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आपका प्राइम टाइम कहीं अधूरा रह गया कॉन्सेप्ट कुमार!

जेएनयू…..जहां ढ़ेर सारी चीखें तो थीं…कुछ न्याय की खातिर….और कुछ भी न्याय की खातिर, लेकिन खेमे एक दूसरे को अन्याय के लबादे के साथ चिपकाने की होड़ में थे। मामला नारों से होता हुआ देशद्रोह पर आया, देशद्रोह से एबीवीपी, एबीवीपी से सरकार और सरकार से मीडिया तक। अजी नहीं सिर्फ यहीं पर नहीं रूक गया। आगे भी बढ़ा, काले कोट से कोर्ट तक, फिर कोर्ट से बद्सलूकी तक आ पहुंचा। पूरी घटना के बाद मीडिया के कामकाज पर सवाल उठने लगे। दरअसल ये सवाल खुद ही रचे गए थे। जिसे अपनी सुविधानुसार या कहिए छवि के अनुसार लोगों तक पहुंचाया जा रहा था। इसी बीच एक विशेष चैनल आईडी को टीबी हो गया। चीखना चिल्लाना बंद हो गया। कल तक घिराव करने वाले कॉन्सेप्ट कुमार एक नए अंदाज में दिखे।

<p>जेएनयू…..जहां ढ़ेर सारी चीखें तो थीं...कुछ न्याय की खातिर....और कुछ भी न्याय की खातिर, लेकिन खेमे एक दूसरे को अन्याय के लबादे के साथ चिपकाने की होड़ में थे। मामला नारों से होता हुआ देशद्रोह पर आया, देशद्रोह से एबीवीपी, एबीवीपी से सरकार और सरकार से मीडिया तक। अजी नहीं सिर्फ यहीं पर नहीं रूक गया। आगे भी बढ़ा, काले कोट से कोर्ट तक, फिर कोर्ट से बद्सलूकी तक आ पहुंचा। पूरी घटना के बाद मीडिया के कामकाज पर सवाल उठने लगे। दरअसल ये सवाल खुद ही रचे गए थे। जिसे अपनी सुविधानुसार या कहिए छवि के अनुसार लोगों तक पहुंचाया जा रहा था। इसी बीच एक विशेष चैनल आईडी को टीबी हो गया। चीखना चिल्लाना बंद हो गया। कल तक घिराव करने वाले कॉन्सेप्ट कुमार एक नए अंदाज में दिखे।</p>

जेएनयू…..जहां ढ़ेर सारी चीखें तो थीं…कुछ न्याय की खातिर….और कुछ भी न्याय की खातिर, लेकिन खेमे एक दूसरे को अन्याय के लबादे के साथ चिपकाने की होड़ में थे। मामला नारों से होता हुआ देशद्रोह पर आया, देशद्रोह से एबीवीपी, एबीवीपी से सरकार और सरकार से मीडिया तक। अजी नहीं सिर्फ यहीं पर नहीं रूक गया। आगे भी बढ़ा, काले कोट से कोर्ट तक, फिर कोर्ट से बद्सलूकी तक आ पहुंचा। पूरी घटना के बाद मीडिया के कामकाज पर सवाल उठने लगे। दरअसल ये सवाल खुद ही रचे गए थे। जिसे अपनी सुविधानुसार या कहिए छवि के अनुसार लोगों तक पहुंचाया जा रहा था। इसी बीच एक विशेष चैनल आईडी को टीबी हो गया। चीखना चिल्लाना बंद हो गया। कल तक घिराव करने वाले कॉन्सेप्ट कुमार एक नए अंदाज में दिखे।

सत्ता के गलियारे से लेकर जेएनयू के नारों तक उदाहरण और उदाहरण चिपकाने की कोशिश रही। पर, सच कह रहा हूं तमाम लोगों ने इस अंधकार की पहली छवि को देखकर ही चैनल बदल लिया होगा। हां बुद्धिजीवी लगातार अंधेरे में अपने कॉन्सेप्ट कुमार के नए कारनामें पर यही कहते रहे कि सही बात एक दम सच कह रहे हैं। जियो पत्रकार। लेकिन सवाल ये है कि सवाल और बवाल उनका सुनाया दिखाया गया, नहीं दिखाया बिलकुल भी नहीं गया, क्योंकि टीवी को टीबी हो गया था।

कॉन्सेप्ट कुमार ने पहले ही पहल मीडिया में आसाराम मुद्दे को जमकर भुनाने वालों का घिराव किया। हालांकि बाद इसके वे खुद भी अभिव्यक्ति की आजादी का तरीके से सदुपयोग करते नजर आए। कुलमिलाकर अब लगने लगा है कि मीडिया मीडिया का दुश्मन होने लगा है। कल कोई चिल्लाएगा और दूसरा उसकी चीख पर सवाल खड़े करते हुए जनता को ये दिखाएगा कि क्या ये इसी तरह से अपने परिवार से भी बात करते होंगे। नहीं। पर उनका जिक्र करना बिलकुल ही भूल गए जो करियर की शुरूआत में कॉन्सेप्ट कुमार को देवानंद कहा करते थे। पर शो के दौरान जबरदस्त, जिंदाबाद के स्टीकर चिपकते रहे। लेकिन एकबात अभी भी सोचने वाली है, जानने वाली है कि असल में महज बुद्धिजीवियों के इतर किसे किसे ये काला सच समझ आया। कितनों ने मीडिया के इस पश्चाताप को सलीके से जाना, पहचाना। देखिएगा जरा, कोई जवाब नहीं आ रहा है।

आजादी और मीडिया की जब चर्चा हुई तो सवाल भी जहन में आए कि इस स्क्रिप्ट में मोटे मोटे अक्षरों में दिखाया गया कि हमारा काम धमकाना नहीं, उकसाना नहीं। तो फिर क्यों मीडिया के ही कुछ चेहरों को राजनीति के कुछ घरानों की चाकरी करते हुए देखा जाता है। एक जगह सवालों में सख्ती देखी जाती है तो एक जगह भक्ति का चेहरा भी उजागर हो जाता है। चीखना और चिल्लाने की बात लोगों के जहन में बार बार जगती रही। दरअसल अंत में प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ ये जानने की कोशिश करती रही कि क्या जिस तरह से एंकर बहस में अलग रंग में आ जाते हैं क्या उनका ये रूप उनके परिवार के साथ भी है। हालांकि इस बार उदाहरण काले पर्दे के पीछे से नहीं बल्कि उस पर्दे को ताक रही जनता के मन में हाल ही में आई एक खबर के संदर्भ में सोचकर आया कि क्या फलां फलां इसी तरह से देर से आने पर पत्नी के जहन में उठ रहे पर सवाल पर खुद ही कहते हैं कि हां मैं अय्याश हूं। शायद नहीं कहते होंगे। लेकिन यहां आपने कह दिया कि हां राष्ट्रविरोधी हूं मैं। इसके पीछे आप अनुच्छेद 19 का हवाला भी दे रहे हैं। 

मैं ये नहीं कह रहा कि इस घटना के दौरान कोई कदम सही हुआ होगा। शायद नहीं हुआ तभी घटना ने अपनी हद खो दी। अपनी किस्मतर पर जेएनयू रो दी। जेएनयू के समर्थन में खड़े होने वालों से भी पूछिए और एबीवीपी के तमगे से चिपके हुए लोगों से भी कि अकेले दम पर कितने बलात्कारों पर आपने इसी तरह  से आवाज उठाई है। कितनी शहादतों पर महज सोशल मीडिया के इतर अपनी श्रद्धांजलि की खातिर कोई और रवैया अपनाया हुआ होगा। नहीं न। काले कोट के वकीलों को जज से पहले ही जज बना दिया गया। पर, मीडिया के तमगे से चिपके उन लोगों को जो न्याय की खरीद फरोख्त करते हैं उन पर आपका सवाल क्यों नहीं। तारीफों के पुलिंदों की चाह थी या फिर सच आप इस बार देशभक्त हुए थे….माफ कीजिएगा मैं सवाल इसलिए नहीं उठा रहा क्योंकि आपके पास देशभक्ति को साबित करने के लिए कोई झंडा या निक्कर नहीं थी। मैं तो महज इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आपने फिर अपनी आवाज को अपने इर्द गिर्द वालों को सुनाकर सुरक्षा का एक घेरा अपने लिए तैयार कर लिया है। पर, जिनसे वास्तव में देश का निर्माण होना है, उन्हें शायद आपके द्वारा बिखेरा गया अंधेरा ठग कर रह गया।

हिमांशु तिवारी आत्मीय
पत्रकार और एक जिम्मेदार नागरिक
[email protected]

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