Mukesh Kumar : अंग्रेजी अख़बारों ने चेतन भगत को महान लेखक से लेकर मौलिक चिंतक तक सब कुछ बना दिया है, मगर उनकी अधिकांश टिप्पणियाँ दो कौड़ी की ही होती हैं। उनकी ताज़ा टिप्पणी पर गौर कीजिए। वे कहते हैं कि संसद के हालिया सत्र में जितना काम नहीं हुआ उससे ज़्यादा तो नच बलिए में हुआ। तुलना का स्तर देखिए। एक घटिया बाज़ारू डाँस कार्यक्रम की तुलना वे लोकतंत्र के सर्वोच्च् संस्थान से उसे निर्रथक एवं नाकारा बताते हुए कर रहे हैं।
हो सकता है कि संसद में कामकाज का न होना बहुत से लोगों को खल रहा हो, मगर प्रदर्शन, बहिष्कार वगैरा भी लोकतांत्रिक एवं संसदीय प्रक्रिया का हिस्सा है, भले ही कई बार वे सीमाओं को लाँघते हुए नज़र आए। दरअसल,ये शासक वर्ग का अभियान भी है कि राजनीति और लोकतंत्र को इतना घटिया बताओ कि लोगों का उससे विश्वास ही उठ जाए और वे तानाशाही को अपना समर्थन देने लगें, जो कि होने भी लगा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि ये बहुत ही ख़तरनाक़ एवं आत्मघाती प्रवृत्ति है और इसका विरोध होना चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार के फेसबुक वॉल से.