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संघ की शाखाओं में सिर्फ हाथ-पांव चलाना सिखाया जाता है, दिमाग चलाना क्यों नहीं सिखाया जाता? : डॉ. वेदप्रताप वैदिक

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख और राष्ट्रपति के संदेश में क्या फर्क है? एक हिंदू राष्ट्र के राष्ट्रपति हैं और दूसरे भारत राष्ट्र के राष्ट्रपति हैं। राष्ट्रपति स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस पर संदेश देते हैं और सर संघचालक दशहरे पर देते हैं, जो कि इस बार संघ का 91वां स्थापना दिवस था। दोनों के संदेशों की ध्वनि वही होती है, जो सरकार कहना चाहती है, खासतौर से तब जबकि सरकार अपने स्वयंसेवकों की हो। जैसे आप राष्ट्रपति से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह सरकार की आलोचना करे, वैसे ही संघप्रमुख से आप यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि वह अपने चेलों के कान खींचे? संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने इस दृष्टि से बहुत ही ठकुरसुहाती बात कह दी।

<p>राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख और राष्ट्रपति के संदेश में क्या फर्क है? एक हिंदू राष्ट्र के राष्ट्रपति हैं और दूसरे भारत राष्ट्र के राष्ट्रपति हैं। राष्ट्रपति स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस पर संदेश देते हैं और सर संघचालक दशहरे पर देते हैं, जो कि इस बार संघ का 91वां स्थापना दिवस था। दोनों के संदेशों की ध्वनि वही होती है, जो सरकार कहना चाहती है, खासतौर से तब जबकि सरकार अपने स्वयंसेवकों की हो। जैसे आप राष्ट्रपति से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह सरकार की आलोचना करे, वैसे ही संघप्रमुख से आप यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि वह अपने चेलों के कान खींचे? संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने इस दृष्टि से बहुत ही ठकुरसुहाती बात कह दी।</p>

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख और राष्ट्रपति के संदेश में क्या फर्क है? एक हिंदू राष्ट्र के राष्ट्रपति हैं और दूसरे भारत राष्ट्र के राष्ट्रपति हैं। राष्ट्रपति स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस पर संदेश देते हैं और सर संघचालक दशहरे पर देते हैं, जो कि इस बार संघ का 91वां स्थापना दिवस था। दोनों के संदेशों की ध्वनि वही होती है, जो सरकार कहना चाहती है, खासतौर से तब जबकि सरकार अपने स्वयंसेवकों की हो। जैसे आप राष्ट्रपति से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह सरकार की आलोचना करे, वैसे ही संघप्रमुख से आप यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि वह अपने चेलों के कान खींचे? संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने इस दृष्टि से बहुत ही ठकुरसुहाती बात कह दी।

उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि निराशा का जैसा माहौल दो साल पहले था, वैसा अब नहीं है। ‘अब हम चिंतित नहीं हैं।’ मोहनजी का चिंतित नहीं होना ही चिंता का सबसे बड़ा विषय है। नरेंद्र मोदी चिंतित बिल्कुल भी न हों, यह स्वाभाविक है। वे प्रधानमंत्री की कुर्सी में बैठे हुए हैं। इस कुर्सी के आस-पास देश की जनता फटक भी नहीं सकती। भाजपा-कार्यकर्त्ताओं के लिए भी वह दूर की कौड़ी ही है। भाजपा के नेता और मंत्रिगण भी ज़रा सावधान हैं। उन्हें पहले से संघ के कठोर अनुशासन का संस्कार मिला हुआ है। सिर्फ सदाबहार नौकरशाहों की बहार आई हुई है। उनका पहला काम ही है- प्रधानमंत्री को चिंतामुक्त रखना। प्रधानमंत्रीजी इसीलिए चिंतामुक्त होकर विदेशों में जाकर भारत का नगाड़ा पीटते रहते हैं और भारत में जनसभाओं को संबोधित करते रहते हैं लेकिन मोहन भागवत तो जनता से सीधे जुड़े रहते हैं। दर्जनों साधारण लोग उनसे रोज़ मिलते रहते हैं। वे पारिव्राजक संन्यासी की तरह सारे देश में लगातार घूमते रहते हैं। क्या उन्हें भी सचमुच यह लगता है कि अच्छे दिन जल्दी ही आनेवाले हैं? पिछले डेढ़-साल में क्या ‘अच्छे दिनों’ की नींव जमा दी गई है?

संघ-प्रमुख की इस बात पर कुछ लोगों ने ताना मारा है कि उन्होंने चर्चित हत्याओं को छुट-पुट घटनाएं कैसे कह दिया? वे वास्तव में हैं तो छुटपुट ही लेकिन टीवी चैनलों और अखबारों ने उन्हें सुरसा के बदन की तरह खींचकर गगनचुंबी बना दिया। यह उनके अपने धंधे की मजबूरी है। इस मजबूरी के आगे भाजपा के नेता नौसिखिए ही निकले। उनकी हवा सरक गई। अगर उनमें अनुभव और साहस होता तो वे अत्याचारों के विरुद्ध इतना कसकर दहाड़ते कि कुकर्मियों के दिल दहल जाते। आश्चर्य तो यह है कि सांप्रदायिक और जातिवादी उन्माद की घटनाओं पर संघ-प्रमुख भी मौन रहे। सरकार और संघ के इस मौन की दहाड़ पूरे देश में गूंजती रही। इस दहाड़ को फीका करने का जिम्मा ऐसे मंत्रियों को सौंप दिया गया है, जिन्होंने आज तक नगरपालिका का चुनाव भी नहीं जीता है। ऐसे मंत्रियों के एक-दो अच्छे बयान मरहम का थोड़ा-सा काम करते हैं तो उसी वक्त अन्य भाजपा नेता उन घावों पर तेजाब की बाल्टियां उलटने में ज़रा भी देर नहीं करते।

संघ-प्रमुख ने अपने उद्बोधन में जातिवाद और आरक्षण के मुद्दों को भी संभालने की कोशिश की। बाबासाहेब आंबेडकर के योगदान का स्मरण करना इस अवसर पर बिल्कुल प्रासंगिक रहा। आरक्षण पर उन्होंने जो खरी-खरी कह डाली थी, उस पर थोड़ी-बहुत लीपा-पोली जरुर हो गई। शायद इसके कारण बिहार में होनेवाले भाजपा के नुकसान में थोड़ी कमी आ जाए लेकिन आंबेडकर की तारीफ का पुल उन्होंने इतना ऊंचा-नीचा बांध दिया कि यदि आंबेडकर जिंदा होते तो वे भी अपने दांतों तले उंगली दबा लेते। मोहनजी ने आंबेडकर के व्यक्तित्व में महात्मा बुद्ध और शंकराचार्य के गुणों का समन्वय बता दिया। इसमें शक नहीं है कि आंबेडकर अपने समय के सर्वश्रेष्ठ बौद्धिकों में से थे लेकिन बुद्ध और शंकराचार्य की उपमा भी कैसी उपमा है? भारत से बौद्ध धर्म का निर्वासन करनेवालों में शंकराचार्य सर्वप्रमुख थे।

जहां तक जातिवाद, बढ़ती हुई आबादी, शिक्षा का सुधार, चुनाव-पद्धति आदि समस्याओं का प्रश्न है, ये बुनियादी मुद्दे हैं। इन मुद्दों को संघ-प्रमुख ने उठाया, जैसे कि राष्ट्रपति अपने अभिभाषण में और भी कई मुद्दों को उठाते हैं। यह उन्होंने ठीक किया लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि उन्होंने क्या कुछ ठोस सुझाव भी दिए? कुछ समाधान भी सुझाए? नरेंद्र मोदी की सरकार समय की रस्सी पर नींद में दौड़ते हुए उत्साही युवक की तरह है। क्या उसे कुछ मार्गदर्शन मिला? संघ-प्रमुख से आशा की जाती है कि वे देश को जगाएंगे, प्रेरणा देंगे, करोड़ों लोगों से सत्संकल्प करवाएंगे। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ज्यादा से ज्यादा क्या कर सकते हैं? कानून बना सकते हैं। कानून का अपना महत्व है लेकिन आप समाज को डंडे से नहीं बदल सकते। समाज को बदलने की शक्ति राजनैतिकों में कम और नैतिकों में कहीं ज्यादा होती है। क्या ऐसी कोई शक्ति आज भारत में दिखाई पड़ रही है?

संघ-प्रमुख ने सरकार के कुछ अभियानों का भी जिक्र किया। उनके परिणाम अभी आने बाकी हैं। लेकिन कुछ अभियान तो कोरे झुनझुने हैं, यह उन्होंने क्यों नहीं बताया? उनसे बेहतर बात तो नीति आयोग के उस सदस्य ने कह दी, जिसे इस अवसर पर मुख्य अतिथि बनाया गया था। उन्होंने कहा कि ‘स्मार्ट सिटी’ तो ठीक है, देश को ‘स्मार्ट गांव’ पहले चाहिए। इसी प्रकार विदेश नीति के बारे में भी संघ-प्रमुख की मोटी-मोटी बात तो ठीक है कि विदेशों में भारत का नाम इधर खूब गूंज रहा है लेकिन इस गूंज से कौनसा संगीत निकल रहा है, यह उन्होंने नहीं बताया। भारत को सुरक्षा परिषद् में बिठाने की बात अभी भी हवा में झूल रही है। दुनिया के एक मात्र ‘हिंदू राष्ट्र’ रहे नेपाल से हमारे संबंध खट्टे हो गए हैं। पाकिस्तान के साथ हमारी सरकार झूला झूलती दिखाई पड़ती है। कभी आगे, कभी पीछे। पड़ौसी राष्ट्रों में चीन का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा है। विश्व की महाशक्ति बनना तो सिर्फ सपना भर है, डेढ़ साल में हम दक्षिण एशिया को ही अपना प्रभाव क्षेत्र नहीं बना पाए। अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस और दर्जनों छोटे-मोटे देशों के चक्कर हम लगा आए लेकिन हम यह नहीं बता पा रहे कि भारत को ठोस उपलब्धि क्या हुई? विदेशों में योग, गीता, आयुर्वेद आदि का प्रचार जरुर बढ़ा है। इसका सेहरा सरकार अपने सिर बांध रही है लेकिन यह काम तो उसके आने के बहुत पहले से कुछ योगियों ने शुरु कर दिया था। इसका श्रेय उन्हें देने की बजाय खुद झपटने की कोशिश अजीब—सी लगती है।

संघ-प्रमुख ने पश्चिमी भौतिकवाद और उपभोक्तावाद के खतरों से भी देश को आगाह किया, जो कि बिल्कुल ठीक है लेकिन वे शायद यह देख नहीं पा रहे हैं कि उनके चेलों की सरकार आंख मींचकर उसी मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ी चली जा रही है। स्वयं नरेंद्र मोदी उसके मूर्तिमंत प्रतीक बन गए हैं। उन्होंने जिन-जिन अभियानों की घोषणा की हैं, उनके हिंदी नाम तक उन्हें पता नहीं हैं। ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्मार्ट सिटी’ – ये सब क्या हैं? संघ-प्रमुखजी, जरा यह बताइए कि आप अपनी शाखाओं में स्वयंसेवकों को क्या यही सब सिखाते हैं? यह स्वयंसेवकों की सरकार है। इसके पास क्या कोई वैकल्पिक नक्शा है, जिसके आधार पर भावी भारत का निर्माण होगा? इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि साढ़े तीन साल बाद या उसके पहले ही जब यह सरकार अपने घर बैठ जाएगी, तब लोग पूछेंगे कि संघ की शाखाओं में स्वयंसेवकों को सिर्फ हाथ-पांव चलाना सिखाया जाता है, दिमाग चलाना क्यों नहीं सिखाया जाता? क्या हिंदू राष्ट्र का निर्माण इसी तरह होगा?

लेखक डा. वेद प्रताप वैदिक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.

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