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दुख-सुख

लालू को खलनायक की तरह पेश कर भय का माहौल निर्मित करना बीजेपी पर भारी पड़ गया

: भय की राजनीति और अतिरेकी चिंतन : आधुनिक विश्व के इतिहास का लेखन करते हुए महान इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम ने वर्तमान समय को  ‘अतिरेकों का युग’  सही ही कहा है।  जब कोई अनुभवी लेखक किसी समय को कोई खास नाम देता है तो वह उसके पीछे तर्क भी देता है और उसके पीछे गंभीर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अनुभव काम कर रहे होते हैं। जब यह युग ही अतिरेकों का है तो विचारों की दुनियाँ इससे वंचित कैसे रह सकता है ? क्योंकि किसी भी समाज के स्वरूप निर्मिति में उसका अहम योगदान होता है। उसमें भी विचार का क्षेत्र यदि राजनीतिक हो तो कहना ही क्या ! पिछले कुछ दिनों की भारतीय राजनीति पर यदि विचार किया जाय और उसकी जो गूंज सोशल  मीडिया से लेकर अखबारों और टेलीविज़न के प्राइम टाईम में देखने और सुनने को मिला है और जो मिल रहा है उसने हॉब्सबाम के इस नामकरण को अत्यंत ही मौजू बना दिया है। यदि इन संचार माध्यमों पर छाए विचारों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि विचार चाहे किसी भी राजनीतिक धरे के नेताओं या उनके अंधसमर्थकों द्वारा व्यक्त किया गया हो उसमें अतिरेक का भाव निश्चित रूप से रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान इसके केंद्र में मोदी रहे और इस  बार बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान इसके केंद्र में लालू प्रसाद यादव रहे हैं।

<p>: <strong>भय की राजनीति और अतिरेकी चिंतन</strong> : आधुनिक विश्व के इतिहास का लेखन करते हुए महान इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम ने वर्तमान समय को  ‘अतिरेकों का युग’  सही ही कहा है।  जब कोई अनुभवी लेखक किसी समय को कोई खास नाम देता है तो वह उसके पीछे तर्क भी देता है और उसके पीछे गंभीर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अनुभव काम कर रहे होते हैं। जब यह युग ही अतिरेकों का है तो विचारों की दुनियाँ इससे वंचित कैसे रह सकता है ? क्योंकि किसी भी समाज के स्वरूप निर्मिति में उसका अहम योगदान होता है। उसमें भी विचार का क्षेत्र यदि राजनीतिक हो तो कहना ही क्या ! पिछले कुछ दिनों की भारतीय राजनीति पर यदि विचार किया जाय और उसकी जो गूंज सोशल  मीडिया से लेकर अखबारों और टेलीविज़न के प्राइम टाईम में देखने और सुनने को मिला है और जो मिल रहा है उसने हॉब्सबाम के इस नामकरण को अत्यंत ही मौजू बना दिया है। यदि इन संचार माध्यमों पर छाए विचारों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि विचार चाहे किसी भी राजनीतिक धरे के नेताओं या उनके अंधसमर्थकों द्वारा व्यक्त किया गया हो उसमें अतिरेक का भाव निश्चित रूप से रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान इसके केंद्र में मोदी रहे और इस  बार बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान इसके केंद्र में लालू प्रसाद यादव रहे हैं।</p>

: भय की राजनीति और अतिरेकी चिंतन : आधुनिक विश्व के इतिहास का लेखन करते हुए महान इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम ने वर्तमान समय को  ‘अतिरेकों का युग’  सही ही कहा है।  जब कोई अनुभवी लेखक किसी समय को कोई खास नाम देता है तो वह उसके पीछे तर्क भी देता है और उसके पीछे गंभीर ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अनुभव काम कर रहे होते हैं। जब यह युग ही अतिरेकों का है तो विचारों की दुनियाँ इससे वंचित कैसे रह सकता है ? क्योंकि किसी भी समाज के स्वरूप निर्मिति में उसका अहम योगदान होता है। उसमें भी विचार का क्षेत्र यदि राजनीतिक हो तो कहना ही क्या ! पिछले कुछ दिनों की भारतीय राजनीति पर यदि विचार किया जाय और उसकी जो गूंज सोशल  मीडिया से लेकर अखबारों और टेलीविज़न के प्राइम टाईम में देखने और सुनने को मिला है और जो मिल रहा है उसने हॉब्सबाम के इस नामकरण को अत्यंत ही मौजू बना दिया है। यदि इन संचार माध्यमों पर छाए विचारों का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि विचार चाहे किसी भी राजनीतिक धरे के नेताओं या उनके अंधसमर्थकों द्वारा व्यक्त किया गया हो उसमें अतिरेक का भाव निश्चित रूप से रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान इसके केंद्र में मोदी रहे और इस  बार बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान इसके केंद्र में लालू प्रसाद यादव रहे हैं।

लोकसभा चुनाव के दौरान इस बात को खूब बढ़ा- चढ़ा कर प्रचारित किया गया की यदि बीजेपी की सरकार बनी और मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो पूरे  देश को गोधरा बना देंगे । इस देश में अल्पसंख्यकों खास कर मुसलमानों का रहना दुर्लभ हो जाएगा । उन्हें अपने ही देश में उपनिवेश की तरह जीना पड़ेगा। जल जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों और उनके सक्रिय समर्थकों को तो छह महीने में ही सफाया कर दिया जाएगा। तमाम विरोधियों ने मोदी को इस रूप में प्रचारित करने की कोशिश की जैसे मोदी भारतीय राजनीति के लिए अस्पृश्य हों। इसी क्रम में मोदी ने अपना प्रचार जितना खुद नहीं किया उससे ज्यादा उनके राजनीतिक विरोधियों ने कर दिया। इसका बहुत बड़ा संवेदनात्मक लाभ मोदी को यूं ही मिल गया। पिछले कुछ दिनों में मोदी ने नायकत्व हासिल किया है उसमें उनके सहयोगियों से विरोधियों का अतिरेकी विरोध का योगदान ज्यादा है। राजनीति में एक सीमा के बाद विरोध भी प्रचार का काम करने लगता है।

लेकिन राजनीति की विडंबनात्मक स्थिति ही कहिए कि लोकसभा चुनाव के दौरान इस स्थिति का लाभ उठाने वाला सबसे बड़ा शक्स बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान उसी स्थिति का शिकार बन गया। विधान सभा चुनाव के दौरान केंद्र में जब तक विकास का मुद्दा छाया रहा बीजेपी की स्थिति मजबूत रही लेकिन जब इसके केंद्र में लालू प्रसाद आ गए बीजेपी की अपनी जमीन ही खिसकने लगी। क्योंकि मोदी और उनके समर्थकों ने लालू प्रसाद यादव को ठीक वैसे ही प्रचारित किया और एक भय का वातावरण निर्मित करने की कोशिश की जिसके केंद्र में लोकसभा चुनाव के दौरान वे खुद थे। लालू प्रसाद यादव को आधार बनाकर जिस तरह जंगल राज -2  और न जाने क्या –क्या  कहा गया जिसका लब्बोलुआब यह था मानो बिहार में लालू प्रसाद यादव  सत्ता में आए नहीं की बिहार में प्रलय आ जाएगा। ठीक उसी तरह जैसे डेढ़ वर्ष पहले लोकसभा चुनाव के दौरान प्रलय की भविष्यवाणी की जा रही थी।  

हकीकत तो यह है की इस देश की राजनीति में गोधरा के महत्व को मोदी से ज्यादा शायद ही कोई और समझ पाएगा । उसी तरह बिहार में जंगल राज के महत्व को लालू प्रसाद यादव से ज्यादा और कोई नहीं समझ सकता है। यही वे राजनीतिक जिन्न हैं जिसने दोनों नेताओं को लगभग दो दशकों से परेशान कर रखा था और इसी के कारण दोनों नेताओं को लगभग राजनीतिक अस्पृश्य की तरह जीवन बिताना पड़ा है। दोनों ने कीमत भी कम नहीं चुकाई है। इसलिए लालू प्रसाद यादव जब मनमोहन सिंह की सरकार में रेल मंत्री बने तो उन्होंने बतौर रेलमंत्री विकास विरोधी छवि को उखाड़ फेकने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने वो सब कुछ किया जो बतौर रेल मंत्री वे कर सकते थे । मोदी भी बतौर प्रधानमंत्री ऐसा कोई काम करने से पहले सौ बार जरूर सोचेंगे जिससे की उनकी पूर्व छवि को पुनर्जीवित होने का मौका मिले।

इसमें कोई दो राय नहीं कि इस छवि निर्मिति में इन दोनों नेताओं की राजनीतिक असफलता निहित है। लेकिन दोनों नेताओं में आत्मविश्वास मौजूद है की इस छवि से अपने आपको मुक्त कर सकते हैं। जनता ने दोनों नेताओं वह मौका भी दिया है। अब ये इनपर निर्भर करता करता है कि हाथ आए इस मौके का कितना सदुपयोग कर पाते हैं। कहते हैं कि अकेलेपन में व्यक्ति सर्वाधिक आत्म निरीक्षण और मूल्यांकन करता है। इसलिए लंबे राजनीतिक अकेलेपन को झेलकर आए हुए इन दोनों राजनेताओं ने आत्म निरीक्षण और मूल्यांकन नहीं किया होगा ऐसा मानना एक अलग तरह के अतिरेकी राजनीतिक यथास्थितिवाद में भरोसा जताने के बराबर होगा।  इसलिए इस तरह के अतिरेकी विचारों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।

समय की शक्ति और सीमा दोनों यह है कि वह रुक नहीं सकता और न ही उसके प्रवाह को रोका जा सकता है। इसलिए भारतीय राजनीति को बाबरी मस्जिद ,गोधरा कांड ,जंगल राज और मण्डल राज के नाम पर रोकने की चाहे जितनी नाकाम कोशिश कर ली जाय उसे रोका नहीं जा सकता। इसको स्पष्ट करने के लिए यदि हॉब्सबाम के शब्दों में कहें तो “अगर कोई घड़ी की सूइयाँ वास्तव में पीछे की ओर घूमना चाहे तो भी पुराने दिन वापस नहीं आ सकते। जो आ सकता है वह सचेतन अतीत की औपचारिक व्यवस्था के कुछ हिस्से ही होंगे । लेकिन उसका भी काम बदल चुका होगा।” इसलिए समय की सूई को पीछे घुमाने और रोक रखने की नाकाम कोशिश करने के बजाय यदि समय की सुई के साथ चलने की विवेकपूर्ण कोशिश की जाय तो वह ज्यादा सार्थक होगा। नहीं तो विवेक हीन विरोध कब प्रचार और प्रचार कब विरोध में तब्दील हो जाता है पता नहीं चलता।

लेखक संजीव झा से संपर्क mob no -8605958279 email – [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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