आधुनिक एकलव्य को हिन्दी सीखनी थी भाषण देने के लिए हिंदी की जानकारी और पकड़ जरुरी थी, लेकिन एकलव्य गुज्जु था। गरीब तो इतना था की बचपन स्कूल की बजाय चाय की दुकान और चाय बेचने में निकल गया, गरीबी की वजह से एकलव्य दून या कैम्ब्रिज नहीं जा सकता था वह तो भला हो भैंस-बकरी वाले लोगों का जो मालगाड़ी से व्यापार के चलते उत्तरप्रदेश से महाराष्ट्र वाया गुजरात जाते थे। उन्हीं से बोलते बतियाते {चाय देने के दौरान} एकलव्य ने हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वानों साहित्यकारों जो खुद को हिंदी का अर्जुन समझते थे उनसे भी ज्यादा हिन्दी सीख ली, धुआँधार भाषण जुमले हिन्दी में देने शुरू कर दिए जिसका प्रतिरोध मौनी सरदार, इटली अम्मा, मासूम पप्पू नहीं कर पाये। हिन्दी में सभी को पंद्रह लाख, एक सैनिक का कटा सर के बदले वहाँ के दस सैनिक, पेट्रोल के दाम, डॉलर का भाव, कैप्टेन कालिया मुद्दा, अच्छे दिन, इत्यादि जुमलों की हवाबाजी करते-करते एकलव्य आज प्रधानसेवक हिंदी की बदौलत बन पाया।
हिंदी को शुक्रिया अदा करने के लिये हिंदी सम्मेलन इस बार विदेश की जगह व्यापम राजधानी भोपाल में आयोजित किया, इतनी हिंदी सीखी फिर भी प्रधान सेवक कुछ जुमलों का हिंदी नाम नही ढूंढ पाये। अब उन्हें हिंदी के नारो-जुमलों की जरुरत नहीं, इसलिए ‘मेक इन इंडिया, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्मार्ट सिटी’, ‘स्किल इंडिया’ अंग्रेजी नारे-जुमले देने लगे हैं।
आधुनिक एकलव्य का द्रोणाचार्य कौन है ये हमको भी नहीं पता। लेकिन हिंदी के अर्जुन हार गए आज के एकलव्य से।