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भारत, भिखारी और भविष्य

नुमाईश में खड़े उस बचपन पर लगभग हर रोज निगहबानी करता रहता हूं. सेल्फियों के जरिए लोगों द्वारा उनकी मासूमियत के संग चिपकी गरीबी को कैद होते हुए देखता हूं. नन्हे-नन्हे हाथ, जुबान पर कुछ निवालों की ख्वाहिश लिए भारत का विकास माने जाने वाले तमाम बच्चे आज अपने विकास की दरकार में दर-दर कहें या घर-घर भटकते हैं. दरअसल भारत का एक हिस्सा आधुनिकता को जान रहा है, पहचान रहा है और हां उसके साथ खुद को सेट करने की कोशिश भी कर रहा है. लेकिन उनका क्या जो आज भी लोगों में समृद्ध की हल्की सी निशानी देखकर हाथ पसार देते हैं. भारत भले ही उम्र के हिसाब से विकास की ओर बढ़ रहा हो. पर आज भी महज पांच,छह और सात साल के बच्चे भीख मांगते दिखते हैं. इन्हें देखकर जहन में सवाल ये खड़ा होता है कि विकास के सवाल में इन्हें क्यों नहीं शामिल किया जाता है. इन्हें उचित सुविधाएं मुहैया कराते हुए एक मॉडल बनाने की दिशा में प्रयास क्यों नहीं होता. कोई सुपर 30 इनके लिए काम क्यों नहीं करती. अजी इन्हें भी इंजीनियर बनाईये क्योंकि देश का ढ़ांचा इनके बगैर काफी कमजोर समझ आ रहा है. बगैर इन भविष्यों पर चिंतन के न ही डिजिटल ही पूरा होगा और न ही इंडिया ही सकारात्मक तौर पर परिभाषित किया जा सकेगा.

<p>नुमाईश में खड़े उस बचपन पर लगभग हर रोज निगहबानी करता रहता हूं. सेल्फियों के जरिए लोगों द्वारा उनकी मासूमियत के संग चिपकी गरीबी को कैद होते हुए देखता हूं. नन्हे-नन्हे हाथ, जुबान पर कुछ निवालों की ख्वाहिश लिए भारत का विकास माने जाने वाले तमाम बच्चे आज अपने विकास की दरकार में दर-दर कहें या घर-घर भटकते हैं. दरअसल भारत का एक हिस्सा आधुनिकता को जान रहा है, पहचान रहा है और हां उसके साथ खुद को सेट करने की कोशिश भी कर रहा है. लेकिन उनका क्या जो आज भी लोगों में समृद्ध की हल्की सी निशानी देखकर हाथ पसार देते हैं. भारत भले ही उम्र के हिसाब से विकास की ओर बढ़ रहा हो. पर आज भी महज पांच,छह और सात साल के बच्चे भीख मांगते दिखते हैं. इन्हें देखकर जहन में सवाल ये खड़ा होता है कि विकास के सवाल में इन्हें क्यों नहीं शामिल किया जाता है. इन्हें उचित सुविधाएं मुहैया कराते हुए एक मॉडल बनाने की दिशा में प्रयास क्यों नहीं होता. कोई सुपर 30 इनके लिए काम क्यों नहीं करती. अजी इन्हें भी इंजीनियर बनाईये क्योंकि देश का ढ़ांचा इनके बगैर काफी कमजोर समझ आ रहा है. बगैर इन भविष्यों पर चिंतन के न ही डिजिटल ही पूरा होगा और न ही इंडिया ही सकारात्मक तौर पर परिभाषित किया जा सकेगा.</p>

नुमाईश में खड़े उस बचपन पर लगभग हर रोज निगहबानी करता रहता हूं. सेल्फियों के जरिए लोगों द्वारा उनकी मासूमियत के संग चिपकी गरीबी को कैद होते हुए देखता हूं. नन्हे-नन्हे हाथ, जुबान पर कुछ निवालों की ख्वाहिश लिए भारत का विकास माने जाने वाले तमाम बच्चे आज अपने विकास की दरकार में दर-दर कहें या घर-घर भटकते हैं. दरअसल भारत का एक हिस्सा आधुनिकता को जान रहा है, पहचान रहा है और हां उसके साथ खुद को सेट करने की कोशिश भी कर रहा है. लेकिन उनका क्या जो आज भी लोगों में समृद्ध की हल्की सी निशानी देखकर हाथ पसार देते हैं. भारत भले ही उम्र के हिसाब से विकास की ओर बढ़ रहा हो. पर आज भी महज पांच,छह और सात साल के बच्चे भीख मांगते दिखते हैं. इन्हें देखकर जहन में सवाल ये खड़ा होता है कि विकास के सवाल में इन्हें क्यों नहीं शामिल किया जाता है. इन्हें उचित सुविधाएं मुहैया कराते हुए एक मॉडल बनाने की दिशा में प्रयास क्यों नहीं होता. कोई सुपर 30 इनके लिए काम क्यों नहीं करती. अजी इन्हें भी इंजीनियर बनाईये क्योंकि देश का ढ़ांचा इनके बगैर काफी कमजोर समझ आ रहा है. बगैर इन भविष्यों पर चिंतन के न ही डिजिटल ही पूरा होगा और न ही इंडिया ही सकारात्मक तौर पर परिभाषित किया जा सकेगा.

भारत में भीख मांगना अपराध की श्रेणी में रखा गया है. फिर देश की सड़कों पर लोगों के सामने इतने सारे हाथ कैसे उम्मीद की ख्वाहिश करते हैं. बहरहाल ये सारी बातें, लेख, बहस कई बार आयोजित की गईं. मंच सजे पर राजनीतिक जुबानों पर इनका जिक्र नहीं था. क्योंकि उन्होंने राजनीति का मतलब महज धर्म का बटवारा, जाति में मतभेद बनाए रखा है. लेकिन मुद्दा लाख टके का है. कभी भी उछालिए. उछलेगा भी और बिकेगा भी. लोग अफसोस भी जताएंगे. कुछ दिन के लिए नजर और नजरिया भी बदलेगा. चाट के ठेलों, समोसे की दुकानों से स्पेशली एक आध चीजें लेकर दान का दिखावा भी करेंगे. लेकिन क्या इस प्रयास से वे सुखी हो जाएंगे. क्या एक दिन जुबान में आपके द्वारा पैदा किया चट्खारा उन्हे धन्य कर जाएगा. शायद क्या बिलकुल भी नहीं.

गरीबी एक धंधा भी बन चुका है. इसमें बाकायदा कई दलाल शामिल हैं. जो अपहरण करते हैं और बच्चों को भीख मांगने की जगह बताते हैं. इसके इतर एक समूह ऐसा है जो मजबूरी, भुखमरी या इन दोनों का योग कर उसे गरीबी कहें के कारण भी हाथ पसारते हैं. अब करते हैं आंकड़ों की बात तो हर साल करीबन 44 हजार बच्चों के गायब होने की सूचना पुलिस के पास दर्ज होती है. जिसमें से एक चौथाई कभी नहीं मिलते हैं.

भारत में ज्यादातर बाल भिखारी अपनी मर्जी से भीख नहीं मांगते. वे संगठित माफिया के चंगुल में फंसकर भीख मांगने का काम करते हैं. वैसे तो पूरा भारत इस गिरफ्त में है लेकिन तमिलनाडु, केरल, बिहार, नई दिल्ली और ओडिशा में ये एक बड़ी समस्या बना हुआ है. लगभग हर बैकग्राउंड से ताल्लुक रखने वालों के साथ ऐसा ही होता है. इनके पास किताबों की बजाए कटोरा आ जाता है.  पर इसका कारण क्या है शायद ही इस बात को सरकार ने गंभीरता से लिया हो.

तमाम दावों के साथ काम करने के वादे भी हुए हैं. कई एनजीओ इन बच्चों के लिए कार्यरत् भी हैं लेकिन इन बाल भिखारियों की तादाद काफी ज्यादा है जिसके लिहाज से इंतजाम पर्याप्त नहीं है. कई एनजीओ जो की खुद के खर्च पर ऐसे बच्चों के लिए काम कर रहे हैं उनकी ओर राज्य क्या केंद्र भी निगहबानी करना तो छोड़िये जानना भी उचित नहीं समझती. जरूत है रवैया बदलने की. ताकि भारत असल में मजबूती के साथ खुद को विश्व के सामने पेश कर सके. नहीं तो भारत की पहचान के तौर पर एक स्याह सच बाल भिखारी के तौर पर जुड़ा रहेगा.

हिमांशु तिवारी आत्मीय
08858250015

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