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छत्तीसगढ़ का गौरव पर्व बस्तर दशहरा

विजयादशमी का पर्व जिसे हम दशहरा कहते हैं, भारतीय संस्कृति का एक ऐसा स्वर्णिम पन्ना है जिसे बार बार और हर बार पलटने के बाद हम बुराई पर अच्छाई का सबक सीखते हैं। अपने भीतर की बुराईयों पर विजय पाने का संकल्प लेते हैं। परम्परागत रूप से देशभर में दशहरा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। बस्तर का दशहरा पर्व सही अर्थों में विजय का दशहरा पर्व कहा जा सकता है। बस्तर दशहरा छत्तीसगढ़ का गौरव पर्व तो है ही किन्तु सही अर्थों में बस्तर का दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश दे जाती है। बीते एक अर्से से बस्तर की हरी-भरी भूमि पर जो रक्तपात हुआ और इसके पहले जो रक्तपात होता रहा है, वह दिल दहला देने के लिये कम नहीं है. पूरा देश इस रक्तपात की घटनाओं से जख्मी है और हतप्रभ भी।

<p>विजयादशमी का पर्व जिसे हम दशहरा कहते हैं, भारतीय संस्कृति का एक ऐसा स्वर्णिम पन्ना है जिसे बार बार और हर बार पलटने के बाद हम बुराई पर अच्छाई का सबक सीखते हैं। अपने भीतर की बुराईयों पर विजय पाने का संकल्प लेते हैं। परम्परागत रूप से देशभर में दशहरा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। बस्तर का दशहरा पर्व सही अर्थों में विजय का दशहरा पर्व कहा जा सकता है। बस्तर दशहरा छत्तीसगढ़ का गौरव पर्व तो है ही किन्तु सही अर्थों में बस्तर का दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश दे जाती है। बीते एक अर्से से बस्तर की हरी-भरी भूमि पर जो रक्तपात हुआ और इसके पहले जो रक्तपात होता रहा है, वह दिल दहला देने के लिये कम नहीं है. पूरा देश इस रक्तपात की घटनाओं से जख्मी है और हतप्रभ भी।</p>

विजयादशमी का पर्व जिसे हम दशहरा कहते हैं, भारतीय संस्कृति का एक ऐसा स्वर्णिम पन्ना है जिसे बार बार और हर बार पलटने के बाद हम बुराई पर अच्छाई का सबक सीखते हैं। अपने भीतर की बुराईयों पर विजय पाने का संकल्प लेते हैं। परम्परागत रूप से देशभर में दशहरा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। बस्तर का दशहरा पर्व सही अर्थों में विजय का दशहरा पर्व कहा जा सकता है। बस्तर दशहरा छत्तीसगढ़ का गौरव पर्व तो है ही किन्तु सही अर्थों में बस्तर का दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश दे जाती है। बीते एक अर्से से बस्तर की हरी-भरी भूमि पर जो रक्तपात हुआ और इसके पहले जो रक्तपात होता रहा है, वह दिल दहला देने के लिये कम नहीं है. पूरा देश इस रक्तपात की घटनाओं से जख्मी है और हतप्रभ भी।

ऐसी विषम स्थितियों में भी आदिवासियों द्वारा अपने परम्परागत दशहरा पर्व को उसी उत्साह से मनाये जाने को विजय का दशहरा ही कहा जा सकता है. एक मामूली बम फटने के बाद जब लोग दुबक जाते हैं, बम फटने की आवाज देर तक डराती रहती है तब बस्तर की धरती और उसके जन बार बार के रक्तपात से न सहमते हंै, न सिहरते हैं बल्कि दुगुने उत्साह के साथ स्वयं को खड़ा कर लेते हैं. बस्तर के आदिवासियों का यह उत्साह केवल उत्सव का उत्साह नहीं है बल्कि जीवन का उत्साह है जो समूचे संसार को एक नया पाठ पढ़ाता है। यह एक बड़ा कारण है जो बस्तर दशहरा को और भी खास बनाता है। बस्तर का यह दशहरा सचमुच में विजय का दशहरा है जो सिखाता है कि तम से कैसे लड़ें, कैसे आतंक को आशंका से नहीं आशा से निपट लें. बस्तर का यह दशहरा पर्व समूचे संसार को आतंक के खिलाफ एक संदेश देता है आओ, हम सब मिलकर रोज पैदा हो रहे दशानन का वध करें, तम को दूर कर उजाले का दीपक जलायें.

बस्तर दशहरा दो-एक दिन का उत्सव नहीं होता है और न ही प्रतीकात्मक रूप से रावण का पुतला जलाने की रस्मअदायगी होती  है. बस्तर दशहरा का उत्सव पूरे पचहत्तर दिन का होता है. पूरे विधान के साथ जिसमें आम आदमी से लेकर राज परिवार तक शामिल होता रहा है. बस्तर दशहरे के लिये बनाये जाने वाले रथ के लिये आदिम समाज जुट जाता है. इस विशालकाय बस्तर रथ के निर्माण में जुटे आदिवासीजनों का उत्साह देखने योग्य होता है. बस्तर दशहरे का रथ भोपाल में बने मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय  एवं राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में भी देखने को मिल जायेगा. 75 दिनों के इस उत्सव का उल्लास और भी पहले से शुरू हो जाता है. इस उल्लास में कोई खलल डाले, यह आदिम समाज को मंजूर नहीं है. जो रक्तपात हो रहा है, बस्तर के घने जंगलों में आतंक की जो सरसराहट है और जो इस उत्सव में बाधा पैदा कर सके, वह स्थितियां भी हैं लेकिन आदिम समाज इस सबसे बेफिकर हंै. उनके लिये हर सांझ दुख बिसराने के लिये होता है और हर सुबह वह प्रकृति का स्वागत करता है, मुस्करता है. उसके पास पीछे देखने के लिये कुछ भी नहीं होता है.

इस बार के दशहरे को लेकर जनपदीय समाज में भले ही आशंका रही हो लेकिन आदिम समाज हमेशा से आशा में जीता रहा है. बस्तर दशहरे की गमक और खनक इस बार भी वैसा ही है, जैसा कि परम्परागत रूप से बीते अनेक दशकों से रहा है.  छत्तीसगढ़ का बस्तर दशहरा दुनिया में सबसे लंबे अवधि तक मनाया जाने वाला पर्व है। सहकार और समरसता की भावना के साथ 75 दिवसीय पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या से क्वांर माह तक चलता है। इसमें सभी वर्ग, समुदाय और जाति-जनजातियों का योगदान महत्वपूर्ण होता है। प्रत्येक बस्तरिया का माईजी के प्रति अगाध प्रेम व आस्था पर्व में झलकता है।

पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म के साथ होती है। इसके बाद बिरिंगपाल गांव के ग्रामीण सीरासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरीगड़ाई रस्म पूरी करने के साथ विशाल रथ निर्माण के लिए जंगलों से लकड़ी शहर पहुंचाने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। झारउमरगांव व बेड़ाउमरगांव के डेढ़-दो सौ ग्रामीण रथ निर्माण की जिम्मेदारी निभाते दस दिनों में पारंपरिक औजारों से विशाल रथ तैयार करते हैं। इसमें लगने वाले कील और लोहे की पट्टियां भी पारंपरिक रुप से स्थानीय लोहार सीरासार भवन में तैयार करता है। रथ निर्माण के बाद पितृमोक्ष अमावस्या के दिने काछनगादी पूजा विधान होती है। इसमें मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी आती है जो बेल कांटों से तैयार झूले पर बैठकर रथ परिचालन व पर्व की अनुमति देती है। इसके दूसरे दिन ग्राम आमाबाल के हलबा समुदाय का एक युवक सीरासार में 9 दिनों की निराहार योग साधना में बैठकर लोक कल्याण की कामना करता है।

यह आदिवासियों में योग साधना की सहज ज्ञान और माईजी के प्रति आस्था को प्रकट करता है। इस दौरान प्रतिदिन शाम को माईजी के छत्र को विराजित कर दंतेश्वरी मंदिर, सीरासार चौक, जयस्तंभ चौक व मिताली चौक होते रथ परिक्रमा की जाती है। रथ में माईजी के छत्र को चढ़ाने और उतारने के दौरान बकायदा सशस्त्र सलामी दी जाती है। रथ परिचालन में आधुनिक तकनीक और यंत्रों का उपयोग नहीं होता। पेड़ों की छाल से तैयार रस्सी से ग्रामीण रथ खींचते हैं। इस रस्सी को लाने की जिम्मेदारी पोटानार क्षेत्र के ग्रामीणों पर है। बस्तर दशहरा में संभाग के अलावा धमतरी और महासमुंद-रायपुर जिले के देवी-देवताओं को भी आमंत्रित किया जाता है। यह पर्व में सहकार के साथ एकता का भी प्रतीक है। वहीं पर्व के अंतिम पड़ाव में मुरिया दरबार लगता है। जहां मांझी-मुखिया और ग्रामीणों की समस्याएं सुना और निराकरण किया जाता है। मुरिया दरबार जनजातिय परिवेश में भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था का सबसे अच्छा उदाहरण है। मुरिया दरबार में पहले समस्याओं का समाधान राजपरिवार करता था अब यह जिम्मेदारी प्रशासनिक अधिकारी निभाते हैं। इसके बाद सभी परगना और गांव के देवी-देवताओं के लाट, बैरक, डोली की विदाई कुटुंबजात्रा के साथ ससम्मान की जाती है। दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी माई की डोली व छत्र को दूसरे दिन नजराने व सम्मान के साथ विदा किया जाता है।

बस्तर दशहरा में काछन पूजा अनिवार्य रस्म है। पर्व व रथपरिचालन की अनुमति काछनदेवी देती है। जानकारों के मुताबिक 1725 ईस्वी में काछनगुड़ी क्षेत्र में माहरा समुदाय के लोग रहते थे। तब यहां हिंसक पशुओं का आतंक था और इनसे सुरक्षा के लिए कबीले का मुखिया जगतू माहरा तात्कालिक नरेश दलपत देव से भेंटकर जंगली पशुओं से अभयदान मांगा। शिकार प्रेमी राजा इस इलाके में पहुंचे लोगों को राहत दी वहीं यहां की आबोहवा से प्रभावित होकर बस्तर की बजाए जगतुगुड़ा को राजधानी बनाया। इससे माहरा कबिला जहां राजभक्त हो गया वहीं राजा ने कबिले की ईष्टदेवी काछनदेवी से अश्विन अमावस्या पर आशीर्वाद व अनुमति लेकर दशहरा उत्सव प्रारंभ किया। तब से यह प्रथा चली आ रही है। बस्तर दशहरा निर्विघ्न संपन्न कराने सहित अंचल की सुख-समृद्धि की कामना के साथ 9 दिनों की साधना में ग्राम बड़ेआमाबाल के योग पुरुष रहता है। मान्यताओं के अनुसार बरसों पहले आमाबाल परगना की हलबा जाति का कोई युवक निर्विघ्न दशहरा मनाने और लोगों को शुभकामना देने के लिए राजमहल के समीप योग साधना में बैठ गया था। तब से यह प्रथा चली आ रही है। जिसे राजपरिवार व प्रशासन की ओर से सम्मान स्वरूप भेंट दिया जाता है। वहीं 9 दिनों तक परिवार के सदस्यों के लिए भोजन की व्यवस्था की जाती है।

दशहरा के मौके पर पूरे भारत में जहां रावण वध किया जाता है वहीं बस्तर में यह परंपरा नहीं है। दशहरा के मौके पर पूर्व कलेक्टर प्रवीरकृष्ण ने लालबाग मैदान पर रावण वध कार्यक्रम की शुरुआत करवाई थी, लेकिन यह एक ही बार हुआ। बस्तर के ग्रामीण अंचलों में रावण वध नहीं किया जाता है। अपितु बाहर से शासकीय कर्मचारियों किरंदुल-बचेली व उत्तर बस्तर के कुछ हिस्सों में रावध दहन का आयोजन करते हैं।संभाग में दंतेवाड़ा जिले के किरंदुल में करीब चार दशक से रावण वध का आयोजन किया जा रहा है।

लेखक मनोज कुमार भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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