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पास के चक्कर में फेल हुए पत्रकार

यूं तो मुफ्तखोरी की आदत देश में शायद ही किसी को ना हो, मगर यह आदत कभी-कभी बेइज्जती की हदें भी पार करवा देती है। कभी-कभी अपनों के लिए तो कभी-कभी दूसरों के लिए हम भीखमंगों की श्रेणी में आ जाते हैं। व्यवसाय की गरिमा तो पहले ही मिट्टी में मिल चुकी है। मगर खुद की गरिमा भी तार-तार करवा डालते हैं। वैसे तो हमारा पूरा देश ही किसी न किसी स्तर पर सब्सीडी व आरक्षण की भीख पर जी रहा है, मगर बात लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की हो तो गरिमा भी शर्मा जाती है। भीख मांगने के कई स्तर हैं, कोई सार्वजनिक तौर पर मांगता है, तो कोई गुपचुप तरीके से। इन दोनों अवस्थाओं में मजबूरी का भाव एक जैसा ही होता है। हां मुफ्त की बोटियां तोडऩे का जो मजा है, वो भला पैसे खर्च करके कहां आता है। पीएम के कहने से Give-up कर दिया तो Grab-up कौन करेगा।

<p>यूं तो मुफ्तखोरी की आदत देश में शायद ही किसी को ना हो, मगर यह आदत कभी-कभी बेइज्जती की हदें भी पार करवा देती है। कभी-कभी अपनों के लिए तो कभी-कभी दूसरों के लिए हम भीखमंगों की श्रेणी में आ जाते हैं। व्यवसाय की गरिमा तो पहले ही मिट्टी में मिल चुकी है। मगर खुद की गरिमा भी तार-तार करवा डालते हैं। वैसे तो हमारा पूरा देश ही किसी न किसी स्तर पर सब्सीडी व आरक्षण की भीख पर जी रहा है, मगर बात लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की हो तो गरिमा भी शर्मा जाती है। भीख मांगने के कई स्तर हैं, कोई सार्वजनिक तौर पर मांगता है, तो कोई गुपचुप तरीके से। इन दोनों अवस्थाओं में मजबूरी का भाव एक जैसा ही होता है। हां मुफ्त की बोटियां तोडऩे का जो मजा है, वो भला पैसे खर्च करके कहां आता है। पीएम के कहने से Give-up कर दिया तो Grab-up कौन करेगा।</p>

यूं तो मुफ्तखोरी की आदत देश में शायद ही किसी को ना हो, मगर यह आदत कभी-कभी बेइज्जती की हदें भी पार करवा देती है। कभी-कभी अपनों के लिए तो कभी-कभी दूसरों के लिए हम भीखमंगों की श्रेणी में आ जाते हैं। व्यवसाय की गरिमा तो पहले ही मिट्टी में मिल चुकी है। मगर खुद की गरिमा भी तार-तार करवा डालते हैं। वैसे तो हमारा पूरा देश ही किसी न किसी स्तर पर सब्सीडी व आरक्षण की भीख पर जी रहा है, मगर बात लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की हो तो गरिमा भी शर्मा जाती है। भीख मांगने के कई स्तर हैं, कोई सार्वजनिक तौर पर मांगता है, तो कोई गुपचुप तरीके से। इन दोनों अवस्थाओं में मजबूरी का भाव एक जैसा ही होता है। हां मुफ्त की बोटियां तोडऩे का जो मजा है, वो भला पैसे खर्च करके कहां आता है। पीएम के कहने से Give-up कर दिया तो Grab-up कौन करेगा।

    चलो अब मुद्दे पर आते हैं। आयोजन है फ्रीडम सीरिज के पहले मैच का और वह भी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पावन जन्मोत्सव पर। हालांकि महात्मा गांधी ने अंग्रेजों से धक्के खाने के बाद उन्हें देश से वो धक्का मारा कि दोबारा कभी नहीं आ पाएंगे, मगर देश में जो मुफ्तखोरी व छीनाझपटी का माहौल है उसे शायद गांधी जी भी नहीं दूर कर पाते। अब जब हर कोई खाने की कला में निपुण हो रहा है, तो भला पत्रकार साथी क्यों पीछे रहें। आखिर वे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जो हैं। बाकी तीन स्तंभों ने तो खाने की कला में निपुणता हासिल कर ली है, मगर यही स्तंभ ऐसा है जो धक्कों के सिवाय कुछ नहीं खा सकता। हालांकि यहां भी कुछ ऐसे हैं, जो अपवाद हो सकते हैं, मगर अधिकतर तो धक्के खाने और भीख मांगने के सिवाय कुछ करने के काबिल नहीं रहे हैं।
भले ही यह मजबूरी वश हो रहा है, मगर हो तो रहा है। अब बात मैच की है तो फिर मैच की ओर चलते हैं। मैच वो भी टी-20 और स्तर भी अंतरराष्ट्रीय हो तो पत्रकार मित्रों के रिश्तेदारों से लेकर कभी साल भर मुंह न लगाने वाले साथियों के फोन दनदनाने लगते हैं। जो साल भर गालियां भी बकता रहा हो, वह भी मुफ्त के पास के चक्कर में उसका हालचाल पूछता है और पूरे साल की कसर निकाल देता है। ऐसे में बेचारा पत्रकार अपना काम छोड़ पास के चक्कर में भिखारी बन जाता है। भिखारी भी ऐसे स्तर का कि जब तक दुत्कार न मिले तब तक कटोरा आगे ही रहता है। अब शर्म भी करें तो कब तक पहले साल भर विज्ञापन के लिए भीख तो मांगी ही जाती है, अब पास के लिए मांग ली जाए तो कौन सा शर्म का समंदर सूख जाएगा।
अब भीखमंगी की गरिमा तब तार-तार हो जाती है, जब कई दिन की बेचारियत व अल्ला के नाम पर दे-दे के बावजूद आखिर में पास देने वाला यह कह देता है सारी इस बार नहीं हो सकते। यही हाल यहां भी हुआ। अब भीख मांगने की हर प्रैक्टिस कर ली और इज्जत भी गंवा दी, पास भी न मिला। चलो बात यहां खत्म हो जाती तो ठीक था, बात तो आगे तक की है। वो लोग क्या कहेंगे, जिन्होंने इस स्तर पर पहुंचाया था। वे तो यह कहेंगे ही न कि नाकारा पत्रकार है, एक पास तक नहीं ला पाया और उन पत्रकारों को देखो जो अपनी काबिलियत पर कहां से कहां पहुंच गए हैं।

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