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राजनीतिकों में यदि सादगी देखनी हो तो माकपा के सांसद नजीर हैं

शम्भूनाथ शुक्ल : राजनीतिकों में यदि सादगी देखनी हो तो माकपा के सांसद नजीर हैं। हालांकि भाकपा वाले भी सादगी वाला जीवन जीते रहे हैं मगर माकपा नेताओं में तो गजब की सादगी देखने को मिलती है। 2001 में एक बार मैं कोलकाता से दिल्ली आ रहा था हावड़ा-दिल्ली राजधानी से। एसी फर्स्ट के कूपे में मेरे अलावा तीन लोग और थे पर उनके नाम मुझे नहीं पता थे न उनके बाबत कोई जानकारी थी। वे तीनों परस्पर बांग्ला में बातें कर रहे थे इसलिए मैं समझ भी नहीं पाया कि ये लोग हैं कौन? अलबत्ता उनमें से दो लोग ऊपर की बर्थ पर चले गए। न किसी ने मुझसे नीचे की बर्थ देने को कहा और न मैने खुद आफर की।

<p>शम्भूनाथ शुक्ल : राजनीतिकों में यदि सादगी देखनी हो तो माकपा के सांसद नजीर हैं। हालांकि भाकपा वाले भी सादगी वाला जीवन जीते रहे हैं मगर माकपा नेताओं में तो गजब की सादगी देखने को मिलती है। 2001 में एक बार मैं कोलकाता से दिल्ली आ रहा था हावड़ा-दिल्ली राजधानी से। एसी फर्स्ट के कूपे में मेरे अलावा तीन लोग और थे पर उनके नाम मुझे नहीं पता थे न उनके बाबत कोई जानकारी थी। वे तीनों परस्पर बांग्ला में बातें कर रहे थे इसलिए मैं समझ भी नहीं पाया कि ये लोग हैं कौन? अलबत्ता उनमें से दो लोग ऊपर की बर्थ पर चले गए। न किसी ने मुझसे नीचे की बर्थ देने को कहा और न मैने खुद आफर की।</p>

शम्भूनाथ शुक्ल : राजनीतिकों में यदि सादगी देखनी हो तो माकपा के सांसद नजीर हैं। हालांकि भाकपा वाले भी सादगी वाला जीवन जीते रहे हैं मगर माकपा नेताओं में तो गजब की सादगी देखने को मिलती है। 2001 में एक बार मैं कोलकाता से दिल्ली आ रहा था हावड़ा-दिल्ली राजधानी से। एसी फर्स्ट के कूपे में मेरे अलावा तीन लोग और थे पर उनके नाम मुझे नहीं पता थे न उनके बाबत कोई जानकारी थी। वे तीनों परस्पर बांग्ला में बातें कर रहे थे इसलिए मैं समझ भी नहीं पाया कि ये लोग हैं कौन? अलबत्ता उनमें से दो लोग ऊपर की बर्थ पर चले गए। न किसी ने मुझसे नीचे की बर्थ देने को कहा और न मैने खुद आफर की।

सुबह तड़के कानपुर निकल गया और जब इटावा पार हो गया तब नाश्ते की प्लेट सजाई जाने लगी। वे दोनों लोग भी नीचे आ गए और चूंकि मैं तब तक बर्थ पर लेटा हुआ था इसलिए उनमें से किसी ने कहा भी नहीं कि थोड़ा खसक जाओ। वे तीनों नीचे की बुजुर्ग महिला के साथ उन्हीं की बर्थ पर शेयर कर के बैठ गए। नाश्ता लग भी गया और तब मैं उठा और अपनी बर्थ पर अकेला चौड़ा होकर बैठा। नाश्ते के बाद उन महिला ने मुझसे हिंदी में पूछा- आप कोलकाता में रहते हैं? मैंने बताया कि जी, फिलहाल तो कोलकाता प्रवास पर हूं लेकिन दिल्ली से हूं। बात बढऩे लगी और मैंने उन्हें बताया कि मैं कोलकाता में जनसत्ता का संपादक हूं।

फिर क्या था। बातों का सिलसिला चल निकला। तब मुझे पता चला कि वे महिला माकपा की राज्यसभा में सदस्य चंद्रकला पांडेय हैं। और बाकी के दो सहयात्री में से एक उलबेडिय़ा (हावड़ा) से लोकसभा सदस्य हन्नन मोल्ला हैं और दूसरे सज्जन बांकुड़ा से जीत कर आए बासुदेव आचार्य हैं। अब मैं तो शर्म से डूब गया। इतनी बड़ी हस्तियां और मेरा व्यवहार उज्बक की तरह। तीनों की वेशभूषा सामान्य थी। मोल्ला साहब एक चौड़ी मोहरी का पाजामा और कुरता डांटे थे। उसे देखकर लग रहा था कि प्रेस शायद ही कभी किया जाता होगा। और बासुदेव दा एक पैंट-शर्ट और हाफ स्वेटर पहने थे। चंद्रकला जी सामान्य-सी सूती धोती। मुझे अचानक याद आया कि अरे ये वही हन्नन मोल्ला हैं जिन्होंने सांसदों का वेतन-भत्ता बढ़ाए जाने का विरोध किया था। पर आज देखिए कि एक संन्यासी योगी आदित्यनाथ ने सांसदों का वेतन-भत्ता दूना कर देने की सिफारिश की है। काश हमारे सारे सांसद बासुदेव दा, मोल्ला दा और चंद्रकला पांडेय सरीखे होते तो गरीब आदमियों की गति उतनी खराब नहीं होती जितनी कि मोदी राज और उसके पहले के मनमोहन राज में हो गई है।

शंभूनाथ शुक्ला के फेसबुक वॉल से.

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