-राजशेखर व्यास–
स्कंद पुराण में सिंहस्थ के संबंध में एक कथा दी गई है। अमृत मंथन के पश्चात् अमृत के कलश से कुछ बूंदें प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जयिनी में छलकीं तभी से यहां पर कुंभ और सिंहस्थ पर्व की नींव पड़ी। सिंहस्थ पर्व का उज्जयिनी से घनिष्ठ संबंध है। भारत की प्राचीन महानगरियों में उज्जयिनी को अत्यन्त पवित्र नगरी माना गया है- प्रयाग, नासिक, हरिद्वार, उज्जयिनी इन स्थानों की पवित्रता और श्रेष्ठता यहॉं होने वाले कुंभ अथवा सिंहस्थ महापर्व के कारण भी मानी जाती है। कुंभ या सिंहस्थ पर्व इन्हीं स्थानों पर क्यों मनाया जाता है? इस संबंध में स्कंदपुराण में एक अत्यन्त रोचक कथा उल्लिखित है।
देवताओं और दानवों ने समुद्र मंथन किया, उसमें अनेक रत्न प्राप्त हुए, उनमें एक अमृत कुंभ कलश भी मंथन से प्राप्त हुआ। उस कुंभ कलश के लिए देवता और दानवों में संघर्ष होने लगा। इंद्र का पुत्र जयंत उस कलश को लेकर भागा, अमृत हेतु सभी उसके पीछे लग गये, कुंभ कलश भी एक हाथ से दूसरे हाथ पहुंचने लगा देवताओं में भी सूर्य, चन्द्र और गुरू का अमृत कलश संरक्षण में विशेष सहयोग रहा था, चन्द्र ने कलश को गिरने से, सूर्य ने फूटने से तथा बृहस्पति ने असुरों के हाथ में जाने से बचाया था। फिर भी इस संघर्ष में कुंभ में से अमृत की बूंदें छलकीं। ये अमृत बूंदें प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जयिनी नगरी में छलकीं थीं अत: ये ही स्थल कुंभ पर्व के स्थल बन गये, ये ही वे चार तीर्थ हैं जो अमृत बिन्दु के पतन से अमृत्व पा गये। धार्मिक गणों की आस्था है कि कलश से छलकी बूंदों से न सिर्फ यह तीर्थ अपितु यहॉं की पवित्र नदियां भी (गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी एवं क्षिप्रा अमृतमयी हो गयी हैं।
इस कथा में धार्मिक पवित्रता के साथ-साथ खगोलीय एवं वैज्ञानिक महत्व भी समाहित है। गृहों और नक्षत्रों की विशिष्ट गतिविधि के कारण ही सिंहस्थ अथवा कुंभ पर्व 12 वर्षों में एक बार एक नगरी में मनाया जाता है, ये विशिष्ट गृहयोग भी प्रत्येक पवित्र स्थल के लिए पृथक-पृथक हैं, जैसे प्रयाग में होने वाले कुंभ पर्व पर मकर राशि में सूर्य, वृष राशि में गुरू तथा माघ मास होना आवश्यक है। उज्जयिनी के कुंभ पर्व को अन्य पर्वों से अधिक महत्व प्राप्त है क्योंकि इसमें सिंहस्थ भी समाहित है। सिंहस्थ महात्म्य में उज्जयिनी में सिंहस्थ पर्व होने के लिए दस योगों का होना अत्यावश्यक माना गया है। वे योग हैं वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा, मेष राशि पर सूर्य, सिंह राशि पर बृहस्पति, तुला राशिपर चन्द्र, स्वाति नक्षत्र व्यतोपात योग, सोमवार एवं उज्जयिनी की भूमि।
सिंह राशि पर गुरू नहीं होने की स्थिति में यहां यह पर्व नहीं मनाया जा सकता अन्य नवयोग होने पर भी यह पर्व नहीं होता। यहां सिंह राशि में गुरू की स्थिति को परम तेजस्वी माना गया है तभी यहां के पर्व का नाम कुंभ पर्व न होकर सिंहस्थ है। संवत् 2012 में अन्य नवयोगों के होने पर भी सिंह के गुरू के न होने से यहां सिंहस्थ नहीं मनाया गया था। सिंहस्थ पर्व के अवसर पर क्षिप्रा स्नान का विशेष महत्व है। कहते हैं क्षिप्रा में इस काल में स्नान करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। ब्रह्महत्या, माता-पिता वध तक का पाप तथा अन्य सभी पाप कर्मों से मुक्ति का साधन सिंहस्थ के समय क्षिप्रा स्नान माना गया है। यह पर्व प्रति 12 वर्षों में आता है। सौभाग्य से इस वर्ष 22 अप्रैल से 22 मई तक ये विशिष्ट योग इस भूमि पर सिंहस्थ पर्व मनाने जा रहे हैं। देश-विदेश से करोड़ों यात्री यहां आते हैं। देश-विदेश के व्यापारी यहॉं आते हैं। सभी धर्मों के मानने वाले साधु-संत भी यहॉं इकट्ठे हो रहे हैं, इनमें दशनामी साधु, उदासीन अखाड़ा, निर्मल संत, दादूमत,कबीरपंथी, शैवपंथी, शैववादी, अद्वैतवादी, वैष्णववादी हैं। वैष्णवों की भी अनेक शाखाएं हैं। वैष्णव स्वामी, रामानुजाचार्य,यामानुजाचार्य, माधवाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बकाचार्य, चैतन्य स्वामी। इस समय सभी सम्प्रदायों के विदग्ध और प्रामाणिक विद्वान के धार्मिक प्रवचन और भण्डारे-भोज या सामूहिक आयोजन होते हैं। ये साधु धूनी रमाते हैं, कीर्तन करते हैं और तपस्या में लीन रहते हैं। सादेस्नान और शाही स्नान के लिए जाते हुए इन साधुओं का जुलूस बहुत भव्य और आकर्षक होता है। उज्जयिनी में इन साधुओं के अखाड़े स्थायी रूप से बने हैं।
हालांकि सिंहस्थ की परंपरा अत्यन्त प्राचीन है किन्तु इस समय पर राजकीय व्यवस्था होती रही है। ऐसा कोई निश्चित प्रमाण नहीं है। राजकीय व्यवस्था की परिपाटी सिन्धिया वंश द्वारा ही आरंभ की गई। सिंहस्थ पर्व मात्र पर्व न होकर भारतीय ज्योतिष, खगोल, धर्म दर्शन और राष्ट्रीय एकता का प्रतिनिधि पर्व है। शासकीय प्रमाणों से सन् 1909 से सिंहस्थ योजना का प्रामाणिक स्वरूप दिखाई पड़ता है। इस बीच के सिंहस्थों को लेकर अलग-अलग सरकार, विभिन्न शासकीय इकाइयों और प्रशासनिक स्तर पर अपने-अपने मसौदे तैयार किये कुछ ने उन पर क्रियान्वयन का भी प्रयास किया किन्तु ‘मुण्डे मर्तिभिन्ना:’ अनुसार उनमें स्थायी बोध एवं विकल्पों के स्थायी दोहन पर बल नहीं दिए जाने से सभी व्यवस्थाएं तदर्थ होकर रह जाती हैं। यूं भी ‘मालवा’ को ‘परभोगी मालवा’ कहा जाता है। यहां ‘धर का जोगी जोगड़ा और आन गांव का सिद्ध’ रहा है।
महारानी विजयाराजे सिंधिया और श्रीमंत माधवराव सिंधिया और श्रीमंत माधवराव सिंधिया को इस नगरी से विशेष ममत्व रहा है और इसके विकास में वे श्रीमंत महाराज जीवाजीराव सिंधिया की तरह सदैव ही सक्रिय रहते थे चाहे उनके दल-पक्ष अलग अलग हों, उज्जयिनी में उज्जयिनी के लिए सभी दल एक दिल हैं। होना यह चाहिए कि सिंहस्थ का यह महत्वपूर्ण पर्व उज्जयिनी नगरी का जन्म दिन हो जाए और इसी बहाने प्रति 12 वर्षों में एक बार इस नगरी का कायाकल्प हो जावे, आवश्यकता इस बात की है कि इस हेतु सभी वर्गों के लोगों को अपने मतभेद भुलाकर एक मत होना होगा। जब इसी सिंहस्थ में ‘एड्स’ जैसे भयावह रोग की संभावना की ओर प्रशासन का ध्यान नहीं गया है। यहॉं गणिकाओं का एक लाइसेंस शुदा नगर जो प्रशासन ने बसा रखा है।
वर्तमान स्थिति में क्षिप्रा अपने प्रवाह और गहराई को खो चुकी है, कालियादेह पैलेस का वह रोचक, रम्य स्थल जो कभी कल-कल करती क्षिप्रा से प्रवाहमान बना रहता था आज उजाड़ हो चला है। विगत सिंहस्थ में भी क्षिप्रा के जल की जगह आसपास के जल-स्त्रोतों द्वारा सिंहस्थ स्नान दिवस पर नदी में प्रवाह बनाया था जबकि क्षिप्रा के मूल उद्गम का प्रवाह ही पर्याप्त है। ‘गार’ और ‘कंजी’ तथा जलकुंभी के कारण नदी न सिर्फ सूखती जा रही है अपितु जल भी आचमन योग्य नहीं रह पाता। विगत अनेक वर्षों से विशाला की यह विशाल क्षिप्रा औद्योगिक प्रदूषण का भी शिकार होती जा रही है। शासन के अपने प्रयास हैं किंतु क्या नागिरकों का कोई दायित्व नहीं है? क्षिप्रा आखिर नदी ही तो नहीं है। वह तो जीवन है उज्जयिनी का, धड़कन है उज्जयिनी की, स्पन्दन है शहर का। अगर कहीं क्षिप्रा भी सरस्वती नदी सी लुप्त हो गयी तो बचेगा क्या?
अधिकारी या बाहर से आए राजनेता, विद्वान तो इस नगरी को सराय या धर्मशाला समझते हैं किन्तु क्या क्षिप्रा को बचाना, उसके प्रवाह को निरंतर प्रवाहमान रखना, सचेत और जागृत बनाये रखना सभी का सम्मिलित दायित्व नहीं हैं? वेद, महाभारत, पुराण, साहित्य, संगीत, योग, ज्योतिष, नाटक और काव्य में उज्जयिनी की जो मुक्त कंठ से, उदारता पूर्वक सविस्तार गुणगाथा गायी है, वह केवल भावुकतावश नहीं उसके रहस्य और विज्ञान को समझकर ही हम महाकाल और उज्जयिनी क्षिप्रा को भी गहरे से समझ सकते हैं। उज्जयिनी का अवदान राष्ट्र का गौरव है। कभी औरंगजेब ने महाकाल के मंदिर में घी के दिए भी जलाये थे, जहॉं जहांगीर और अकबर भी आए, यह नगरी नहीं इतिहास है। भारत के विस्मृत गौरव का आज भी जीता जागता स्मारक। सिंहस्थ महापर्व पर लाखों नर-नारी श्रृद्धालु तीर्थ यात्री समस्त जाति सम्प्रदाय और मजहब का बांध तोड़कर यहां क्षिप्रा तट पर भारत के अन्दर मानो एक छोटा भारत को बसा देते हैं। तब मन सहज ही कह उठता है यह महान राष्ट्र इसी असंख्य प्रेरणाओं से एकता और अखण्डता के भावसूत्र में बंधा है।
राजशेखर व्यास
अपर महानिदेशक
आकाशवाणी महानिदेशालय
मो.- 8130470059
ई.मेल- [email protected]