ऑपरेशन टाइम्स, इंडिया अनलिमिटेड, समय टुडे, इंडिया ऑन फ्रंट, डीएनए, आर्यावर्त, जनयुग, जनज्वार, भड़ास4मीडिया इनमें से कुछ का शायद पत्रकारिता से ताल्लुक न रखने वाले लोगों ने नाम न सुना हो। हां दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश, अमर उजाला, कॉम्पैक्ट, आई नेक्स्ट आदि का नाम शायद जानते होंगे। लेकिन आपको बताता चलूँ कि इनमें से कुछ वेब पोर्टल हैं, कुछ मैगजीन्स और कुछ समाचार पत्र। ये सभी भले ही चर्चित न हों पर इनमें से कुछ चर्चित भी हैं। ये लोगों से खबर का जुड़ाव देखकर हक़ीक़त को स्वतंत्रता से प्रकाशित होने का मौका देती हैं। ये किसी लालच में खिलाफत और वक़ालत नहीं करती बल्कि समाज को वो दिखाने की ताक में रहती हैं, जो हम सबकी जिंदगियों से जुड़ा है। इन सब के इतर पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों, जो कि सही दिशा में लेखन का प्रयास करते हैं, उनके लेखों को प्रकाशित कर ये छात्रों का उत्साहवर्धन करते हैं। जिसके बाद कलम खुद-ब-खुद ही शब्द तैयार करती है और दिमाग कुछ नया तलाशने में जुट जाता है।
बहरहाल कुछ खुद को तैयार या तैयारी शौक ए दीदार की उलझी हुई पंक्तियों के आधार पर भी करते हैं। मतलब ये कि रवीश कुमार एनडीटीवी इंडिया के लिए से प्रभावित होकर आगे बढ़ने की सोचते हैं। हालाँकि पत्रकार बनाने का ठेका तो कॉलेज ले चुके होते हैं न इसीलिए। बाकी तो अपने मन का पत्रकार तय करो, जो बनना है। रिपोर्टिंग करनी है तो कमाल खान, पुण्य प्रसून जी, रवीश कुमार, अरविन्द ओझा, रतीश शिवम त्रिवेदी, पिंकी राजपुरोहित, अंजना ओम कश्यप, श्वेता झा आदि तमाम लोगों में से चुनने की कोशिश होती है। बाकी अन्य पद भी ग्लैमर के अनुसार भरने की कोशिश होती है। दरअसल सब देखा देखी के वायरस से बुरी तरह संक्रमित होते हैं। या कहें एक दो नाम रट के फैन बन जाते हैं। विकिपीडिया या अन्य जुगाड़ से उनके सन्दर्भ में जानकारी हासिल की जाती है। न जाने क्यों स्टूडेंट्स दूसरे को देख अपने भीतर छिपे हुनर का क़त्ल कर देते हैं। बाकी कॉलेज तो स्टूडेंट्स को संचार और समानुभूति के बीच कुछ ऐसा उलझाते हैं कि वो ज़ी बिज़नेस के अमीश देवगन के साथ भी एक नई काबिलियत ताकने लगता है।
लॉसवेल और गर्बनर भला कहां से याद रहें
फिलवक्त मैं बस इतना कहना चाहूँगा कि मैं कोई बेहद अनुभवी या बड़ा पत्रकार नहीं। हाँ पत्रकारिता में शून्य होने का प्रयास जरूर कर रहा हूँ। जिसके लिए कई बड़े नाम साथ भी देते रहे हैं। हाँ एक बात और कि पत्रकारिता को पैदा नहीं किया जा सकता, वह स्वयं से स्वयं में पनपती है। आज कल कई कॉलेज मास कम्युनिकेशन के ठेले लगाकर विज्ञापनों में चैनलों समेत समाचार पत्रों का हवाला देते हैं। जिसके बाद स्टूडेंट्स बड़ी शिद्दत से वहां एडमिशन लेकर कुछ दिन तो पंचुअल रहते हैं फिर गर्बनर आदि का नाम आते ही कैंटीन का रुख कर लेते हैं।
प्यार भी जरूरी है भई
कॉलेज लाइफ है तो मस्ती भी जरूरी है और प्यार तो होना ही है। भई ऐसा मूवीज से जो सीखकर आये हैं… तो पढ़ाई के आखिर में बस आप प्रशंसक के प्रशंसक बने रहते हैं। बस हाथ में एक कागज का टुकड़ा होता है, जो आपके मास कम्युनिकेशन कोर्स करने की पुष्टि करता है। कुलमिलाकर कीमत बड़ी पर हम कितने कीमती भगवान ही जाने। या तो अब रवीश बनने का ख्वाब दम तोड़ चुका होता है या फिर तोड़ने वाला होता है। रिज्यूमे की भीड़ में आपका रिज्यूमे धक्के खाता हुआ संस्थानों तक पहुँचता है पर सिफारिश की चिड़िया न बैठने की वजह से सब बेकार। हां जो ऊपर वाले को भजते भजते किसी बड़े संस्थान के सदस्य बन भी गए, वे फजीहत सहते सहते इस पेशे से जल्द ही तौबा कर लेते हैं। अगर नहीं करते तो आठ दस हजार में सिमट जाते हैं। हालाँकि कुछ अपवाद भी होते हैं जो जीवन पत्रकारिता और बेहतर पद प्राप्त कर लेते हैं। पर इन सबके बीच एक लंबी चौड़ी भीड़ जो पत्रकारिता में ख़ास चेहरों का अनुशरण करते हुए चली आ रही है भला उनका क्या फायदा? लब्बोलुबाब यही है कि रवीश हों या फिर सत्ता के गलियारे से वाले पूण्य जी, वो बनने की कोशिश मत कीजिये। खुद को तराशिये, बल्कि दूसरे को देख कर बदलिये बिल्कुल भी नहीं। अपनी पहचान बनाइये। फिर पत्रकारिता में भी आप सफल होंगे।
जमाना काफी बदल गया है लोग आज इन्हें आदर्श मानते हैं पर क्यों इसका सटीक जवाब नहीं है।
“सच जमाना बदल गया है। हालांकि इसी जमाने का मैं भी हूं कुछ ज्यादा पुराना नहीं। प्याज और रोटी साथ में लाठी खाने वाली पत्रकारिता अलविदा न जाने कब कह गई। आज जर्नलिज्म के स्टूडेंट्स को शायद ही वे लोग भी याद हों..क्यों याद हैं…नहीं न…पर रवीश कुमार, रजत शर्मा, दीपक चौरसिया, अंजना ओम कश्यप जुबानों पर चढ़े होंगे, आज भीड़ भी इन्हीं के पीछे उमड़ पड़ी है। कॉपी पेस्ट करने की कोशिशें वो फिर आवाज हो या अंदाज में की जा रही हैं, बस तभी तो मीडिया लोगों को पचा नहीं पा रही। साथ ही कुछ टोपा टाइप के चम्पादक भी अच्छी प्रतिभाओं को पचने नहीं दे रहे। क्योंकि कहीं न कहीं वो जातिवाद या फिर परिवारवाद से ग्रसित हो चुके हैं। ठाकुर पंडित को चबाए जा रहा है, पंडित ओबीसी को, और ओबीसी भी इसी तरह और किसी को…. कुछ भी हो खुद को एक अलग पहचान के रूप में तैयार करिए क्योंकि रवीश कुमार हो सचिन तेंदुलकर या फिर महात्मा गांधी एक ही हो सकता है।”
हिमांशु तिवारी
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