर सिंह, वरिष्ठ लेखक-पत्रकार अयोध्या प्रसाद ‘भारती’, जर्फताज खां, अश्विनी पाटिल, ललित मोहन जोशी, अन्जार अहमद, पूर्व छात्रा उपाध्यक्षा कविता वर्मा, महेंद्र मौर्य, नवीन चिलाना, रश्मि सिंह, मनोज आदि अनेक लोग मौजूद थे।
मालूम हो कि पांच अगस्त 1947 को कीर्तिनगर, टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) में जन्मे वीरेन डंगवाल ने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। इलाहाबाद विवि से ही हिंदी में एमए और डी. फिल करने वाले वीरेन डंगवाल 1971 में बरेली कॉलेज बरेली से जुड़े और हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। जॉर्ज फर्नांडीज की पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ से लेखन शुरू करने के बाद 1978 में इलाहाबाद से निकलने वाले अखबार ‘अमृत प्रभात’ में ‘घूमता आइना’ शीर्षक से स्तंभ लेखन शुरू किया। यह स्तंभ काफी मशहूर हुआ। वह इस बीच पीटीआई, टाइम्स ऑफ इंडिया और पायनियर में भी लिखते रहे। कविता संग्रह ‘दुष्चक्र में सृष्टा’ के लिए उन्हें 2004 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया गया। वीरेन डंगवाल का पहला कविता संग्रह 43 साल की उम्र में ‘इसी दुनिया में’ आया जिसकी कविता ‘राम सिंह, हवा, समोसा, इतने भला न बन जाना’ काफी चर्चित रही। इस संकलन को 1992 में रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार और 1993 में श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार से नवाजा गया। दूसरा संकलन ‘दुष्चक्र में सृष्टा’ सन् 2002 में आया। इस संकलन की कविता ‘हमारा समाज’, ‘आएंगे उजले दिन जरूर आएंगे’ और ‘दुष्चक्र में सृष्टा’ खास मानी गईं। इसी साल उन्हें ‘शमशेर सम्मान’ भी दिया गया। तीसरा संग्रह ‘स्याही ताल’ आया जिसमें ‘कानपुर’, ‘कटरी की रुक्मनी’, ‘ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं’ आदि चर्चित कविताएं शामिल हैं और तमाम आंदोलनों में अब भी गाई जाती हैं। उनकी कविताएं मराठी, पंजाबी, अंग्रेजी, मलयालम और उड़िया में भी छपीं। वे लंबे समय तक प्रमुख हिंदी दैनिक अमर उजाला के संपादक रहे।