Abhishek Srivastava : हिंदी के किसी लेखक से गाली खाने का मन हो तो बस उसे मिले पुरस्कार पर सवाल उठा दीजिए। पुरस्कार हिंदीवालों की कमज़ोर नस है। ज़रा सा दबते ही भड़क उठती है। फिर हमारा लेखक आव देखता है न ताव, मुंह अंधेरे आधी रात में उठकर ”डिजिटल इंडिया” के झुटपुटे में ही डेढ़ किलोमीटर लंबी सेंटी टीप लिख मारता है। सुनिए, अगर आपकी नीयत में खोट है, तो आप शराब से रचें, स्याही से या खून से, सब धान मेरे लिए बाईस पसेरी ही रहेगा। फिर मुक्तिबोध हों या नेरुदा या वैशाली-वसुंधरा में रहने वाला कोई भी बड़ा-छोटा कलमघिस्सू, हमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
याद रखिए, तीन बूढ़ों को दिन के उजाले में गोली मारी गई है। मामूली बात लग रही है आपको जी? अगर आज की तारीख में आपका बुढ़ापा हमें रोशनी देने के काबिल नहीं है, तो हम भी कोई सिन्दबाद नहीं हैं जो आप जैसे बूढ़ों को लादे हुए परस्पर कृतकृत्य होते रहें (विष्णु खरे से उधार शब्द, माफी के साथ)। बुरा लग रहा है? खीझ हो रही है? तो चलिए, पहले राज्य से मिले सारे पुरस्कार तत्काल लौटाइए। साहित्य अकादमी भी। फिर बात करिएगा। कमरे में सरकारी पुरस्कार भी सजाए रखेंगे और कलबुर्गी पर आंसू भी बहाएंगे? दोनों बातें एक साथ नहीं चलेंगी। हम इतने भोले दिखाई देते हैं क्या? ये चतुर घोड़ा क्या होता है! या तो चतुर चलेगा या घोड़ा…!
मीडिया एक्टिविस्ट अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से.
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