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साहित्य के सामंत नए लेखकों को नकारना छोड़ दें….

हिंदी दिवस पर 
मुझे छपने वाले साहित्य की दुनिया में 5 साल हुए। आप मेरी बातों को कम अनुभव वाला कहकर खारिज कर सकते हैं, पर आप यह तो मानेंगे ही कि यह बताने के लिए पूरा समुद्र पीने की जरूरत नहीं होती कि उसके पानी का स्वाद कैसा है।

<p><strong>हिंदी दिवस पर </strong> <br />मुझे छपने वाले साहित्य की दुनिया में 5 साल हुए। आप मेरी बातों को कम अनुभव वाला कहकर खारिज कर सकते हैं, पर आप यह तो मानेंगे ही कि यह बताने के लिए पूरा समुद्र पीने की जरूरत नहीं होती कि उसके पानी का स्वाद कैसा है।</p>

हिंदी दिवस पर 
मुझे छपने वाले साहित्य की दुनिया में 5 साल हुए। आप मेरी बातों को कम अनुभव वाला कहकर खारिज कर सकते हैं, पर आप यह तो मानेंगे ही कि यह बताने के लिए पूरा समुद्र पीने की जरूरत नहीं होती कि उसके पानी का स्वाद कैसा है।

                                                                                   
 मैं शुरू से न शुरू कर, बीच की एक दोपहर से शुरू करता हूँ। तब मैं उतना नया नहीं था, जैसे स्कूल में दाखिले के वक्त बच्चे होते हैं। दो-तीन कहानियाँ, 11 लेख और एक पुस्तक “जौहरी की तलाश” छप चुकी थी। कोई पूछता, तो गर्व से बताता। अब भी बताता हूँ। बीएचयू में हिंदी विभाग में बैठा हुआ था। साथ में प्रोफ़ेसर प्रभाकर सिंह भी थे। तभी एक साहित्यकार महोदय आये। शायद उनसे मुलाक़ात मेरे लिए सौभाग्य वाली थी। वह कहने लगे मेरी एक किताब पर आमिर फिल्म बनाना चाह रहे थे, पर मैंने इनकार कर दिया। अभी बात चल ही रही थी कि उन्होंने मुझसे पूछा तुम ब्राम्हण हो? हिंदी का एक बड़ा लेखक यह नहीं जानना चाहता था कि मैं क्या लिखता हूँ और क्यों लिखता हूँ। वह यह जानना चाहते थे कि मेरी जाति क्या है। वे सब लोग कहानियों-कविताओं में गरीब, शोषित के लिए दुखी होते हैं। अपनी पत्रिकाओं में छपने के लिए आने वाली कहानियों को इसलिये रद्दी की टोकरी में फेंक देते हैं कि लेखक की जाति उन्हें नहीं सुहाती। हिंदी में लेखक बनने का रास्ता कुछ अलग सा ही है। जिसकी खोज जाने किस विद्वान ने की। यहाँ वह रास्ता नहीं के बराबर है कि आप कुछ साल लगाकर आप हिंदी की एक अच्छी सी किताब लिखते हैं। फिर प्रकाशक से जाकर मिलें। वहां कोई हो आपकी किताब देखकर यह तय नहीं करता कि छपेगी या नहीं। वह तुरंत आपसे सवाल करेगा किसने भेजा है। हिंदी के किसी गाड फादर ने भेजा तो ठीक वरना आपको लौटा दिया जाता है।
     जो शुरुआत में मैंने शुरू की बात नहीं बताई वह यह कि गोरखपुर अमर उजाला में था। एक सप्ताह की छुट्टी लेकर दिल्ली गया। एक किताब की पांडुलिपि लेकर इस उम्मीद से दरियागंज कि गलियों में घूम रहा था कि कोई इसके दो पेज भी पढ़ ले तो छापने के लिए तैयार हो जाए। पढ़ने के लिए भी कोई तैयार नहीं हुआ। मुझे सलाह दी गई कि पहले पत्रिकाओं में छापो, कुछ पहचान बनाओ। इसके बाद किसी बड़े लेखक का लेटर लेकर आओ तब किताब छपेगी। इससे पहले तो तुम भले ही गोदान ही क्यों न लिख दो कोई पूछेगा भी नहीं। एक लेखक बनने के लिए बहुत धैर्य का मन्त्र पढ़ना पड़ता है। आपको बार-बार अपना परिचय देना पड़ता है। कहीं अपमानित भी होना पड़ता है।                                                   मित्रों हिंदी दिवस पर आपको देने के लिए मेरे पास ज्यादा कुछ तो है नहीं। बस इतना कहूंगा कि साहित्य के सामंत नए लेखकों को नकारना छोड़ दें तो हिंदी और मजबूत होगी। 1960 के आसपास लिखी अपनी कविता “अँधेरे में” में मुक्तिबोध ने कहा था- अभिव्यक्ति के सारे खतरे/ उठाने ही होंगे/ तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।                                          

हिंदी दिवस पर आप सभी को हार्दिक शुभकामना।                
अजय पाण्डेय।                                            
सुहवल, गाजीपुर।

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