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अमिताव घोष को पीछे छोड़ हंगरी के लेखक लॉजलो को मिला बुकर पुरस्कार

भारतीय मूल के अंग्रेजी साहित्यक लेखक अमिताव घोष एक बार फिर बुकर प्राइज पाने से चूक गए हैं. 2015 का मैन इंटरनेशनल बुकर प्राइज हंगरी के लॉजलो क्रेसनाहॉरकाई को दिया गया है. भारत के अमिताव घोष एक बार फिर बुकर पुरस्कार पाने से चूक गए. हंगरी के लॉजलो क्रेसनाहॉरकाई ने दुनिया के नौ लेखकों को पीछे छोड़ते हुए इस साल का मैन बुकर पुरस्कार अपने नाम कर लिया. ज्यूरी की मुखिया मरीना वार्नर ने उनके नाम की घोषणा की. बता दें कि कोलकाता के घोष इससे पहले 2008 में भी यह प्रतिष्ठित पुरस्कार पाने से चूक गए थे.

<p>भारतीय मूल के अंग्रेजी साहित्यक लेखक अमिताव घोष एक बार फिर बुकर प्राइज पाने से चूक गए हैं. 2015 का मैन इंटरनेशनल बुकर प्राइज हंगरी के लॉजलो क्रेसनाहॉरकाई को दिया गया है. भारत के अमिताव घोष एक बार फिर बुकर पुरस्कार पाने से चूक गए. हंगरी के लॉजलो क्रेसनाहॉरकाई ने दुनिया के नौ लेखकों को पीछे छोड़ते हुए इस साल का मैन बुकर पुरस्कार अपने नाम कर लिया. ज्यूरी की मुखिया मरीना वार्नर ने उनके नाम की घोषणा की. बता दें कि कोलकाता के घोष इससे पहले 2008 में भी यह प्रतिष्ठित पुरस्कार पाने से चूक गए थे.</p>

भारतीय मूल के अंग्रेजी साहित्यक लेखक अमिताव घोष एक बार फिर बुकर प्राइज पाने से चूक गए हैं. 2015 का मैन इंटरनेशनल बुकर प्राइज हंगरी के लॉजलो क्रेसनाहॉरकाई को दिया गया है. भारत के अमिताव घोष एक बार फिर बुकर पुरस्कार पाने से चूक गए. हंगरी के लॉजलो क्रेसनाहॉरकाई ने दुनिया के नौ लेखकों को पीछे छोड़ते हुए इस साल का मैन बुकर पुरस्कार अपने नाम कर लिया. ज्यूरी की मुखिया मरीना वार्नर ने उनके नाम की घोषणा की. बता दें कि कोलकाता के घोष इससे पहले 2008 में भी यह प्रतिष्ठित पुरस्कार पाने से चूक गए थे.

घोष के अलावा लीबिया के इब्राहिम अल कोनी, मोजाम्बिक के मिया काउतो और अमेरिका के फेनी हावे भी दावेदारों में शामिल थे. पुरस्कार विजेता को 60 हजार पाउंड (करीब 59 लाख 47 हजार रुपये) दिए जाते हैं. यह पुरस्कार किसी भी लेखक को जीवन में एक बार ही दिया जाता है. 61 वर्षीय लॉजलो ने लेखक फ्रेंज काफ्का, गायक जिमी हेंड्रिक्स और जापान के शहर क्योटो को अपना प्रेरणास्रोत बताया है. लॉजलो को 1985 में उस वक्त पहचान मिली, जब उनकी लिखी किताब ‘सैटेनटैंगो’ प्रकाशित हुई थी. बाद में इस पर फिल्म निर्माता बेला टार ने फिल्म बनाई. 1989 में उन्होंने ‘द मेलानकोली ऑफ रेसिस्टेंस’ लिखी जो 1998 में अंग्रेजी में प्रकाशित हु़ई. इससे पहले अरुंधती राय, अरविंद अडिगा, अल्बानिया के इस्माइल कदारे, नाइजीरिया के चिनुआ अकेबे और कनाडा के एलिस मुनरो को यह पुरस्कार मिल चुका है.

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