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दलितों के स्वाभाविक मित्र कौन !

 जब-जब बहुजन एकता लायक हालात बनते हैं, सवर्णवादी मीडिया के जरिये कुछ शातिर दलित और सवर्ण बुद्धिजीवी जोर-शोर से यह प्रचार चलाते हैं कि दलितों पर सबसे ज्यादा जुल्म ओबीसी के लोग करते हैं। हाल के दिनों में संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा सम्बन्धी बयान के बाद बहुजन एकता में जो नया उछल आया है, उसके बाद ऐसे तत्व फिर सर्वशक्ति से सक्रिय हो गए है। बहरहाल दलित उत्पीड़न के लिए शूद्रों को जिम्मेवार ठहराने वाले ये बुद्धिजीवी यह बुनियादी तथ्य नहीं बताते कि चार वर्ण से जाति/उपजाति के सहस्रों भागों बंटे हिन्दू समाज में भ्रातृत्व नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। प्रायः मध्य युग में वास कर रहे हिन्दुओं का परस्पर सम्बन्ध शत्रुता और घृणा की बुनियाद पर विकसित हुआ है। यही नहीं पदानुक्रम में उच्चतर जाति/उपजाति द्वारा उपेक्षित हर हिन्दू समुदाय अपने से अन्ग्रसर व कमजोर के प्रति यम की भूमिका में अवतरित होते रहता है। इस लिहाज से खुद दलित समाज औरों की भांति ही क्रूर व कुंठित समुदाय है। असंख्य भागों में बंटे दलित भी कमोबेश अपने से दुर्बलतर दलितों के प्रति ओबीसी वालों की भाँति ही क्रूर व अत्याचारी होते हैं। फर्क थोड़ा सा मात्रा का होता है। तो यह तथ्य है दलित न सिर्फ ओबीसी, बल्कि अपने ही सबलतर समुदायों द्वारा भी उत्पीड़ित होते रहते हैं।

<p> जब-जब बहुजन एकता लायक हालात बनते हैं, सवर्णवादी मीडिया के जरिये कुछ शातिर दलित और सवर्ण बुद्धिजीवी जोर-शोर से यह प्रचार चलाते हैं कि दलितों पर सबसे ज्यादा जुल्म ओबीसी के लोग करते हैं। हाल के दिनों में संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा सम्बन्धी बयान के बाद बहुजन एकता में जो नया उछल आया है, उसके बाद ऐसे तत्व फिर सर्वशक्ति से सक्रिय हो गए है। बहरहाल दलित उत्पीड़न के लिए शूद्रों को जिम्मेवार ठहराने वाले ये बुद्धिजीवी यह बुनियादी तथ्य नहीं बताते कि चार वर्ण से जाति/उपजाति के सहस्रों भागों बंटे हिन्दू समाज में भ्रातृत्व नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। प्रायः मध्य युग में वास कर रहे हिन्दुओं का परस्पर सम्बन्ध शत्रुता और घृणा की बुनियाद पर विकसित हुआ है। यही नहीं पदानुक्रम में उच्चतर जाति/उपजाति द्वारा उपेक्षित हर हिन्दू समुदाय अपने से अन्ग्रसर व कमजोर के प्रति यम की भूमिका में अवतरित होते रहता है। इस लिहाज से खुद दलित समाज औरों की भांति ही क्रूर व कुंठित समुदाय है। असंख्य भागों में बंटे दलित भी कमोबेश अपने से दुर्बलतर दलितों के प्रति ओबीसी वालों की भाँति ही क्रूर व अत्याचारी होते हैं। फर्क थोड़ा सा मात्रा का होता है। तो यह तथ्य है दलित न सिर्फ ओबीसी, बल्कि अपने ही सबलतर समुदायों द्वारा भी उत्पीड़ित होते रहते हैं।</p>

 जब-जब बहुजन एकता लायक हालात बनते हैं, सवर्णवादी मीडिया के जरिये कुछ शातिर दलित और सवर्ण बुद्धिजीवी जोर-शोर से यह प्रचार चलाते हैं कि दलितों पर सबसे ज्यादा जुल्म ओबीसी के लोग करते हैं। हाल के दिनों में संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा सम्बन्धी बयान के बाद बहुजन एकता में जो नया उछल आया है, उसके बाद ऐसे तत्व फिर सर्वशक्ति से सक्रिय हो गए है। बहरहाल दलित उत्पीड़न के लिए शूद्रों को जिम्मेवार ठहराने वाले ये बुद्धिजीवी यह बुनियादी तथ्य नहीं बताते कि चार वर्ण से जाति/उपजाति के सहस्रों भागों बंटे हिन्दू समाज में भ्रातृत्व नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। प्रायः मध्य युग में वास कर रहे हिन्दुओं का परस्पर सम्बन्ध शत्रुता और घृणा की बुनियाद पर विकसित हुआ है। यही नहीं पदानुक्रम में उच्चतर जाति/उपजाति द्वारा उपेक्षित हर हिन्दू समुदाय अपने से अन्ग्रसर व कमजोर के प्रति यम की भूमिका में अवतरित होते रहता है। इस लिहाज से खुद दलित समाज औरों की भांति ही क्रूर व कुंठित समुदाय है। असंख्य भागों में बंटे दलित भी कमोबेश अपने से दुर्बलतर दलितों के प्रति ओबीसी वालों की भाँति ही क्रूर व अत्याचारी होते हैं। फर्क थोड़ा सा मात्रा का होता है। तो यह तथ्य है दलित न सिर्फ ओबीसी, बल्कि अपने ही सबलतर समुदायों द्वारा भी उत्पीड़ित होते रहते हैं।

          बहरहाल दलित उत्पीड़न के मामले में पिछड़ों को जिम्मेवार ठहराने वाले बुद्धिजीवियों से जिस समुदाय को ग्रेस मार्क मिलता है,वह सवर्ण समुदाय है। तो सवर्णों का नाम सामान्यतया दलित-उत्पीडन से नहीं जुड़ने के आधार क्या यह मान लिया जाये उनमें करुणा का अपार भण्डार है और अतिशूद्रों के प्रति उनमे प्रेम-प्रीती का भाव क्रियाशील रहता है? शायद शूद्रों को दलितों का शत्रु चिन्हित करने वाले विद्वान प्रकारांतर में यही साबित करना चाहते हैं। इसीलिए ऐसे लोग प्रायः दलित-ब्राह्मण/सवर्ण एकता की हिमायत करते हैं। लेकिन शायद यह उनका शातिरपना है या अज्ञानता जिसके कारण वे यही नहीं बतला पाते कि निम्नतर वर्ण के लोग अपने ही दुर्बलतर भाइयों के प्रति जिस भ्रातृत्वहीनता और क्रूरता का अनुशीलन करते हैं, उसकी प्रेरणा उन्हीं से ही मिलती है। हाँ यह तथ्य है कि सवर्ण समाज में दलितों के प्रति क्रूरता के तत्व शूद्रों से कहीं ज्यादा है। उनको ही देखकर शुद्रातिशूद्र अपने ही भाइयों के विरुद्ध यम की भूमिका में अवतरित होते रहते हैं। उन्हें इसका प्रदर्शन कर सवर्ण होने का सुखबोध पैदा होता है। अब यहां सवाल पैदा होता है कि जिन सवर्णों की क्रूरता और अमानवीयता का अनुकरण शुद्रातिशूद्रों की सबलतर जातियां करती हैं, उन सवर्णों का दलितों से क्यों नहीं टकराव होता? इसका प्रधान कारण है सवर्ण और दलितों के मध्य शक्ति का अत्यंत असमान बंटवारा। सवर्ण ऐतिहासिक कारणों से इतना शक्तिशाली हैं कि टकराव की स्थिति में उन्हें बिना प्रतिरोध के  वाक-ओवर मिल जाता है। वे दलितों को इतना हीनतर मनुष्य प्राणी मानते हैं कि उन पर हाथ उठाना उनको अपने सम्मान के खिलाफ लगता है। वैसे सवर्णों के साथ दलितों का टकराव न होने का प्रमुख कारण गावों में उनका विशिष्ट अवस्थान है। वहां साधारतया दलित एक किनारे वास करते हैं, जबकि सवर्ण दूसरे किनारे। बीच में पड़ोसी के रूप रहते हैं ओबीसी के लोग। अगर दलितों के पड़ोस में सवर्ण और विपरीत छोर पर ओबीसी रहते तो उस स्थिति में मुख्य उत्पीड़क सवर्ण ही होते। बहरहाल गांवों में दूर-दूर बसने के बावजूद जब कभी सवर्णों का दलितों से  टकराव होता है, उनके एक बच्चे तक के समक्ष भी पूरी की पूरी दलित बस्ती के लोग हथियार डाल देते हैं।
       दलितों के शूद्रों से टकराव के पीछे जहां प्रधान कारण उनका परस्पर का पड़ोसी होना है, वहीँ एक अन्य कारण दोनों समुदायों के मध्य शक्ति के स्रोतों का उन्नीस-बीस का बंटवारा है। हिन्दू धर्म की प्राणाधार जिस वर्ण-व्यवस्था के द्वारा हिन्दू समाज सदियों से परिचालित होता रहा है, वह मुख्यतः शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक –धार्मिक व शैक्षिक ) के बंटवारे की व्यवस्था रही है। धर्माधारित इस व्यवस्था के प्रवर्तकों ने इसका निर्माण एक ऐसे सुपरिकल्पित अर्थ-शास्त्र के तहत किया, जिससे शक्ति के तमाम स्रोत चिरकाल के लिए सवर्णों के मध्य वितरित होकर रह गए। इसमें अध्ययन-अध्यापन,पुरोहित्य और राज्य-संचालन में मंत्रणादान ब्राहमणों; राज्य-संचालन, भूस्वामित्व, सैन्य-संचालन के अधिकार क्षत्रियों एवं पशुपालन, व्यवसाय-वाणिज्य के अधिकार वैश्यों के मध्य वितरित हो कर रह गए। अर्थात वर्ण-व्यवस्था के अर्थ-शास्त्र के सौजन्य से आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, धार्मिक-सांस्कृतिक इत्यादि शक्ति के समस्त स्रोतों पर हमेशा-हमेशा के लिए सवर्णों का कब्ज़ा कायम हो गया। वर्ण-व्यवस्था के अर्थ-शास्त्र के तहत दलितों के साथ जिन्हें चिरकाल के लिए शक्ति के स्रोतों से वंचित होना पड़ा, वह और कोई नहीं शूद्र अर्थात पिछड़ा समाज रहा। दलितों की भांति पिछड़ों के लिए भी अध्ययन-अध्यापन, पुरोहित्य, राज्य-संचालन, सैन्य-कार्य, व्यवसाय-वाणिज्यादि का अधिकार धर्माधारित कानूनों के हजारों सालों से निषेध रहा। अधिकार-शून्य दोनों ही समुदायों के लिए ही वर्ण-व्यवस्था में अधिकार-संपन्न तीन उच्चतर वर्णों अर्थात सवर्णों के निशुल्क सेवा अनिवार्य रही। इस मामले में फर्क इतना था कि जहां दलितों की स्थिति अछूत दासों की रही, वहीँ पिछड़े उनसे जरा सा बेहतर इसलिए रहे कि वे अछूत नहीं सछूत दास के रूप में सवर्णों के कुछ निकट रहने का अवसर पाए।
शक्ति के स्रोतों से समान रूप से बहिष्कार के फलस्वरूप दलित–पिछड़ों में सामान्यतया उन्नीस–बीस का फर्क रहा। इस मामूली फर्क के कारण हिंदुत्व के सौजन्य से दलितों के प्रति घृणा पोषण करने वाले शूद्र जब-जब दलितों के समक्ष यम के रूप में सामने आये, दलितों ने उनका प्रतिरोध किया। अगर पिछड़े भी सवर्णों की भांति बेहिसाब शक्ति-संपन्न होते टकराव की स्थिति में दलित नत-मस्तक होकर मामले को इकतरफा बन जाने देते। पर,चूंकि उनकी आर्थिक शक्ति और सामाजिक मर्यादा में नाम मात्र का ही फर्क रहा इसलिए टकराव की स्थिति में दलित न तो पीछे हटे न ही गाँव में घर के सामने से उनके गुजरने पर खटिया छोड़कर खड़े हुए। बहरहाल आर्थिक शक्ति और सामाजिक मर्यादा में नाम मात्र का फर्क रहने के कारण लड़ने-झगड़ने के बावजूद दलित-पिछड़े सदियों से एक दूसरे के निकट रहकर सुख-दुःख बांटते रहे। इस कार्य में कॉमन शत्रु के रूप में सवर्णों की सबल उपस्थिति भी प्रभावी भूमिका अदा करती रही। कॉमन शत्रु के रूप में सवर्णों की भूमिका को आधार बनाकर ही कई बहुजन नायकों ने दलित-पिछड़ों को भ्रातृत्व के बंधन में बांधने का सफल प्रयास किया।
     सवर्णों से मिली कॉमन वंचना और शोषण के आधार पर सदियों से ही दलित-पिछड़े एक दूसरे के निकट आते रहे। इस कार्य में मंडल रपट के प्रकाशित होने के बाद अचानक लम्बवत विकास हुआ। मंडल के बाद कांशीराम, लालू-मुलायम, माया-पासवान इत्यादि के सौजन्य से सम्पूर्ण भारत के दलित-पिछड़ों ने पहली बार शिद्दत के साथ यह उपलब्धि किया कि यदि वे संगठित हो जायें तो शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा जमाये सवर्णों से अपना वाजिब हक़ ले सकते हैं। इस बात की उपलब्धि कर मंडल उत्तर काल में दलित, आदिवासी, पिछड़े हिन्दू-धर्म द्वारा खड़ी की गयी घृणा और शत्रुता की प्राचीर ध्वस्त कर तेजी से एक दूसरे के निकट आने लगे। देखते ही देखते चूहे की एक-एक बिल के समान असंख्य भागों में बंटे दलित-पिछड़े विशाल बहुजन समाज में तब्दील होने लगे। चूंकि राज-सत्ता के जरिये ही शक्ति के स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी ली जा सकती है, इस सोच से सत्ता दखल के लिए बहुजनों में जाति चेतना का ऐसा राजनीतिकरण हुआ कि हजारों साल के शक्तिसंपन्न सवर्ण राजनीतिक रूप से एक लाचार सामाजिक समूह में परिणत होने के लिए बाध्य हुए। बहुजनों की प्रबल जाति चेतना के कारण ‘स्वतंत्र सवर्ण राजनीति’  अतीत का विषय बनती दिखने लगी।                
अब बहुजन एकता परम्परागत रूप से विशेषाधिकारयुक्त व शक्ति-संपन्न सवर्णों के लिए आतंक विषय बनने  लगी। इस आतंक से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने जहां एक ओर सुपरिकल्पित रूप से कुछ दलित बुद्धिजीवियों को बहुजनवाद के विरुद्ध खड़ा किया, वहीँ दूसरी बहुजनों को दलित-अतिदलित, पिछड़ा-अतिपिछडा इत्यादि में विभाजित करने का कुचक्र चलाया। यही नहीं कुछ ऐसे हालात पैदा किये कि ढेरों बहुजनवादी नेता खुद शक्तिसंपन्न अल्पजनों के हिमायती दलों के साथ हो लिए। किन्तु दलित – पिछड़े नेताओं के सवर्णवादियों के खेमे में जाने व परस्पर विरोध में मशगूल होने के बावजूद जमीनी स्तर पर बहुजन एकता पर फर्क नहीं पड़ा। बल्कि सवर्ण राजनीति के नए सिरे से सबल होने के बाद बहुजन समाज के जागरूक लोगों बहुजन एकता के प्रति और सजग हो गए। चूंकि आरक्षण का कॉमन आधार दलित-पिछड़ों को एक दूसरे के निकट लाने में सबसे प्रभावी रोल अदा करता है, इसलिए जब संघ प्रमुख के बयान के बाद दलित-पिछड़ों को आरक्षण पर संकट नजर आया, बहुजन एकता में अचानक उछाल आ गया और सवर्णवादी उसे ध्वस्त करने के लिए नए सिरे से मुस्तैद हो गए। लेकिन वे जितना भी प्रयास कर  लें, अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो सकते। बहुजनवाद के प्रचंड हिमायती दलितों को अपने सही शत्रु और मित्र की पहचान हो चुकी है।                      

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